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भारतीय वैज्ञानिक: ऋषि वागाम्भृणी |
भारतीय वैज्ञानिक: ऋषि वागाम्भृणी
वैदिक काल में जितने भी ऋषि हैं, वे सभी पुरुष नहीं हैं। उनमें नारियाँ भी अपनी पूरी सामर्थ्य के साथ उपस्थित हैं। कई बार तो यह भी लगता है कि संख्या में बहुत कम होने के बाद भी उनका वर्चस्व अप्रतिम हैं। घोषा हैं यहाँ, जूहु हैं, सूर्या और विश्ववारा हैं, और भी कईं। यहाँ केवल वागाम्भृणी का उदाहरण ही पर्याप्त है। वागाम्भृणी का केवल एक सूक्त ऋग्वेद के दशम मंडल में है। यह सूक्त वेदों में नारी शक्ति के वर्चस्व को प्रमाणित करता है। इस सूक्त में जो कविता है, वह नारी-जागरण का उद्घोष है और नारी-शक्ति को रेखांकित करती हुई वैदिक स्थापना भी। इस कविता को पढ़ लेने के बाद नारी के अबला होने और पराधीन होने के सब विचार एक ही बार में झड़ जाते हैं। वेदकालीन भारत नारी के बारे में क्या सोचता है, यह समझने के लिये वागाम्भृणी की कविता हमें आमंत्रित करती है। इस कविता के शब्दों में ऊर्जा का जो अजस्र प्रवाह है, उसे श्रद्धालु मनीषियों ने कई बार गहराई से अनुभव किया है।
सम्पूर्ण वैदिक वाङ्मय में वागाम्भृणी की यह कविता अलग से पहचान में आती है। इस कविता में वागाम्भृणी मातृसत्ता की ओर से प्रथम पुरुष में अपनी बात कहती है। पूरे ऋग्वेद में यही एक कविता है, जिसमें बार-बार 'अहं' शब्द का प्रयोग हुआ। मातृसत्ता जिस निश्चयात्मक अंदाज में अपना स्वरूप सबके सामने रखती है, वह अनोखा है। इस सशक्त कविता में समस्त देव और समस्त ऋषि केवल उसीके अधीन बताये गये हैं। ऐसा प्रतीत होता है वागाम्भृणी के मुख से देवों की शक्ति ही बोल रही है। शाक्त परम्परा में यही देवीसूक्त है। समस्त देव शक्तिपूजा के लिये इसी सूक्त का पाठ करते हुए दिखाये जाते है। श्रीराम ने शक्तिपूजा करते समय इसीका सस्वर पाठ किया था। त्रिष्टुप् छंदों में निबद्ध यह सूक्त अद्भुत है, इसका प्रभाव अनिर्वचनीय।
वागाम्भृणी ने माता के मुँह से जो कहलाया है, वह इस विचार की पुष्टि करता है कि आदिकाल से मातृशक्ति ही सर्वोपरि रही है। सम्पूर्ण भगवत्ता की स्वामिनी वही है। वही यज्ञ की निर्मात्री है, वही यजमान का हृदय खोलती है। वह उस ज्ञान की उद्घोषिका है, जो देवों और मानुषों में स्थापित है। वागाम्भृणी कहती है कि विश्वमाता कभी रुद्रों के साथ विचरती है,कभी वसुओं के साथ। उसकी पीठ पर कभी आदित्य आरूढ होते हैं, कभी विश्वदेवता। मित्र,वरुण, इन्द्र,अग्नि और अश्विनीकुमारों में वही विद्यमान है। वह सम्पूर्ण भुवन की अधीश्वरी है, वसुओं की संगमनी है। वह प्रथम यज्ञ की प्रथम ज्वाला है। सब देवता उसमें ही रमण करते हैं। सब प्राणियों का जीवन उसके भीतर है, और वह सबके भीतर उतरी हुई है।
वागाम्भृणी के इस सूक्त में विश्वमाता के वचन हैं कि उसने ही अन्नमयलोक बनाया, उससे ही इस दृश्य जगत का आविर्भाव हुआ। वेदों की श्रुति-परम्परा उसी ने बनाई। वह इस बात का भी आश्वासन देती है कि जो उसकी शरण में नहीं आते, वह उन्हें भी आश्रय देती है। वह जिसे चाहती है, उसे तेज से भर देती है। वही बनाती है ब्रह्मवेत्ता, वही बनाती है ऋषि, वही बनाती है मेधावियों को। वह धनुष उठाती है रुद्र के लिये। वह ब्रह्म के द्रोहियों का नाश करती है, और शरणागतों की रक्षा के लिये युद्ध करती है। वह द्यावापृथ्वी में सर्वत्र व्याप्त है। उसने ही विश्व की मूर्धा में सूर्य को स्थापित किया। उसका घर अमृत में है,अंत:समुद्र में है। सकल भुवनों के मध्य वह एकाकिनी खड़ी हुई सुदूर लोकों के शिखरों को छू लेती है। वह भुवनों को रचती हुई वायु की तरह प्रवाहित है। वह द्युलोक से ऊपर है तो पृथ्वी पर भी है। विश्वमाता अपनी महिमा से यहाँ भी हैं तो वहाँ भी है।
इस सूक्त में ऋषि वागाम्भृणी और विश्वमाता एक हो गये हैं, यही ऋषि की चरितार्थता है। एक तरह से यह कविता जगज्जननी का आत्म-परिचय है। यह कविता एक ही बार में उन सब रहस्यों को खोल देती है, जिनके विस्तार और विश्लेषण के लिये उपनिषद् आगे आये और पुराण भी। भारतीय संस्कृति और साहित्य में यह छोटी सी कविता कितनी अधिक मूल्यवान है और इसकी पवित्रता कितनी अधिक विश्वसनीय है, यह बताने की आवश्यकता नहीं। यह गाई जाती है, बार-बार दोहराई जाती है। यह भी कहा जाता कि यह कविता सब देवों, सब छंदों और सब ऋषियों के मानस में स्थापित है। वागाम्भृणी की यह कविता लोकोत्तर होकर भी लोक की पूँजी है।
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