भगवद्-भक्ति

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भगवद्-भक्ति

मन से , वाणी से , कर्म से इष्टदेव की आज्ञा का पालन करते हुए सेवा करना ही भक्ति है । दूसरे शब्दों में कहें तो कलश-कुम्भ तथा घट एक ही वस्तु के तीन नाम है , वैसे ही इष्टदेव-गुरु तथा मन्त्र --- इन तीनों में एकत्त्व बुद्धि से ध्यान करते हुए मन्त्र का जाप करने का नाम भक्ति है । "भक्तमाल" के मंगलाचरण में नाभादास जी ने लिखा भी है --

"भक्ति भक्त भगवन्त गुरु चतुर्नाम वपु एक ।

इनके पद वन्दन किये नाशत विघ्न अनेक ।।"

भगवान् श्री शंकराचार्य जी ने भक्ति का प्रतिपादन करते हुए कहा है ---- 

"स्वस्वरूपानुसन्धानं भक्तिरित्याभिधीयते"

अपने शुद्ध सच्चिदानंद स्वरूप का अनुसन्धान करना ही भक्ति है ।

श्री स्वामी मधुसूदन सरस्वती जी महाराज अपने "भगवद्भक्तिरसायनम्" नामक ग्रन्थ में --

"भजमन्त:करणस्य भगवदाकाररूपतां भक्ति:" ,  

"भज्यते सेव्यते भगवदाकारमन्त:करणं क्रियते अनया इति भक्ति:" , 

"द्रवीभावपूर्विका हि मनसो भगवदाकारता सविकल्पवृत्तिरूपा भक्ति" आदि भक्ति की परिभाषा करते हैं ।

वे कहते हैं कि अंतःकरण की भगवदाकार वाली वृत्ति को भक्ति कहते हैं अथवा भगवदाकार अंतःकरण से सेवा करना भक्ति कही जाती है अथवा द्रवीभाव पूर्वक मन की भगवदाकार को प्राप्त हुई सविकल्प वृत्ति ही भक्ति है ।

भगवान् के गुण तथा गरिमा का वर्णन करने वाले ग्रन्थों का श्रवण करना भक्ति का साधन है --

"भगवद्गुणगरिमाग्रन्थनरूपग्रन्थश्रवणं भक्तिसाधनम् । "

प्राणी मात्र का भगवद्-भक्ति में अधिकार है । दरअसल भगवद् विषयक प्रेम की पराकाष्ठा ही भक्ति है , वह जिसमें है , वही मुख्य रूप से भक्त है । निरन्तर अश्रुपात होना , पसीना आना , रोमांच होना , स्वर भङ्ग होना , शरीर कांपना , शरीर का विवर्ण होना , भगवान् में तल्लीन होकर संसार तथा शरीर को भी भूल जाना , शरीर का स्तम्भित होना --- यह आठ सात्त्विक भक्त के लक्षण हैं ।

प्रेमा भक्ति की ग्यारह भूमिकाएं होती हैं --- महापुरुषों की सेवा , महापुरुषों की दया पात्र होना , महापुरुषों के धर्म में श्रद्धा , हरिगुण-श्रवण , प्रेमभक्ति का अंकुर , स्वरूप-ज्ञान, प्रेम में परमानन्द की वृद्धि , प्रेम का छलकना , भगवद्धर्म में निष्ठा , भगवद्गुणों से युक्त होना तथा प्रेम की पराकाष्ठा ।

जो ऊपर मधुसूदन सरस्वती जी के प्रमाण से द्रवी भाव पूर्विका लिखा , वह क्या है समझते हैं ----जिस प्रकार अग्नि में तपायी हुई लाख इतनी पतली हो जाये कि वह मलमल के सात परत वाले वस्त्र से निकल जाये , फिर उसमें श्याम रङ्ग डाल दिया जाये , बाद में लाख ठंडी हो जाने पर लाखों यत्न करने पर भी लाख उस श्यामता का परित्याग नहीं कर सकती ।

वैसे ही भगवद्भक्त का मन गोपाङ्गनाओं के समान भगवान् की वियोगाग्नि के ताप से पिघलकर लाख के समान भगवदाकार हो गया है , उसी द्रवीभूत भगवदाकार हुए अंतःकरण में भगवान् की श्यामता रूपी रङ्ग डाल देने पर उस भक्त का मन उस श्यामता का त्याग नहीं करता ।

ऐसी भक्ति गोपियों की थी , वे भोजन बनाते हुए , बच्चों को खिलाते हुए , घर के कार्य करते हुए भी उनका मन श्री श्यामसुन्दर के श्याम रङ्ग में ऐसा रंगा हुआ था कि लाखों यत्न करने पर भी उनका चित्त श्रीकृष्ण से एक क्षण भी नहीं हटता था ।

अतः उन्होंने कहा --- "जित देखौं तित श्याममयी है ।"

नारद जी ने भक्तिसूत्र में कहा है --- 

"सा परै पुंसिपरमप्रेमरूपा।" परम-पुरुष परमात्मा में परम-प्रेम का होना भक्ति है ।

इसी सम्बन्ध में मानस में भी कहा है ---

"भगतिहिं ज्ञानहिं नहिं कछु भेदा ।

  उभय हरहिं भव संभव खेदा ।"

भक्ति और ज्ञान में केवल इतना ही अन्तर है कि भक्ति द्रवीभूत अंतःकरण की भगवदाकार सविकल्प वृत्ति है तथा ज्ञान द्रवीभूत अंतःकरण की अद्वितीय आत्मगोचरा निर्विकल्प वृत्ति है । इसको बरह्मविद्या कहते हैं ।

भागवत में नवधा भक्ति का वर्णन इस प्रकार आता है ---

"श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।

 अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥'

भगवान् की कथाओं का श्रवण , जैसा परीक्षित जी ने किया ।

भगवान् के पवित्र नामों का कीर्तन , जैसा शुकदेव जी ने किया ।

भगवान् विष्णु का स्मरण , जैसा प्रह्लाद जी ने किया ।

पादसेवन मां लक्ष्मी की भांति, अर्चन राजा पृथु जैसा , वंदन अक्रूर जी की तरह , दास्य महाबली हनुमान जी जैसा , सख्य अर्जुन जैसा और आत्मनिवेदन बलि राजा जैसा - इन्हें नवधा भक्ति कहते हैं ।

संन्यास-गीता में तीन प्रकार की भक्ति है , गौणी-रागात्मिका तथा परा ।

गौणी में भगवान् के गुणों का गान , रागात्मिका प्रेमस्वरूपा है , ज्ञान मिश्रित भक्ति पराभक्ति है ।

इसके उदाहरण -- सनकादि- व्यास-काकभुशुण्डि- भगवान् शंकराचार्य आदि हैं ।

संन्यास गीता के अनुसार भक्ति की सात भूमिकाएं कही गई है --

नाम-जप की प्रधानता , रूप का ध्यान , भगवान् की विभूतियों का चिन्तन , भगवान् की अनेक शक्तियों का चिन्तन , भगवान के गुणों का चिन्तन , सर्वत्र उपास्य की भावना व सर्वत्र ब्रह्म-स्वरूप की भावना ।

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