तव माया बस जीव जड़ संतत फिरइ भुलान। तेहि पर क्रोध न करिअ प्रभु कृपासिंधु भगवान॥

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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तव माया बस जीव जड़ संतत फिरइ भुलान।

तेहि पर क्रोध न करिअ प्रभु कृपासिंधु भगवान॥

 हे प्रभो यह अज्ञानी जीव आपकी माया के वश होकर निरंतर भूला फिरता है। हे कृपा के समुद्र भगवान्‌ उस पर क्रोध न कीजिए ।

 कागभुशुंडि जी को अपने ज्ञान पर अहंकार हो गया था और उन्होंने प्रभु की परीक्षा लेनी चाही थी।

 लेकिन यह मानव समाज की सचाई है। मनु्ष्य चार पैसे कमा लेता है, धन का संचय कर लेता है, उसके सारे काम बनने लगते हैं तो इसके बाद वह खुद को ही सर्वे सर्वा समझने लगता है।

 मनु्ष्य को कई बार ऐसे मौके मिलते हैं, जहां से वह अपनी भूल को समझकर बुरी वृत्तियों से वापसी कर सकता है, लेकिन कई बार अहंकार इतना बड़ा हो जाता है कि संकोच वश वह पुण्य के मार्ग पर वापसी नहीं कर पाता है।

संग तें जती कुमंत्र ते राजा।

मान ते ग्यान पान तें लाजा।।

प्रीति प्रनय बिनु मद ते गुनी।

नासहिं बेगि नीति अस सुनी।।

  विषयों के संग से संन्यासी, बुरी सलाह से राजा, मान से ज्ञान, मदिरापान से लज्जा, नम्रता के बिना (नम्रता न होने से) प्रीति और मद (अहंकार) से गुणवान शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार की नीति मैंने सुनी है। विषयों से दूर रहें संन्यासी।

 आज संसार इस भव में फंसा है। संसार में यहीं से माया के असर की वृत्ति का जन्म होता है, जो कभी मद और लोभ का आवरण चढ़ा कर हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष से पापकर्म करवाती है तो कभी महाभक्त और महाज्ञानी रावण से भी स्त्री हरण जैसा कृत्य करा डालती है।

अहङ्‍कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः।

मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः॥

  वे अहंकार, बल, घमण्ड, कामना और क्रोधादि के परायण और दूसरों की निन्दा करने वाले पुरुष अपने और दूसरों के शरीर में स्थित मुझ अन्तर्यामी से द्वेष करने वाले होते हैं।

 यहाँ श्रीकृष्ण असुर प्रवृत्ति वाले लोगों के और अधिक भेद खोलने वाले लक्षणों का वर्णन करते हैं। वे अधम-द्वेषपूर्ण, क्रूर, लड़ाकू और धृष्ट होते हैं। यद्यपि उनमें सदाचारिता के गुण नहीं होते किंतु वे सभी में दोष ढूढने में आनंदित होते हैं। ऐसे आसुरी आचरण वाले व्यक्ति स्वयं को अत्यंत महत्वपूर्ण मानते हैं और आत्म अभ्युदय की इस प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप दूसरों की सफलता से ईर्ष्या करते हैं। अगर कभी कोई उनकी योजनाओं का विरोध करता है तब वे क्रोधित होकर दूसरों को कष्ट पहुँचाते हैं और उसी प्रकार से अपनी आत्माओं को कष्ट देते हैं।

 परिणामस्वरूप वे परमात्मा की उपेक्षा और अपमान करते हैं जो उनके अपने और अन्य लोगों के हृदयों में स्थित है।

नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं।

प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं॥

 अभिमान रहित पुरुष जगत में दुर्लभ है इसका तात्पर्य मद ही से नहीं है अन्य सब विकारो का जीतने वाला संसार में कोई नहीं है जिसको प्रभुता पाने पर मद नहीं हुआ ऐसे पुरुष ने संसार में जन्म नहीं लिया अर्थात मद का जीतने वाला पुनर्जन्म नहीं लेता वह भव पार हो जाता है क्योकि जगत की उत्पत्ति अहंकार ही से है। बिना अहंकार संसार में जन्म कैसे संभव है? अन्य भाव केवल और केवल प्रभु ही ऐसे है इनमे प्रभुता पाने पर अभिमान नहीं है सो उनका जन्म नहीं होता वे तो प्रकट हुआ करते है।

काम क्रोध मद लोभ की, जौ लौं मन में खान।

तौ लौं पण्डित मूरखौं, तुलसी एक समान।।

 जब तक व्यक्ति के मन में काम, क्रोध, वासना, लोभ और मोह का वास होता है तब तक ज्ञानी और मूर्ख दोनों एक समान ही होते हैं।

  और सात्त्विक अहंकार। ये अहंकार हम नहीं हैं, हमारे ही अंदर छुपे विकार शत्रु हैं, जिन्हें कमज़ोर नहीं मानना चाहिए। सहजता का अभाव ही अहंकार है। या ऐसा कहे कि सरलता का अभाव ही अहंकार है। जब हमारा मन अपने आप को अज्ञानता के कारण सर्वश्रेष्ठ मानने लगता है, तो उसे अहंकार कहा है। अपने को ही दूसरों से श्रेष्ठ समझना अन्य सभी को दीन, हीन, नीच, कमजोर समझना और देखना अहंकार की श्रेणी में आता है। अहंकार यानी पीड़ा और पीड़ा से हमें दूर होना हो तो एक ही मार्ग है, सहजता, सरल हो जाओ।

 क्या सहज होना इनता सरल है ? ऐसा कहा जाता है कि सृजन के कार्य की तरह कोई भी प्रवृत्ति कर्म सृष्टिकर्ता के मन में अहंकार उत्पन्न करता है और केवल प्रार्थना जैसे निवृत्ति कर्म से ही इसे दूर किया जा सकता है। इसलिए जब भी हम कुछ नया करने का साहस करते हैं, तो परियोजना की सफलता के लिए प्रार्थना के साथ-साथ हमें सलाह दी जाती है कि हम अपनी सभी उपलब्धियों का श्रेय न लेने के विनम्र रवैये के लिए प्रार्थना करें। हमारे सभी कार्यों की सफलता और असफलता को समर्पित करने की सलाह शास्त्रों और संतों एवं महापुरुषों द्वारा समान रूप से दी जाती है। 

कायेन वाचा मनसेन्द्रियैव

बुध्यात्मना वा प्रकृतेः स्वभावात्।

करोमि यद्यत्सकलं परस्मै

नारायणेति समर्पयामि।

 मैं शरीर , वाणी , मन या इंद्रियों के साथ जो कुछ भी करता हूं , या तो बुद्धि के विवेक से , या दिल की गहरी भावनाओं से , या मन की मौजूदा प्रवृत्तियों से , मैं उन सभी को करता हूं (यानी जो भी काम करना है) किया जाए) बिना स्वामित्व के , और मैं उन्हें श्री नारायण के चरणों में समर्पित करता हूं ।

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