जाति व्यवस्था का निर्माण और विकास: एक गहन विश्लेषण, जाति व्यवस्था का निर्माता कौन: एक गहन विश्लेषण, Who created the caste system:An in-depth analysis
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जाति व्यवस्था(caste system) का निर्माता कौन ? : एक गहन विश्लेषण |
जाति व्यवस्था का निर्माता कौन ? : एक गहन विश्लेषण
1. भूमिका: जाति की जटिल परिभाषा
"जाति" केवल एक सामाजिक पहचान नहीं, बल्कि यह भारतीय उपमहाद्वीप के सामाजिक ताने-बाने की जड़ों में बसी हुई एक ऐसी व्यवस्था है जो जन्म, कर्म, रीति-रिवाज, धार्मिक विश्वास, और सत्ता संरचना — इन सबका समन्वय है। इसका मूल प्रश्न यह है कि “क्या जाति ईश्वर द्वारा निर्धारित व्यवस्था है या मानव निर्मित सामाजिक व्यवस्था?”
भारतीय समाज में जाति व्यवस्था का उद्भव और सुदृढ़ीकरण हज़ारों वर्षों के सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, और राजनीतिक परिवर्तनों का परिणाम है। यह एक "बहुस्तरीय संरचना" है, जिसमें विभिन्न कारकों ने समय-समय पर भूमिका निभाई। आइए इसे विस्तार से समझें:
2. धार्मिक और दार्शनिक आधार
वैदिक काल (1500–500 BCE)
वर्ण व्यवस्था: ऋग्वेद के पुरुष सूक्त में चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) का उल्लेख है, जो कर्म (काम) पर आधारित थे। यह प्रारंभ में लचीला था और जन्म से नहीं जुड़ा था।
उत्तर-वैदिक काल: ब्राह्मण ग्रंथों और उपनिषदों में वर्णों को "दैवीय व्यवस्था" के रूप में प्रस्तुत किया गया। यज्ञों और अनुष्ठानों में ब्राह्मणों की प्रधानता बढ़ी।
महाभारत काल - श्रीमद्भगवद्गीता में गुण और कर्म के आधार पर वर्ण व्यवस्था।(चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः)
3. धर्मसूत्र और स्मृतियाँ (500 BCE–200 CE)
मनुस्मृति (200 BCE–200 CE): मनु ने वर्णों को जन्म से जोड़ा और सामाजिक नियमों को कठोर बनाया। शूद्रों के लिए निम्न कार्य और उच्च वर्गों की सेवा अनिवार्य की गई।
अन्य ग्रंथ: याज्ञवल्क्य स्मृति और पराशर स्मृति ने भी जातिगत पृथक्करण को वैधता दी।
4. पुराण और महाकाव्य
महाभारत और रामायण में जाति-आधारित समाज के उदाहरण मिलते हैं, जैसे एकलव्य का उच्च वर्ण द्वारा शोषण।
पुराणों में "जाति" और "कर्म" को पुनर्जन्म के सिद्धांत से जोड़ा गया, जिससे व्यवस्था को धार्मिक स्वीकृति मिली।
5. ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
प्राचीन काल (मौर्य और गुप्त साम्राज्य)
व्यवसायिक विशेषज्ञता: लोहार, बुनकर, कुम्हार जैसे समूह "जाति" (जन्म पर आधारित) में बदले। शिल्प और व्यापारिक समुदायों ने अपनी पहचान बनाई।
भूमि अनुदान: गुप्त काल में ब्राह्मणों को भूमि दान दी गई, जिससे उनकी सामाजिक-आर्थिक शक्ति बढ़ी और वर्ण व्यवस्था स्थायी हुई।
मध्यकालीन भारत (800–1700 CE)
सामंतवाद: राजाओं ने ब्राह्मणों और क्षत्रियों को जागीरें दीं, जिससे जातिगत पदानुक्रम मजबूत हुआ।
भक्ति आंदोलन (12–17वीं शताब्दी): कबीर, रैदास, और बसवण्णा जैसे संतों ने जाति व्यवस्था की आलोचना की, परंतु यह व्यवस्था जड़ बनी रही।
इस्लामिक प्रभाव: मुस्लिम शासन में "जाति" का स्वरूप बदला, किंतु हिंदू समाज में इसकी पकड़ बरकरार रही।
दक्षिण भारत में जाति
संगम साहित्य (300 BCE–300 CE): तमिल क्षेत्र में "कुरुंजी" (पहाड़ी लोग) और "मरुतम" (किसान) जैसे समूह थे, जो बाद में जातियों में परिवर्तित हुए।
देवदासी प्रथा: निचली जातियों की महिलाओं को मंदिरों से जोड़कर उनका शोषण किया गया।
6. औपनिवेशिक युग का प्रभाव (1757–1947)
ब्रिटिश नीतियों की भूमिका
जनगणना (1871): अंग्रेजों ने जातियों को "रेशनलाइज़" करने के लिए उन्हें स्थायी श्रेणियों में बाँटा। हरबर्ट रिस्ले (1901 की जनगणना) ने जाति को "जैविक विशेषताओं" से जोड़ा, जिससे जातिगत पहचान कठोर हुई।
कानूनी व्यवस्था: ब्रिटिशों ने "हिंदू लॉ" को कोडिफ़ाई किया, जिसमें जाति-आधारित अधिकार और प्रतिबंध शामिल थे।
आर्थिक परिवर्तन
ज़मींदारी प्रथा: उच्च जातियों को भूमि का स्वामित्व मिला, जबकि निचली जातियाँ भूमिहीन मजदूर बनीं।
शहरीकरण: रेलवे और फैक्ट्रियों के विकास से कुछ निचली जातियों को नए अवसर मिले, परंतु सामाजिक भेदभाव बना रहा।
"फूट डालो और शासन करो"
अंग्रेजों ने जाति और धर्म के आधार पर समाज को विभाजित करके राजनीतिक नियंत्रण बनाए रखा।
उदाहरण: 1932 का पूना पैक्ट, जिसमें दलितों के लिए अलग निर्वाचन मंडल का विरोध किया गया।
7. स्वतंत्रता संग्राम और आधुनिक भारत
सुधार आंदोलन (19वीं–20वीं शताब्दी)
राजा राममोहन राय: सती प्रथा और जाति व्यवस्था के विरोध में ब्रह्म समाज की स्थापना।
ज्योतिबा फुले: "गुलामगिरी" (1873) में शूद्र-अतिशूद्रों के शोषण का विश्लेषण किया।
डॉ. अंबेडकर: "एनिहिलेशन ऑफ कास्ट" (1936) में जाति उन्मूलन की मांग की और संविधान में समानता के अधिकार सुनिश्चित किए।
संविधान और कानून
अनुच्छेद 15 और 17: जाति आधारित भेदभाव और अस्पृश्यता को गैर-कानूनी घोषित किया गया।
आरक्षण नीति: शिक्षा और रोजगार में पिछड़े वर्गों के लिए कोटा, जिससे सामाजिक न्याय की कोशिश हुई।
8. समकालीन संदर्भ और चुनौतियाँ
राजनीतिकरण
जाति आधारित राजनीतिक दलों का उदय (जैसे BSP, DMK) और मतदान प्रवृत्तियों पर जाति का प्रभाव।
आर्थिक असमानता
NSSO के आँकड़े: SC/ST समुदायों की आय और शिक्षा में पिछड़ेपन का स्पष्ट संबंध।
ग्रामीण भारत: जाति आधारित भूमि स्वामित्व और मजदूरी में भेदभाव।
सांस्कृतिक पहलू
अंतर्जातीय विवाह: भारत में केवल 5% विवाह ही अंतर्जातीय होते हैं (2011 की जनगणना)।
मीडिया और जाति: फिल्मों और सोशल मीडिया पर जातिगत रूढ़िवादिता का प्रसार।
नई बहसें
जाति और वैश्वीकरण: आईटी क्षेत्र में उच्च जातियों का वर्चस्व।
जाति जनगणना: 2023 में बिहार सरकार द्वारा जाति आधारित जनगणना कराने की मांग।
9. विद्वानों के सिद्धांत
डॉ. अंबेडकर: "जाति हिंदू धर्म की आधारभूत संरचना है, जो श्रम के शोषण पर टिकी है।"
मैक्स वेबर: जाति को "सामाजिक स्तरीकरण का एक अनूठा रूप" बताया।
एम.एन. श्रीनिवास: "संस्कृतिकरण" की अवधारणा—निचली जातियों द्वारा उच्च जातियों के रीति-रिवाज अपनाना।
गेल ओमवेट: जाति और लिंग के अंतर्संबंधों पर शोध—दलित महिलाओं की "तीहरी उत्पीड़न"।
10. वैदिक युग: 'वर्ण' व्यवस्था की अवधारणा
10.1 ऋग्वेद में वर्ण का प्रारंभिक स्वरूप
ऋग्वेद का पुरुषसूक्त (10.90) वर्ण व्यवस्था का पहला लिखित उल्लेख देता है। इसमें चार वर्णों की उत्पत्ति पुरुष के अंगों से बताई गई है:
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ब्राह्मण — मुख से (ज्ञान के अधिष्ठाता)
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क्षत्रिय — भुजाओं से (शक्ति और शासनकर्ता)
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वैश्य — जंघाओं से (वाणिज्य और कृषि के पालक)
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शूद्र — पैरों से (सेवा कार्य हेतु)
यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि यह व्यवस्था आध्यात्मिक प्रतीकात्मकता पर आधारित थी, न कि जन्म पर। इसका उद्देश्य समाज की कार्य आधारित संरचना को दर्शाना था।
10.2 गीता का सैद्धांतिक आधार
भगवद्गीता (4.13) में श्रीकृष्ण कहते हैं:
"चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।"
यह स्पष्ट करता है कि वर्ण का निर्धारण 'गुण' और 'कर्म' के आधार पर किया गया था, न कि 'जन्म' के आधार पर।
11. उपनिषद-काल से स्मृति युग तक: व्यवस्था का परिवर्तन
11.1 वर्ण से जाति की ओर संक्रमण
उपनिषदों में वर्ण व्यवस्था के सैद्धांतिक पक्ष पर ज़ोर है। परंतु जैसे-जैसे समाज जटिल होता गया, कार्य आधारित वर्ण व्यवस्था धीरे-धीरे जन्म आधारित जाति व्यवस्था में रूपांतरित हो गई।
11.2 मनुस्मृति और सामाजिक नियम
मनु, याज्ञवल्क्य, नारद आदि द्वारा रचित धर्मशास्त्रों में जातियों के अधिकार, कर्तव्य, और विवाह संबंधी नियम कठोर रूप में दिए गए। यहाँ 'उत्पन्न जातियों' (मिश्र जातियाँ) का भी वर्णन है, जो यह दिखाता है कि जातियाँ समय के साथ बढ़ीं।
12. मध्यकाल: जातियों का विस्तार और सामाजिक कठोरता
12.1 मुस्लिम कालीन प्रभाव
मध्यकाल में जातियाँ केवल चार वर्णों तक सीमित नहीं रहीं। अनेक उपजातियाँ, उप-उपजातियाँ और पेशे आधारित जातियाँ बनती गईं। मुस्लिम शासनकाल में हिंदू समाज अपनी पहचान की रक्षा हेतु जाति नियमों को और कठोर करता गया।
12.2 भक्ति आंदोलन और जातिवाद का प्रतिरोध
कबीर, रैदास, नानक, मीराबाई जैसे संतों ने जातिगत भेदभाव का तीव्र विरोध किया:
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"जाति न पूछो साधु की" — कबीर
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आध्यात्मिक समता और आत्मा की एकता पर बल दिया।
13. ब्रिटिश काल: जातियों का वैज्ञानिक और प्रशासनिक वर्गीकरण
13.1 जातीय जनगणनाएँ और सांख्यिकीकरण
ब्रिटिश शासन ने 1871 से जातीय जनगणना शुरू की। इससे जातियाँ एक कठोर प्रशासनिक पहचान में बदल गईं। सरकार ने जातियों को वर्गीकृत किया — अनुसूचित जातियाँ, पिछड़े वर्ग, मार्शल जातियाँ आदि।
13.2 जातियों का राजनीतिकरण
ब्रिटिशों ने जातियों का प्रयोग 'फूट डालो और राज करो' की नीति में किया। अलग-अलग जातियों को विशेषाधिकार या सुविधाएँ देकर सामाजिक विभाजन को और गहरा किया गया।
14. आधुनिक भारत में जातियों की स्थिति
14.1 संविधान की भूमिका
भारत का संविधान जातिगत भेदभाव को समाप्त करता है:
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अनुच्छेद 15: जाति पर आधारित भेदभाव निषिद्ध
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अनुच्छेद 17: अस्पृश्यता का अंत
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आरक्षण नीति: सामाजिक न्याय हेतु विशेष प्रावधान
14.2 समकालीन समाज में जाति की भूमिका
आज भी जातियाँ:
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विवाह,
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राजनीति,
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सामाजिक पहचान,
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और आर्थिक अवसरों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
जातीय राजनीति (caste-based politics) एक प्रमुख सामाजिक यथार्थ बन चुका है।
15. जातियों का निर्माता कौन? — एक समन्वित दृष्टिकोण
स्रोत/कारक | भूमिका |
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वैदिक ऋषि | गुण-कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था का प्रारंभ |
धर्मशास्त्र | जन्म आधारित जातियों का औचित्य और विस्तार |
समाज स्वयं | जातियों को व्यवहार में कठोरता से लागू करना |
औपनिवेशिक शासन | जातियों का प्रशासनिक सांख्यिकीकरण |
राजनीतिक शक्तियाँ | जातियों का सत्ता और अधिकार के लिए उपयोग |
16. निष्कर्ष:
(1)क्या जाति ईश्वर की देन है या मानव-निर्मित?
जाति व्यवस्था का मूल रूप कर्म पर आधारित था — जिसे ईश्वरीय विधान कहा जा सकता है। परंतु इसका विकृत रूप — जन्म आधारित, ऊँच-नीच से भरा, सामाजिक अन्याय को पोषित करने वाला — यह पूर्णतः मानव निर्मित, सामाजिक और राजनीतिक कारणों से विकसित हुआ है।
अतः "जातियों का निर्माता" न तो एक व्यक्ति है, न ही केवल शास्त्र या राज्य — बल्कि यह एक क्रमिक, जटिल, ऐतिहासिक प्रक्रिया है, जिसमें धर्म, समाज, राज्य और सत्ता — सभी सहभागी रहे हैं।
(2)जाति का निर्माता कौन?
जाति व्यवस्था किसी एक व्यक्ति या घटना का आविष्कार नहीं, बल्कि यह एक सामूहिक सामाजिक प्रक्रिया है, जिसमें निम्नलिखित तत्वों ने योगदान दिया:
धार्मिक वैधता: वेद, स्मृतियाँ, और पुनर्जन्म का सिद्धांत।
आर्थिक लाभ: श्रम का शोषण और संसाधनों पर नियंत्रण।
राजनीतिक उपयोग: सत्ता को स्थायी बनाने के लिए जाति का इस्तेमाल।
सांस्कृतिक स्वीकृति: रीति-रिवाजों और परंपराओं का अंधानुकरण।
आज भी जाति गतिशील है—यह नए रूप लेती है, जैसे डिजिटल स्पेस में जातिगत ट्रोलिंग या कॉर्पोरेट सेक्टर में भेदभाव। इसके उन्मूलन के लिए न केवल कानून, बल्कि सामाजिक मानसिकता में परिवर्तन आवश्यक है। जैसा कि अंबेडकर ने कहा था: "राजनीतिक लोकतंत्र तब तक अधूरा है, जब तक सामाजिक लोकतंत्र न हो।"
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