संस्कृत श्लोक:"परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम्"का अर्थ और हिन्दी अनुवाद, सुभाषितानि,सुविचार,संस्कृत श्लोक,भागवत दर्शन सूरज कृष्ण शास्त्री
![]() |
संस्कृत श्लोक: "परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम्" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद |
संस्कृत श्लोक: "परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम्" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद
श्लोक
शाब्दिक अर्थ (पदविच्छेद एवं शब्दार्थ):
- परोक्षे – परोक्ष में, अनुपस्थिति में, पीठ पीछे
- कार्यहन्तारम् – कार्य का नाश करने वाले को (हन्तारम् – नाशक)
- प्रत्यक्षे – प्रत्यक्ष में, सामने
- प्रियवादिनम् – मधुर वचन बोलने वाले को
- वर्जयेत् – त्याग करना चाहिए (लोट् लकार, विधिलिंग, आदेश सूचक)
- तादृशम् – ऐसे प्रकार के
- मित्रम् – मित्र को
- विषकुम्भम् – विष से भरे हुए घड़े को
- पयोमुखम् – जिसके मुख पर (ऊपरी भाग पर) दूध है
भावार्थ (सरल हिन्दी में):
जो मित्र सामने मधुर बातें करता है, लेकिन पीठ पीछे कार्य में बाधा डालता है, उस मित्र का उसी प्रकार त्याग करना चाहिए जैसे विष से भरे हुए, किन्तु ऊपर से दूध से भरे हुए घड़े को त्याग दिया जाता है।
व्याकरणिक विश्लेषण:
- हन्तारम् – "हन्" धातु से कृत प्रत्यय द्वारा बना है, जिसका अर्थ है "मारने वाला" या "नाश करने वाला"।
- प्रियवादिनम् – 'प्रिय' + 'वद्' धातु से कर्मधारय समास; "प्रिय वचन बोलने वाला"।
- विषकुम्भम् – "विष" (विष) + "कुम्भ" (घड़ा) – द्वन्द्व समास।
- पयोमुखम् – "पय:" (दूध) + "मुखम्" (मुख) – तद्धित समास रूप।
आधुनिक सन्दर्भ में विवेचना:
आज के जीवन में भी यह नीति अत्यंत प्रासंगिक है।
- ऐसे लोग जो सामने तो अत्यंत प्रेमपूर्ण व्यवहार करते हैं, मीठी बातें करते हैं, परंतु आपकी अनुपस्थिति में आपके कार्यों में बाधा डालते हैं, आपकी निन्दा करते हैं, या षड्यंत्र करते हैं, वे सच्चे मित्र नहीं होते।
- ऐसे दोहरे व्यवहार वाले व्यक्तियों से दूर रहना चाहिए, क्योंकि वे "विषकुम्भ" के समान होते हैं — देखने में शुभ, भीतर से घातक।
- यह शिक्षा हमें मित्र-चयन में विवेकशील बनाती है और सत्संग की महिमा को स्पष्ट करती है।
प्रेरक संदेश:
- मित्रता का मूलाधार सत्यता, सहयोग, और विश्वास है।
- जो केवल ऊपर से मधुर है किंतु भीतर से द्रोहभाव रखता है, वह मित्र नहीं, छद्म शत्रु है।
- व्यक्ति को अपने हितैषी और सत्यप्रिय मित्रों का संग करना चाहिए।
संक्षिप्त नीति निष्कर्ष:
"मुखमधुर और कर्मद्रोही व्यक्ति का संग पतन का कारण है।"
नीति-कथा : विषकुम्भ मित्र
एक दिन एक वृद्ध कछुए ने खरगोश को समझाया,
"बेटा, जो सामने मधुर बोले और पीछे हानि करे, वह विष से भरे घड़े के समान होता है, जो ऊपर से तो दूध जैसा शीतल दिखता है पर भीतर घातक विष भरा होता है। ऐसे मित्र का त्याग कर देना चाहिए।"
कथा से सीख:
सच्चा मित्र वह है जो समक्ष और परोक्ष दोनों में हमारा भला चाहे।जो केवल दिखावे का प्रेम करे, वह भीतर से हमारे पतन का कारण बन सकता है।
यह नीति-कथा श्लोक के सार को सरल और रोचक रूप में प्रकट करती है।
COMMENTS