जब पीएचडी चपरासी की कतार में खड़ा हो – शिक्षा, रोजगार और व्यवस्था पर एक करारा प्रश्न, हमारा समाज, आज का समाचार, भागवत दर्शन सूरज कृष्ण शास्त्री, लेख।
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जब पीएचडी चपरासी की कतार में खड़ा हो – शिक्षा, रोजगार और व्यवस्था पर एक करारा प्रश्न |
जब पीएचडी चपरासी की कतार में खड़ा हो – शिक्षा, रोजगार और व्यवस्था पर एक करारा प्रश्न
प्रस्तावना:
भारत, जिसकी युवा जनसंख्या विश्व में सबसे अधिक है, आज एक विचित्र और विडंबनापूर्ण स्थिति का सामना कर रहा है – जहां देश के सबसे शिक्षित युवा सबसे साधारण सरकारी पदों के लिए आवेदन करने को विवश हैं। हालिया आँकड़े चौंकाने वाले हैं: 53,749 चपरासी पदों के लिए 24 लाख 76 हजार से अधिक आवेदन। प्रति पद औसतन 46 आवेदक। और यह कोई सामान्य बात नहीं, जब इन आवेदकों में पीएचडी स्कॉलर, इंजीनियर, एमबीए धारक, परास्नातक तक शामिल हैं।
1. रोजगार का संकट: संख्याएँ बोलती हैं
भारत में बेरोजगारी कोई नई समस्या नहीं, किंतु शिक्षित बेरोजगारी की दर दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (CMIE) के अनुसार, शहरी युवाओं में बेरोजगारी की दर 20% से ऊपर जा रही है। शिक्षित युवा वर्षों पढ़ाई करने के बाद भी योग्य रोजगार नहीं पा रहे, और परिणामस्वरूप वे किसी भी उपलब्ध सरकारी नौकरी के लिए फॉर्म भरने को मजबूर हो रहे हैं, चाहे वह चपरासी का पद ही क्यों न हो।
2. सरकारी नौकरी का आकर्षण: सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा की लालसा
भारत में सरकारी नौकरी केवल वेतन नहीं देती, वह एक "सुरक्षा कवच" है – स्थायित्व, सामाजिक सम्मान, स्वास्थ्य बीमा, पेंशन और कार्यस्थल की सुरक्षा जैसी कई सुविधाओं के कारण एक मध्यमवर्गीय युवा के लिए यह आज भी सबसे भरोसेमंद विकल्प है। इसीलिए चपरासी जैसे पद, जिनकी पात्रता केवल 10वीं कक्षा है, वहाँ भी उच्चशिक्षित युवा आवेदन कर रहे हैं।
3. शिक्षा बनाम रोजगार: एक टूटी हुई कड़ी
देश की शिक्षा प्रणाली अभी भी अकादमिक ज्ञान पर अधिक, और व्यावसायिक प्रशिक्षण या उद्यमिता पर कम ध्यान देती है। हमारे विश्वविद्यालय हर साल लाखों स्नातक और परास्नातक तैयार कर रहे हैं, किंतु उनमें से बहुत कम ऐसे हैं जो उद्योगों की वास्तविक आवश्यकताओं को पूरा करते हों। परिणामस्वरूप, डिग्रियाँ तो हैं, पर नौकरी नहीं।
4. मानसिक और सामाजिक दबाव: योग्य होकर भी अपमानित
जब एक पीएचडी धारक चपरासी की नौकरी के लिए लाइन में खड़ा होता है, तो यह न केवल आर्थिक अपूर्णता की निशानी है, बल्कि यह मानसिक और सामाजिक दबाव का भी प्रतीक है। समाज में “कुछ भी काम करना” से बेहतर माना जाता है “सरकारी कुछ भी करना”। यही सोच उच्च शिक्षित लोगों को भी निम्न श्रेणी के पदों पर जाने के लिए प्रेरित करती है।
5. राजनीतिक विफलता या नीति की चूक?
रोजगार सृजन की जिम्मेदारी केवल बाज़ार की नहीं, सरकार की भी होती है। लंबे समय से रोजगार के अवसर सृजित करने की योजनाएँ केवल कागज़ों तक सीमित हैं। स्किल इंडिया, स्टार्टअप इंडिया, आत्मनिर्भर भारत जैसे अभियानों के बावजूद ज़मीनी स्तर पर अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पा रहे हैं।
6. आगे का मार्ग: समाधान की ओर कुछ ठोस सुझाव
- शिक्षा में सुधार: पाठ्यक्रम को कौशल आधारित बनाया जाए, जिसमें नवाचार और उद्यमिता को बढ़ावा मिले।
- औद्योगिक सहयोग: शिक्षण संस्थानों और उद्योगों के बीच साझेदारी हो ताकि छात्रों को प्रशिक्षण के साथ रोजगार मिल सके।
- स्थानीय रोजगार: ग्रामीण क्षेत्रों में लघु उद्योगों और कृषि आधारित उद्योगों को बढ़ावा देकर स्थानीय रोजगार के अवसर निर्मित किए जाएँ।
- सरकारी भर्तियों में पारदर्शिता और नियमितता: अनिश्चितता के कारण युवा वर्षों तक प्रतियोगी परीक्षाओं में ही समय बिताते हैं।
निष्कर्ष:
चपरासी पद के लिए पीएचडी धारकों का आवेदन करना केवल एक समाचार नहीं, यह हमारे शिक्षा तंत्र, रोजगार नीति और सामाजिक मानसिकता – इन तीनों पर गंभीर प्रश्नचिह्न है। यदि देश की युवा शक्ति का सही दिशा में उपयोग न किया गया, तो यही शक्ति असंतोष और अवसाद में परिवर्तित हो सकती है। यह समय है जब केवल आंकड़ों के पीछे नहीं, बल्कि उसके पीछे छिपे संदेश को समझने की ज़रूरत है – देश का सबसे शिक्षित वर्ग आज सबसे निचले पद के लिए संघर्ष कर रहा है।
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