संस्कृत श्लोक: "परिग्रहो हि दुःखाय यद्यत्प्रियतमं नृणाम्" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद, सुभाषितानि,सुविचार,संस्कृत श्लोक, भागवत दर्शन सूरज कृष्ण शा
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संस्कृत श्लोक: "परिग्रहो हि दुःखाय यद्यत्प्रियतमं नृणाम्" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद |
संस्कृत श्लोक: "परिग्रहो हि दुःखाय यद्यत्प्रियतमं नृणाम्" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद
श्लोक:
परिग्रहो हि दुःखाय यद्यत्प्रियतमं नृणाम्।
अनन्तं सुखमाप्नोति तद्विद्वान् यस्त्वकिञ्चन:॥
1. हिन्दी अनुवाद:
मनुष्यों के लिए जो भी अत्यधिक प्रिय होता है, उसका संग्रह ही उनके दुःख का कारण बन जाता है। किंतु जो ज्ञानी व्यक्ति इसे समझकर किसी भी वस्तु का संग्रह नहीं करता, वही अनंत सुख प्राप्त करता है।
2. शाब्दिक विश्लेषण:
- परिग्रहः (संग्रह, अर्जन) → किसी वस्तु, संपत्ति या प्रिय वस्तु को अपने पास रखने की इच्छा
- हि (निश्चित रूप से) → निःसंदेह, वास्तव में
- दुःखाय (दुःख का कारण) → कष्टदायक, दुःख का स्रोत
- यत्-यत् (जो-जो) → जो भी
- प्रियतमं (सबसे प्रिय) → अत्यंत प्रिय, मन को भाने वाला
- नृणाम् (मनुष्यों के लिए) → मानव समाज के लिए
- अनन्तं (असीम, शाश्वत) → जिसका कोई अंत नहीं, जो सदा बना रहे
- सुखम् (आनंद) → वास्तविक सुख, आत्मिक शांति
- आप्नोति (प्राप्त करता है) → पा लेता है, प्राप्त करता है
- तद्विद्वान् (वह ज्ञानी व्यक्ति) → वह बुद्धिमान जो इस सत्य को जानता है
- यः (जो) → जो व्यक्ति
- त्व (निश्चित रूप से) → निश्चय ही
- अकिञ्चनः (निष्काम, त्यागी) → जिसे किसी वस्तु की लालसा न हो
3. व्याकरणिक संरचना:
- "परिग्रहो हि दुःखाय" – तत्पुरुष समास (संग्रह दुःख का कारण है)।
- "अनन्तं सुखमाप्नोति" – अव्ययीभाव समास (अनन्त सुख को प्राप्त करता है)।
- "यस्त्वकिञ्चन:" – बहुव्रीहि समास (जो अकिञ्चन है अर्थात् जिसे कुछ भी नहीं चाहिए)।
4. व्याख्या:
(i) संग्रह का दुःख से संबंध
- मनुष्य जिस वस्तु से अत्यधिक प्रेम करता है, उसे खोने का भय उसे निरंतर दुःखी करता है।
- संग्रह और आसक्ति से मनुष्य में लोभ, भय, क्रोध और तनाव उत्पन्न होता है।
- यह श्लोक हमें सिखाता है कि जितना अधिक हम भौतिक वस्तुओं से आसक्त होंगे, उतना ही हमारा मन अशांत रहेगा।
(ii) अकिञ्चनता (निर्लिप्तता) का महत्व
- "अकिञ्चन" का अर्थ है जिसे किसी भी चीज़ का संग्रह करने की इच्छा नहीं।
- ऐसे व्यक्ति की मुक्ति सुनिश्चित होती है क्योंकि वह किसी भी वस्तु या व्यक्ति पर निर्भर नहीं रहता।
- त्याग से उत्पन्न होने वाली स्वतंत्रता और आत्मिक शांति ही वास्तविक सुख है।
(iii) आधुनिक संदर्भ में प्रासंगिकता
- सामग्रीवाद और उपभोक्तावाद – आज के समय में लोग भौतिक वस्तुओं (गाड़ी, घर, पैसा) में सुख ढूँढ़ते हैं, परंतु अधिक संग्रह करने पर भी मनुष्य संतुष्ट नहीं रहता।
- तनाव और मानसिक अशांति – संपत्ति बढ़ने के साथ चिंता, प्रतिस्पर्धा और भय भी बढ़ जाता है।
- आध्यात्मिक दृष्टिकोण – ध्यान, योग और संतोष से जुड़कर हम वास्तविक सुख को प्राप्त कर सकते हैं।
5. निष्कर्ष:
- संग्रह और आसक्ति दुःख का कारण बनती है।
- असली सुख इच्छाओं को नियंत्रित करने और त्याग में है।
- जो व्यक्ति "अकिञ्चन" अर्थात् निष्काम बन जाता है, वह शाश्वत आनंद को प्राप्त करता है।
भावार्थ:
👉 त्याग ही सुख का मार्ग है।
👉 जितना अधिक हम संग्रह करेंगे, उतनी ही अधिक चिंता होगी।
👉 संतोषी और निष्काम व्यक्ति को ही वास्तविक शांति प्राप्त होती है।
"त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः" – केवल त्याग से ही अमरत्व (मोक्ष) की प्राप्ति होती है।
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