वैदिक ऋषि: भिक्षु ऋषि, वैदिक ऋषि, भागवत दर्शन, सूरज कृष्ण शास्त्री, 'दोनों हाथ एक जैसे नहीं होते, दाहिने हाथ की जगह बायाँ हाथ नहीं ले पाता।
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वैदिक ऋषि: भिक्षु ऋषि |
वैदिक ऋषि: भिक्षु ऋषि
ऋग्वेद में भिक्षु का केवल एक ही सूक्त है, जो प्रायः दानसूक्त के नाम से जाना जाता है। यूँ तो यह दान की महिमा बताने वाला वैसा ही सूक्त है, जैसे वेद में यहाँ-वहाँ बिखरे पड़े हैं, लेकिन भिक्षु के इस सूक्त (ऋग्वेद १०:११७) में जो कविता है, उसमें एक तीखा प्रहार है। यह कविता हमारे हृदय को आन्दोलित करती है। यही कारण है कि एक मात्र सूक्त होने के बावजूद भिक्षु अपनी पहचान सबसे अलग रखते हैं। भिक्षु के नाम से ऐसा प्रतीत होता कि वे भिक्षाटन से अपनी जीविका चलते रहे होंगे। इस नाम से किसी और ऋषि के होने की सूचना नहीं मिलती।
ऋग्वेद में ऐसे सूक्तों की एक अलग ही शृंखला है, जहाँ कोई स्तवन नहीं, किसी आध्यात्मिक उपलब्धि का जिक्र तक नहीं। ऐसे सूक्त समकालीन सामाजिक परिदृश्य को बुनते हुए दिखाई देते है। इनको रचने वाले कवियों ने समाज के प्रति अपना पूरा दायित्व निभाया है, लेकिन वैदिक सूक्तों का संकलन करने वाले ऋषियों ने भी ऐसे सूक्तों को ऋग्वेद जैसे धर्मग्रंथ में शामिल कर उचित न्याय किया है। इससे यह तो प्रमाणित होता ही है कि तब हमारे ऋषि पंथनिरपेक्ष थे,उनके विचार खुले हुए थे, उनके हृदय में सब तरह के उत्तम विचारों का सम्मान होता था। वामपंथ और दक्षिण पंथ रहे भी हों, तो वे आगे जाकर आपस में घुल मिल जाते थे।
ऋग्वेद के दशम मंडल में आये भिक्षु के जिस सूक्त की हम चर्चा कर रहे हैं, उसका दान-विमर्श एकदम विचित्र है। इसी सूक्त में 'केवलाघो भवति केवलादी' जैसी पंक्ति भी आती है, जिसका अर्थ है- 'जो अकेला खाता है, वह केवल पाप खाता है।' इतना उत्तेजक वाक्य देने वाला यह दानसूक्त ऋग्वेद के महासागर में अलग से पहचान में आता है। इस सूक्त में भिक्षु ऋषि ने उन धनी मित्रों की जम कर भर्त्सना की है, जो कभी अपनी सुख सुविधाओं से बाहर निकलने का कष्ट भी नहीं उठाते। ऋषि प्रशंसा करता है उनकी, जो अपना यत्किञ्चित् धन भी लुटा देते हैं उन पर, जो भूखे हैं, याचक हैं, असहाय हैं।
सूक्त की पहली ही ऋचा में ही भिक्षु ने उन धनिकों के ऊपर धावा बोल दिया है, जो अकेले बैठ कर जीम रहे हैं। भिक्षु कहता है कि भूखे लोग ही नहीं मरते, मरेंगे तो वे भी एक दिन। मिल-बाँट कर खाते, तो मनुष्यता तो बचाकर रख लेते आने वाली पीढ़ी के लिये। अकेले पेट भरते रहे अपना, तो हुआ क्या? धीरे-धीरे मर तो वे भी रहे हैं।
'न वा देवा: क्षुधमिद्वधं ददुरुताशितमुप गच्छन्ति मृत्यव:। उतो रयि: पृणतो नोप दस्यत्युतापृणन्मर्डितारं न विन्दते।।' (ऋग्वेद:१०:११७:१:)
भिक्षु फिर ललकारता हैं। कहता है- 'द्वार पर खड़ा हुआ भूखा आदमी तुमसे मांग रहा केवल दो रोटियाँ। तुम अनदेखा कर बैठे हुए हो घर में अपनी थाली सजा कर। मुँह में निवाला लेते हुए मन में हुआ नहीं कुछ? व्यर्थ हैं तुम्हारे अन्न के भंडार। सच कहता हूँ,जमाखोरी ही तुम्हारी मृत्यु है। अकेले खाने वाले तुम पाप ही खाते रहे हो जीवन भर। घर आये याचक को कुछ दे देते, दुर्बल को देते थोड़ी सी शरण,तो तुम अपने में ही ऊपर उठ जाते, तुम अपने ही सहायक बनते।'
यह है वेद की भाषा। यह है वैदिक कविता की ऊँचाई। जो नहीं जानते, या जानना ही नहीं चाहते, उनके लिये वेद 'स्थाणु' है। जो सुधीजन वेद में लोकाचार और जनसाधारण से जुड़े हुए संदर्भ और प्रसंग ढूँढना चाहते हों, उन्हें यह दानसूक्त और इससे मिलते-जुलते वे अनेक सूक्त जरूर देखना चाहिए, जिनके बिना वैदिक वाङ्मय का सर्वांग रूप दिखाई नहीं देता।
भिक्षु ऋषि का यह दानसूक्त सामान्य नहीं है। इसमें उठाये गये सवाल सर्वदेशीय और सार्वकालिक हैं। भिक्षु ऋषि साफ-साफ कहते हैं-वह मित्र कहलाने योग्य नहीं है, जो सुख-दु:ख में साथ नहीं होता। उसका घर तो घर कहलाने के भी योग्य नहीं है। साथ देने वाला पराया भी अपना है। वे कहते हैं कि 'मनुष्य को 'ना' बोलने से पहले अपने जीवन का लम्बा पथ जरूर देख लेना चाहिए। धन-सम्पदा तो रथ के चक्र की तरह है, वह तो नीचे-ऊपर आता-जाता रहता है।' स्वभाव से कृपण पूंजीपतियों को ऋषि ने सचेत करते हुए कहा है-'व्यर्थ हैं तुम्हारे अन्न के भंडार। सच कहता हूँ, जमाखोरी ही तुम्हारी मृत्यु है। तुम न राजा के काम आये, न अपनों के। अकेले खाने वाले तुम पाप ही खाते रहे जीवन भर।'
भिक्षु ऋषि अपने समय के सजग प्रहरी है। वे समाज में व्याप्त वर्ग-संघर्ष को अनदेखा नहीं कर सके हैं। वे उस उदार निर्धन का पक्ष लेते हैं, जो अपनी बहुत थोड़ी सी जमा पूंजी भी अपने से नीचे के लोगों को बाँट कर भूखा सो जाता है, लेकिन उन अनुदार धनिकों को खरी-खरी सुनाता है, जो किसीके लिये भी सहायता का हाथ आगे नहीं बढ़ाते। 'भूमि को जोतती हुई हल की लकड़ी अच्छी है पड़ी हुई लकड़ी से, अपने पाँव चलता हुआ पथिक अच्छा है सोये पड़े लोगों से। ज्ञानी अच्छा है अज्ञानियों से, उदार निर्धन ही अच्छा है अनुदार धनी से। थोड़े धन वाला देता दोनों हाथों से, उससे कुछ बड़ा धनी खींच लेता हाथ कभी-कभी। बड़े सम्पत्तिशाली मुट्ठी बाँधे हुए देखते रह जाते विशाल हृदयों का उदार चरित।'
भिक्षु ऋषि का यह सूक्त भारतीय जीवन दर्शन की उदात्त भावनाओं का आगार है। यह ऋषि कविता के दायित्व की बारिकी को खूब समझता है। भारतीय साहित्य की आदिम कविताओं में भिक्षु की यह कविता शीर्ष पर रखे जाने योग्य है। यह कविता वेद की प्रतिनिधि कविता है। सूक्त के समापन-पद में भिक्षु ने जो कहा है, उस पर हम सबका ध्यान बार-बार जाना चाहिए। देखिए-
'दोनों हाथ एक जैसे नहीं होते,
दाहिने हाथ की जगह
बायाँ हाथ नहीं ले पाता।
एक ही गाय की बछियाएँ
एक जैसा दूध नहीं देती बड़ी हो कर,
जुड़वाँ बच्चे एक जैसे नहीं होते।
सबकी वृत्तियाँ होती हैं अलग-अलग,
भावनाएँ भी अलग-अलग।'
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