अब कछु नाथ न चाहिअ मोरें। दीनदयाल अनुग्रह तोरें।। केवट का बहुत ही खूबसूरत प्रसङ्ग ।

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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     यह मानस प्रसंग उस समय का है जब हमारे प्रभु श्री राम बनवास गमन के समय मां गंगा के किनारे खड़े हैं और  हमें   भवसागर पार कराने वाले आज केवट से बिनती कर रहे हैं कि हे केवट हमें गंगा जी पार करा दो। बड़ा ही अद्भुत प्रंसग है -

बहुत   काल   मैं   कीन्हि  मजूरी।

आजु दीन्ह बिधि बनि भलि भूरी ॥

केवट प्रभु श्री राम से कहता है कि - आज तक पेट और परिवार के पोषण के लिए अर्थात इस संसार के लिए मजदूरी के लिए ही कर्म किये हैं, किन्तु आज मेरे जन्मो जन्मो का पुण्य उदित हुआ तो आज आपके दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ हैं, जिससे मेरे इस संसार के ही नहीं बल्कि भव-पार होने के मार्ग खुल गए हैं, आज आप को मैंने गंगा-पार किया हैं, मैं छोटा केवट हूँ, आप बड़े केवट हैं, भवरूपी सागर से पार करने वाले हैं, जब मैं आपके पास आउ तो आप भी मुझे पार लगा देना, हम दोनों का एक ही काम हैं, और एक ही प्रकर्ति के होने से एक दूसरे से कोई दाम नहीं लेते -

फिरती  बार  मोहि जो देबा।

सो प्रसादु मैं सिर धरि लेबा॥

  केवट प्रभु से गंगा जी पार कराने की उतराई नहीं लेता, कहता है कि प्रभु आप लौटते वक्त जो दोगे वह मैं ले लूंगा, अजीब बिडम्बना है लगता है कि प्रभु कोई व्यापार करने जा रहे हैं कि लौटते वक्त जो दे दोगे मैं ले लूंगा, प्रभु तो बनवास गमन पर है, लेकिन यहां भी केवट की चतुराई देखिए, कि लौटते वक्त भी वह प्रभु का दर्शन चाहता है ।

अब आगे का प्रंसग देखते हैं । केवट मुस्कुरा रहा हैं और कहता हैं -

 जो  प्रभु  पार  अवसि  गा चहहु ।

  मोहि  पद पदुम पखारन कहहु ॥

  केवट मानों कहना चाहता है कि यदि आप कहेंगे तो, अर्थात हमें जरुरत नहीं है, आप हमसे कहिए, तो मैं आपके पद को पखारूँ।

  अजीब बिडम्बना है, सबको भवसागर पार कराने वाले आज केवट के सामने विवश खड़े हैं, प्रभु अपने भक्तों की हर इच्छा पूरी करते हैं।  

   प्रभु आपको पार तो मैं अवश्य करवा दूंगा किन्तु उससे पहले आपके चरणों को धोकर इनकी सारी रज उतार लू, तभी आपको नौका में बिठाऊंगा-

पद कमल धोइ चढ़ाइ नाव न नाथ उतराई चहौं।

मोहि राम राउरि आन दसरथ सपथ सब साची कहौं ॥

बरु तीर मारहुँ लखनु पै जब लगि न पाय पखारिहौं।

तब लगि न तुलसीदास नाथ कृपाल पारु उतारिहौं ॥

   हे दीनानाथ ! मुझे पता हैं लखन जी को बहुत क्रोध हो रहा हैं, लेकिन वो चाहे तो मुझे तीर भी मार दे, किन्तु बिन चरण धोये आज मैं आपको नौका में नहीं चढ़ाऊंगा। आज केवट लक्ष्मण जी का भी भय नहीं मानता क्योंकि उसे पता हैं आज भगवान् भक्त के वश में हैं, इसलिए वह भी कुछ नहीं कर पाएंगे। प्रभु आप मुझे अपने चरण प्रक्षालन कर लेने दीजिये, मुझे कुछ और नहीं चाहिए, ना ही मुझे आपसे कोई उतराई चाहिए अर्थात कोई दाम नहीं लेना पार उतरने का किन्तु आपकी चरण रज चाहिए -

प्रेम लपेटे अटपटे,सुनि केबट के बैन ।

चितइ जानकी लखन तन,बिहसे करुना ऐन ॥

   इस प्रकार भगत के उलटे सीधे वचन और हठ पर भी भगवान् हर्षित हो रहे हैं, क्योंकि भगवन को केवल निष्छल भक्त और उनके प्रेम मई भाव ही पसंद हैं, इसीलिए केवट की जिद्द के आगे भगवन मुस्कुरा रहे हैं, बार बार लखन और जानकी जी का मुख देखते हैं जो की चिढ़े से हुए हैं, किन्तु भगवान् को अपने भक्तो के संग लीला में ही आनंद होता हैं।

कृपासिंधु बोले मुसुकाई।

सोइ करु जेंहि तव नाव न जाई ॥

वेगि आनु जल पाय पखारू।

होत बिलंबु उतारहि पारू ॥

  तब भगवान् कहते हैं, केवट वही करो जो तुम्हारा दिल कहता हैं, या जो तुम चाहते हो, आज मैं पूर्ण रूप से तुम्हारे आधीन हूँ, अर्थात मेरे भक्त आज मैं तुम्हारी सब इच्छा पूर्ण करने हेतु तुम्हारे सामने तुम्हारी इच्छा के अनुरूप प्रस्तुत हूँ, शीघ्र करो हमे विलम्ब हो रहा हैं, जल्दी से जल ले आओ और मेरे पैर धो लो ।

जासु नाम सुमरत एक बारा।

उतरहिं नर भवसिंधु अपारा ॥

सोइ कृपालु केवटहि निहोरा।

 जेहिं जगु किय तिहु पगहु ते थोरा ॥

   जिनके चरणोदक की एक बून्द से समूल पाप नष्ट हो जाते हैं, जो सभी को भव-सागर से पार करने वाले हैं, आज केवट के निहोरे पर सीधे बनकर उसके सामने विवश या प्रेम वश समर्पित होकर खड़े, कैसी दिव्य लीला हैं यह भक्त और भगवान् की ? 

केवट राम रजायसु पावा।

पानि कठवता भरि लेइ आवा ॥

   प्रभु आज्ञा सुनते ही, केवट भाग कर कठौता और गंगा जी का जल ले आता हैं, और अपने पुरे परिवार सहित प्रभु के चरण प्रक्षालन करता हैं, धन्य हैं आज केवट और उसके परिवार के भाग्य, जिन चरणों की एक झलक पाने को सुर-मुनि तरसते हैं आज भक्त के वश उसके समक्ष पूर्ण रूप  से प्रभु विराजमान हैं ।

अति आनंद उमगि अनुरागा।

चरन सरोज पखारन लागा ॥

   जैसे प्यासे को मरुस्थल में जल की बून्द की आकांक्षा रहती हैं, जैसे मृग को कस्तूरी की तड़प रहती हैं, चातक को स्वाति की बून्द की, मरते को साँसों की मानो ऐसे ही केवट की जन्मो जन्मो की आस आज पूरी हो गयी, वह इतना आनंदित हो गया की बार बार प्रभु के चरण पखारता हैं, एक धोता हैं कठौते में, जैसे ही वह साफ़ करता हैं तो दूसरा पाँव प्रभु नीचे रखते उस पर समुद्र की रज लग जाती, फिर दूसरा धोता तो पहला ऐसे ही रजपूर्ण हो जाता, बार बार धोता बार बार रज लग जाती, अब केवट की चतुराई कह लो या प्रभु का प्रेम कह लो एक पाँव अपनी गोद में रखता हैं तो दूसरा कठौते में, अब रज से तो पाँव बच गए किन्तु प्रभु खड़े होने में असहज हो रहे हैं, लड़खड़ा रहे हैं, भक्त की चतुराई देखिये, कोई भी मौका आज हाथ से नहीं जाना चाहिए ।

केवट कहता हैं की,"प्रभु आप असहज हो रहे हैं तो अपने दोनों हाथ से मेरे सिर को पकड़ लीजिये, अर्थात अपने दोनों हाथ मेरे मस्तक पर रख लीजिये" सबको गिरने से बचाने वाले को केवट कहता है कि प्रभु आप अपने हाथ से हमारे मस्तक को पकड़ लीजिए। जिनके आशीर्वाद के लिए देवता और मुनि, ऋषि सब तरसते हैं आज, वहीं हाथ केवट कहता है कि प्रभु हमारे शिर पर रख दो, हम जैसे अभागे कि नसीब में ऐसा सौभाग्य कहा। जिसके शिर पर प्रभु का हाथ हो वह कितना भाग्यशाली होगा।

   कैसे अद्भुत भाव हैं केवट के? दोनों चरण खुद के हाथो में, और प्रभु के हाथो में खुद का मस्तक, कैसी दिव्य छवि हैं, कैसा बड़भाग हैं? आज तक कितने ही भक्तो का भाव सुना, देखा किन्तु आज केवट का भाव तो दिव्यतम दिव्य हो गया हैं, ऐसे भाग्य से तो देवता भी ईर्ष्या करते हैं ।

बरषि सुमन सुर सकल सिहाहीं।

एहि सम पुन्यपुंज कोउ नाहीं ॥

  भले ही देवता ऐसे भक्त से ईर्ष्या करते हो, किन्तु आज उनको भी केवट के भाग की बड़ाई और उसके दिव्य भावो की प्रसंशा करनी पड़ी हैं, आज वो भी देख रहे हैं की जब प्रभु की किरपा उनके भक्तो पर होती हैं तो उसके समान किसी अन्य का भाग्य भी नहीं होता, और देवता भी ख़ुशी से पुष्पों की वर्षा कर रहे हैं इस छवि पर,

पद पखारि जलु पान करि आपु सहित परिवार।

पितर पारु करि प्रभुहि पुनि मुदित गयउ लेइ पार।।

   इस प्रकार चरण पखार के केवट ने चरणामृत पान किया और अपने पुरे परिवार को भी चरणोदक पान करवा दिया, यह तक की अपनी सात पीढ़ियों के पितरो को भी भाव पार करवा दिया, और आदर सहित प्रभु को जानकी जी और लखन सहित नौका में बिठा कर गंगाजी के पार ले गया ।

कहेउ कृपाल लेहि उतराई।

केवट चरन गहे अकुलाई ॥

नाथ आजु मैं काह न पावा।

मिटे दोष दुख दारिद दावा ॥

   राम जी को संकोच था की केवट को उतराई में देने के लिए उनके पास कुछ भी नहीं, किन्तु जानकीजी ने मन की जानकर रघुनाथ जी को अपनी मुद्रिका दी, जब राम जी केवट को कहते हैं की भाई ये मुद्रिका तुम उतराई के रूप में ले लो, तो केवट की दृष्टि से अश्रुपात होने लगता हैं,और भाव-विभोर होकर कहता हैं, हे त्रिलोकीनाथ ! आज मुझ से बड़भागीशाली और कौन होगा? आज कौन सा ऐसा सुख हैं, जो मैंने आपकी कृपा से नहीं पा लिया हो? आज मेरे ही नहीं मेरे कुल के सभी पीढ़ियों के भी दोष मिट गए हैं,समूल पाप नष्ट हो गए, प्रभु !  

बहुत काल मैं कीन्हि मजूरी।

आजु दीन्ह बिधि बनि भलि भूरी ॥

अब कछु नाथ न चाहिअ मोरें।

 दीनदयाल  अनुग्रह   तोरें ॥

आज तक पेट और परिवार के पोषण के लिए अर्थात इस संसार के लिए मजदूरी के लिए ही कर्म किये हैं, किन्तु आज मेरे जन्मो जन्मो का पुण्य उदित हुआ तो आज आपके दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ हैं। जिससे मेरे इस संसार के ही नहीं बल्कि भव-पार होने के मार्ग खुल गए हैं । आज आप को मैंने गंगा-पार किया हैं, मैं छोटा केवट हूँ, आप बड़े केवट हैं। भवरूपी सागर से पार करने वाले हैं । जब मैं आपके पास आऊँ तो आप भी मुझे पार लगा देना। हम दोनों का एक ही काम हैं, और एक ही प्रकर्ति के होने से एक दूसरे से कोई दाम नहीं लेते।

हम भी प्रभु से एक प्रार्थना करते हैं कि हे प्रभु -

अब प्रभु कृपा करहु एहि भाँति।

सब तजि भजनु करौं दिन राती॥ 

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