माया (विषयों की ममता-आसक्ति) को छोड़कर परलोक का सेवन (भगवान के दिव्य धाम की प्राप्ति के लिए भगवत्सेवा रूप साधन) करना चाहिए, जिससे भव (जन्म-...
माया (विषयों की ममता-आसक्ति) को छोड़कर परलोक का सेवन (भगवान के दिव्य धाम की प्राप्ति के लिए भगवत्सेवा रूप साधन) करना चाहिए, जिससे भव (जन्म-मरण) से उत्पन्न सारे शोक मिट जाएँ।
देह धरे का दंड है, सब काहू को होय ।
ज्ञानी भुगते ज्ञान से, अज्ञानी भुगते रोय ॥
देह को मै मनना सबसे बड़ा यह पाप है। कबीरदास जी कहते हैं कि देह धारण करने का दंड भोग या प्रारब्ध निश्चित है जो सब को भुगतना होता है. अंतर इतना ही है कि ज्ञानी या समझदार व्यक्ति इस भोग को या दुःख को समझदारी से भोगता है निभाता है संतुष्ट रहता है जबकि अज्ञानी रोते हुए दुखी मन से सब कुछ झेलता है।
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि॥
आत्मा को अदृश्य, अकल्पनीय और अपरिवर्तनीय कहा गया है। यह जानकर तुम्हें शरीर के लिये शोक नहीं करना चाहिये।
इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान् परः॥
इंद्रियों से परे इंद्रियों के विषय हैं; इन्द्रियों के विषयों से भी सूक्ष्म मन है। मन से परे बुद्धि है; और बुद्धि से भी सूक्ष्म आत्मा है।” भौतिक बुद्धि केवल भौतिक अवधारणाओं को समझ सकती है, लेकिन अपने चिंतन की शक्ति से दिव्य आत्मा तक कभी नहीं पहुंच सकती। परिणामस्वरूप, स्वयं के ज्ञान के लिए बाहरी स्रोतों की आवश्यकता होती है
मनुष्य को जो देह से प्यार है उसमे कोई सा भी ऐसा समान नहीं है जो रखा जा सके आत्मा निकलने के बाद दो दिन में शरीर सड़ जाता है इस देह की तीन ही परिणाम है या तो जलना, दफ़न, या पानी में बहाना चाहे कोई भी हो इसके अलावा कुछ नहीं हो सकता हमसे तो अच्छे पशु है जो खाते है भूसा और देते है गोबर जो घर लीपने के काम और पूजा के पहले गोबर की जरूरत पड़ती है!
मनुष्य शरीर में दो बातें हैं। पुराने कर्मों का फल भोग और नया पुरुषार्थ। दूसरी योनियों में केवल पुराने कर्मोंका फलभोग है अर्थात् कीट-पतंग, पशु-पक्षी, देवता, ब्रह्म-लोक तक की योनियाँ भोग-योनियाँ हैं। इसलिये उनके लिये ऐसा करो और ऐसा मत करो'।
यह विधान नहीं है। पशु-पक्षी कीट-पतंग आदि जो कुछ भी कर्म करते हैं, उनका वह कर्म भी फलभोग में है। कारण कि उनके द्वारा किया जाने वाला कर्म उनके प्रारब्ध के अनुसार पहले से ही रचा हुआ है। उनके जीवन में अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति का जो कुछ भोग होता है, वह भोग भी फलभोग में ही है। परन्तु मनुष्य शरीर तो केवल नये पुरुषार्थ के लिये ही मिला है, जिससे यह अपना उद्धार कर ले।
इस मनुष्य शरीर में दो विभाग हैं, एक तो इसके सामने पुराने कर्मों के फलक्षरूप में अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति आती है; और दूसरा यह नया पुरुषार्थ (नये कर्म) करता है। नये कर्मों के अनुसार ही इसके भविष्य का निर्माण होता है -
नर तन सम नहिं कवनिउ देही।
जीव चराचर जाचत तेही ।।
कागभुशुण्डि जी कह रहे है की बाकी सभी योनि भोग योनि है। जो आगे कर कर आये है वही भोग रहे है केवल और केवल नर तन ही कुछ कर सकता है! भगवान भी मनुष्य अवतार ले कर आये पर यह एक बहुत बड़ी विडम्बना है की भगवान मनुष्य रूप में आये और इंसान भगवान बनने का प्रयास कर रहा है। मनुष्य शरीर क्यों कीमती है? क्योकि शरीर यह एक सीढ़ी है नर्क, स्वर्ग, अपवर्ग की, मनुष्य का शरीर एक जंक्शन है यहाँ से तीन रास्ते जाते है यह मनुष्य को तय करना है कौन सी ट्रैन पकडे।
एक कहानी याद आ रही है - एक राजा वन-भ्रमण के लिए गया। रास्ता भूल जाने पर भूख-प्यास से पीड़ित वह एक वनवासी की झोंपड़ी पर पहुँचा। वहाँ उसे आतिथ्य मिला तो जान बची। चलते समय राजा ने उस वनवासी से कहा, "हम इस राज्य के शासक हैं। तुम्हारी सज्जनता से प्रभावित होकर अमुक नगर का चंदन बाग तुम्हें प्रदान करते हैं। उसके द्वारा जीवन आनंदमय बीतेगा।"
वनवासी उस परवाने को लेकर नगर अधिकारी के पास गया और बहुमूल्य चंदन का उपवन उसे प्राप्त हो गया। चंदन का क्या महत्त्व है और उससे किस प्रकार लाभ उठाया जा सकता है, उसकी जानकारी न होने से वनवासी चंदन के वृक्ष काटकर उनका कोयला बनाकर शहर में बेचने लगा। इस प्रकार किसी तरह उसके गुजारे की व्यवस्था चलने लगी।
धीरे-धीरे सभी वृक्ष समाप्त हो गए। एक अंतिम पेड़ बचा। वर्षा होने के कारण कोयला न बन सका, तो उसने लकड़ी बेचने का निश्चय किया। लकड़ी का गट्ठा लेकर जब वह बाजार में पहुँचा तो सुगंध से प्रभावित लोगों ने उसका भारी मूल्य चुकाया।
आश्चर्यचकित वनवासी ने इसका कारण पूछा तो लोगों ने कहा, "यह चंदन काष्ठ है। बहुत मूल्यवान है। यदि तुम्हारे पास ऐसी ही और लकड़ी हो तो उसका प्रचुर मूल्य प्राप्त कर सकते हो।"
वनवासी अपनी नासमझी पर पश्चात्ताप करने लगा कि उसने इतना बड़ा बहुमूल्य चंदन वन कौड़ी मोल कोयले बनाकर बेच दिया।
पछताओ मत, यह सारी दुनिया तुम्हारी ही तरह नासमझ है। जीवन का एक- एक क्षण बहुमूल्य है, पर लोग उसे वासना और तृष्णाओं के बदले कौड़ी मोल में गँवाते हैं। तुम्हारे पास जो एक वृक्ष बचा है, उसी का सदुपयोग कर लो, तो कम नहीं।" बहुत गँवाकर भी अंत में यदि कोई मनुष्य सँभल जाता है, तो वह भी बुद्धिमान ही माना जाता है।
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