संस्कृत श्लोक: "नैवार्थेन च कामेन विक्रमेण न चाज्ञया" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद, सुभाषितानि,सुविचार,संस्कृत श्लोक, भागवत दर्शन सूरज कृष्ण शास्त्री।
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संस्कृत श्लोक: "नैवार्थेन च कामेन विक्रमेण न चाज्ञया" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद |
संस्कृत श्लोक: "नैवार्थेन च कामेन विक्रमेण न चाज्ञया" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद
श्लोक
हिन्दी भावार्थ
इस संसार में जब कोई कर्मफल पक चुका होता है और वह दैव (भाग्य) द्वारा मिलने को उद्यत होता है, तब उसे न धन, न इच्छाशक्ति, न पराक्रम, और न किसी महान व्यक्ति के आदेश से टाला जा सकता है।
व्याकरणिक विश्लेषण
- नैव = न + एव (कभी नहीं)
- अर्थेन = धन से (करण कारक – पंचमी विभक्ति)
- कामेन = इच्छाशक्ति से
- विक्रमेण = पराक्रम से
- न चाज्ञया = और न ही आज्ञा से
- दैवगतिः = दैव की गति, भाग्य का मार्ग
- लोके = संसार में
- निवर्तयितुम् = रोकना (तुं प्रत्यय, कृदन्त रूप)
- उद्यता = उद्यत (तैयार, प्रस्तुत)
आधुनिक सन्दर्भ में
यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि—
- जीवन में जो कुछ भी घटित होता है, उसका मूल कारण कर्म होता है।
- जब कोई कर्मफल परिपक्व हो जाता है, तब वह किसी भी उपाय से टल नहीं सकता।
- चाहे व्यक्ति कितना ही धनवान, शक्तिशाली, या प्रभावशाली क्यों न हो, भाग्य की चाल को वह नहीं बदल सकता।
- यह नैतिक दृढ़ता और समर्पण का संदेश है—कि हम कर्म करें, लेकिन परिणामों में अहंकार या अधीरता न रखें।
अनुप्रयुक्त ज्ञान (मूल्यपरक शिक्षा)
- यह श्लोक कर्मयोग और विवेक को आधार बनाता है।
- दैनंदिन जीवन में— यदि विपरीत परिस्थिति आ जाए, तो घबराएं नहीं, बल्कि स्वीकार कर विवेक से आगे बढ़ें।
- भाग्य पर आधारित दंभ या हठ से बचना चाहिए।
अब इसी पर आधारित एक संक्षिप्त बालकथा प्रस्तुत है:
कथा का नाम: “राजकुमार की परीक्षा”
बहुत समय पहले की बात है। राजा जयसेन एक न्यायप्रिय और शक्तिशाली सम्राट था। उसका एक इकलौता पुत्र था—राजकुमार यशवर्धन। वह तेजस्वी, बलशाली, और ज्ञान में पारंगत था। राजा को विश्वास था कि यशवर्धन ही एक दिन पूरे राज्य का गौरव बढ़ाएगा।
एक दिन राजगुरु ने राजकुमार की कुंडली देखकर कहा—
“राजन! राजकुमार को अगले पूर्णिमा तक एक बहुत बड़ी विपत्ति आने वाली है। यह उसके पूर्व जन्म के कर्मों का फल है, जिसे टाल पाना कठिन है।”
राजा चिंतित हुआ। उसने बड़े-बड़े ज्योतिषी, मंत्रियों, और आयुर्वेदाचार्यों को बुलाया।
किसी ने कहा — “उसे दूसरे देश भेज दीजिए।”
कोई बोला — “स्वर्णमंडित कवच पहनाइए।”
और कोई बोला — “राज्य की सारी धन-संपत्ति से शांति-यज्ञ कराइए।”
राजा ने सब उपाय किए।
राजकुमार को शस्त्रविद्या सिखाई, अश्वों से दूर रखा, सावधानी से हर काम कराया।
परंतु पूर्णिमा की रात, जब राजकुमार कक्ष में ध्यान कर रहा था, तभी एक साधारण सेवक, जिसके हृदय में जलन और ईर्ष्या थी, अचानक दीवार से गिरी तलवार को उठाकर राजकुमार पर हमला कर बैठा।
संयोग देखिए—
तलवार की धार टूटी हुई थी, और राजकुमार की गर्दन पर गुरुदेव द्वारा दी गई रुद्राक्ष माला थी, जिससे वह बच गया।
सुबह सबको घटना का पता चला।
राजगुरु मुस्कराए और बोले—
“देखा राजन्! जो दैव की गति है, वह सभी उपायों के बाद भी, जैसा फल देना चाहती है, वैसा ही देती है। पर यदि पुण्यबल हो, तो वह हमें सीख और अनुभव देकर टाल भी सकती है।”
राजा समझ गया—
कर्म करें, उपाय करें, परन्तु दैव की मर्यादा को समझकर ही संतुलित रहना चाहिए।
शिक्षा
- भाग्य को बल से नहीं बदला जा सकता।
- मनुष्य को प्रयास तो करना चाहिए, लेकिन अहंकार या डर नहीं पालना चाहिए।
- ईश्वर, ज्ञान और शील ही हमें दैव की गति में भी सहारा देते हैं।
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