ऋण मुक्ति क्या है ?

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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  एक धर्मशाला में पति-पत्नी अपने छोटे-से नन्हें-मुन्ने बच्चे के साथ रुके। धर्मशाला कच्ची थी। दीवारों में दरारें पड़ गयी थीं आसपास में खुला जंगल जैसा माहौल था। पति-पत्नी अपने छोटे-से बच्चे को प्रांगण में बिठाकर कुछ काम से बाहर गये। वापस आकर देखते हैं तो बच्चे के सामने एक बड़ा नाग कुण्डली मारकर फन फैलाये बैठा है। यह भयंकर दृश्य देखकर दोनों हक्के-बक्के रह गये। बेटा मिट्टी की मुट्ठी भर-भरकर नाग के फन पर फेंक रहा है और नाग हर बार झुक-झुककर सहे जा रहा है। माँ चीख उठी,बाप चिल्लायाः-

"बचाओ... बचाओ... हमारे लाड़ले को बचाओ !!"

  लोगों की भीड़ इकट्ठी हो गयी। उसमें एक निशानेबाज था। ऊँट गाड़ी पर बोझा ढोने का धंधा करता था। वह बोलाः "मैं निशाना तो मारूँ,सर्प को ही खत्म करूँगा लेकिन निशाना चूक जाय और बच्चे को चोट लग जाय तो मैं जिम्मेदार नहीं। आप लोग बोलो तो मैं कोशिश करूँ?" पुत्र के आगे विषधर बैठा है ! ऐसे प्रसंग पर कौन-सी माँ-बाप इनकार करेगे? 

  वह सहमत हो गये और माँ बोलीः "भाई ! साँप को मारने की कोशिश करो,अगर गलती से बच्चे को चोट लग जायेगी तो हम कुछ नहीं कहेंगे।"

 ऊँटवाले ने निशाना मारा। साँप जख्मी होकर गिर पड़ा,मूर्च्छित हो गया।

  लोगों ने सोचा कि साँप मर गया है। उन्होंने उसको उठाकर बाड़ में फेंक दिया। रात हो गयी। वह ऊँटवाला उसी धर्मशाला में अपनी ऊँटगाड़ी पर सो गया। रात में ठंडी हवा चली। मूर्च्छित साँप सचेतन हो गया और आकर ऊँटवाले के पैर में डसकर चला गया। सुबह लोग देखते हैं तो ऊँटवाला मरा हुआ था।दैवयोग से सर्पविद्या जानने वाला एक आदमी वहाँ ठहरा हुआ था। वह बोलाः "साँप को यहाँ बुलवाकर जहर को वापिस खिंचवाने की विद्या मैं जानता हूँ। यहाँ कोई आठ-दस साल का निर्दोष बच्चा हो तो उसके चित्त में साँप के सूक्ष्म शरीर को बुला दूँ और वार्तालाप करा दूँ। गाँव में से आठ-दस साल का बच्चा लाया गया। उसने उस बच्चे में साँप के जीव को बुलाया। 

 उससे पूछा गया - "इस ऊँटवाले को तूने काटा है ?" बच्चे में मौजूद जीव ने कहा - "हाँ।"

  फिर पूछा कि ,- "इस बेचारे ऊँट वाले को क्यों काटा?" बच्चे के द्वारा वह साँप बोलने लगाः "मैं निर्दोष था। मैंने इसका कुछ बिगाड़ा नहीं था। इसने मुझे निशाना बनाया तो मैं क्यों इससे बदला न लूँ?"

  वह बच्चा तुम पर मिट्टी डाल रहा था उसको तो तुमने कुछ नहीं किया !!

  बालक रूपी साँप ने कहा- बच्चा तो मेरा तीन जन्म पहले का लेनदार है। तीन जन्म पहले मैं भी मनुष्य था,वह भी मनुष्य था। मैंने उससे तीन सौ रुपये लिए थे।लेकिन वापस नहीं दे पाया। अभी तो देने की क्षमता भी नहीं है।ऐसी भद्दी योनियों में भटकना पड़ रहा है,आज संयोगवश वह सामने आ गया तो मैं अपना फन झुका-झुका कर उससे माफी मांग रहा था। उसकी आत्मा जागृत हुई तो धूल की मुट्ठियाँ फेंक-फेंककर वह मुझे फटकार दे रहा था कि 'लानत है तुझे ! कर्जा नहीं चुका सका !!*उसकी वह फटकार सहते-सहते मैं अपना ऋण अदा कर रहा था।

  हमारे लेन-देन के बीच टपकने वाला वह ऊँट वाला कौन होता है? मैंने इसका कुछ भी नहीं बिगाड़ा था फिर भी इसने मुझ पर निशाना मारा। मैंने इसका बदल लिया।"

  सर्प-विद्या जाननेवाले ने साँप को समझाया- देखो !! तुम हमारा इतना कहना मानों,इसका जहर खींच लो।उस सर्प ने कहा - "मैं तुम्हारा कहना मानूँ तो तुम भी मेरा कहना मानो। मेरी तो वैर लेने की योनि है और कुछ नहीं तो न सही, मुझे यह ऊँटवाला पाँच सौ रुपये देवे तो अभी इसका जहर खींच लूँ। उस बच्चे से तीन जन्म पूर्व मैंने तीन सौ रुपये लिये थे,दो जन्म और बीत गये, उसके सूद के दौ सौ मिलाकर कुल पाँच सौ लौटाने हैं।किसी सज्जन ने पाँच सौ रूपये उस बच्चे के माँ-बाप को दे दिये। साँप का जीव वापिस अपनी देह में गया,वहाँ से सरकता हुआ मरे हुए ऊँटवाले के पास आया और जहर वापिस खींच लिया। ऊँटवाला जिंदा हो गया।

  इस कथा से स्पष्ट होता है कि इतना व्यर्थ खर्च नहीं करना चाहिए कि सिर पर कर्जा चढ़ाकर मरना पड़े और उसे चुकाने के लिए फन झुकाना पड़े,मिट्टी से फटकार सहनी पड़े। जब तक आत्मज्ञान नहीं होता तब तक कर्मों का ऋणानुबंध चुकाना ही पड़ता है। अतः निष्काम कर्म करके ईश्वर को संतुष्ट करें। अपने आत्मा-परमात्मा का अनुभव करके यहीं पर, इसी जन्म में शीघ्र ही मुक्ति को प्राप्त करें..।

मनुष्य पर 05 प्रकार के ऋण होते है।

 भगवान की बनाई सृष्टि का कार्य-संचालन और सभी जीवों का भरण-पोषण पांच प्रकार के जीवों के परस्पर सहयोग से संपन्न होता है। ये हैं-:                    

1. देवता, 2. ऋषि, 3. पितर, 4. मनुष्य और 5. पशु-पक्षी आदि भूतप्राणी। इसी कारण शास्त्रों में प्रत्येक गृहस्थ मनुष्य पर इन पांचों का—पितृ ऋण,देव ऋण,ऋषि ऋण,भूत ऋण और मनुष्य ऋण बताया गया हैं।

  देवता मनोवांछित भोग प्रदान करते हैं। ऋषि-मुनि विभिन्न शास्त्रों की रचना कर मनुष्य के अज्ञान को हटाकर सबको ज्ञानवान बनाते हैं। पितर अपने वंशजों को संतान प्रदान करते है, उनकी मंगलकामना व रक्षा करते हैं।मनुष्य अपने कर्मों से सभी का हित करते हैं। पशु-पक्षी व वृक्ष आदि दूसरों के सुख के लिए आत्मदान देते हैं।इन पांचों के सहयोग से ही सभी का जीवन सुचारु रूप से चलता है। इसी कारण शास्त्रों में प्रत्येक गृहस्थ मनुष्य पर इन पांचों का—पितृ ऋण,देव-ऋण, ऋषि-ऋण,भूत-ऋण और मनुष्य ऋण बताया गया हैं।

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।

तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।।

  जो सबमें मुझको देखता है और मुझमें सबको देखता है,उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता।ये पांचों ऋण केवल गृहस्थ मनुष्यों पर ही लागू होते हैं। श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि—‘जो सारे कार्यों को छोड़ कर सम्पूर्ण रूप से शरणागतवत्सल भगवान की शरण में आ जाता है,वह देव, ऋषि,प्राणी,कुटुम्बीजन और पितृ ऋण इनमें से किसी का भी ऋणी नहीं रहता है। अर्थात भगवान का भजन-स्मरण करने वाला व्यक्ति सभी ऋणों से मुक्त हो जाता है।

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