संस्कृत श्लोक: "भार्यावियोगः स्वजनापवादः" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद, सुभाषितानि,सुविचार,संस्कृत श्लोक,नीति के श्लोक, भागवत दर्शन, सूरज कृष्ण शास्त्री।
संस्कृत श्लोक: "भार्यावियोगः स्वजनापवादः" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद
शाब्दिक विश्लेषण
- भार्यावियोगः – पत्नी का वियोग (स्त्री से बिछड़ना)
- स्वजनापवादः – स्वजनों (अपने लोगों) द्वारा अपमान या निंदा
- ऋणस्य शेषं – बचा हुआ कर्ज (जो अभी चुकाया न गया हो)
- कृपणस्य सेवा – कंजूस (मiser) व्यक्ति की सेवा करना
- दारिद्र्यकाले प्रियदर्शनं – गरीबी के समय प्रियजन का दर्शन (जो सहायता न कर सके)
- विना अग्निना – बिना आग के
- पञ्च दहन्ति कायम् – ये पाँच चीजें शरीर को जलाती हैं
व्याकरणीय विश्लेषण
- भार्यावियोगः, स्वजनापवादः, ऋणस्य शेषं, कृपणस्य सेवा, दारिद्र्यकाले प्रियदर्शनं – कर्ता पद (प्रथमा विभक्ति, एकवचन)।
- विना अग्निना – (तृतीया विभक्ति, साधन कारक) बिना अग्नि के।
- पञ्च दहन्ति कायम् – ये पाँच (पञ्च) शरीर (कायम्) को जलाते हैं (दहन्ति – बहुवचन क्रिया)।
आधुनिक संदर्भ में व्याख्या
यह श्लोक जीवन की उन पाँच कठिन परिस्थितियों को दर्शाता है जो व्यक्ति के मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक संतुलन को नष्ट कर देती हैं। ये पाँचों दुख इतने पीड़ादायक होते हैं कि बिना किसी बाहरी कष्ट के भी व्यक्ति भीतर ही भीतर जलता रहता है।
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पत्नी का वियोग (भार्यावियोगः)
- जीवनसाथी का साथ छूट जाना व्यक्ति के जीवन में बड़ा आघात होता है।
- यह न केवल भावनात्मक बल्कि मानसिक और सामाजिक रूप से भी व्यक्ति को कमजोर कर देता है।
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स्वजनों द्वारा निंदा (स्वजनापवादः)
- अपने ही परिजनों द्वारा अपमानित या तिरस्कृत होना अत्यंत कष्टकारी होता है।
- जब अपनों का ही सहयोग न मिले, तो जीवन बोझिल लगने लगता है।
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बचा हुआ कर्ज (ऋणस्य शेषं)
- अधूरा कर्ज मानसिक तनाव का बड़ा कारण होता है।
- जो व्यक्ति ऋण में डूबा रहता है, वह चैन से जीवन व्यतीत नहीं कर सकता।
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कंजूस व्यक्ति की सेवा (कृपणस्य सेवा)
- जो व्यक्ति कृपण (कंजूस) होता है, वह सेवा का उचित मूल्य नहीं समझता।
- उसकी सेवा करना निरर्थक होता है क्योंकि वह सम्मान और उदारता से परे होता है।
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गरीबी में प्रियजन का दर्शन (दारिद्र्यकाले प्रियदर्शनं)
- जब कोई व्यक्ति निर्धन हो और उसी समय प्रियजनों का वैभवशाली जीवन देखे, तो यह उसके लिए जलन और दुःख का कारण बन जाता है।
- यदि वे सहायता करने में असमर्थ हों, तो यह और भी पीड़ादायक होता है।
व्यावहारिक शिक्षा
- जीवन में संतुलन और सतर्कता आवश्यक है ताकि हम इन पाँच कष्टों से बच सकें।
- आर्थिक अनुशासन बनाएँ ताकि कर्ज से बचा जा सके।
- संबंधों की मर्यादा बनाएँ ताकि अपने ही लोग निंदक न बनें।
- स्वास्थ्य और मानसिक शक्ति बनाएँ ताकि कठिन परिस्थितियों का सामना कर सकें।
- स्वाभिमान बनाएँ और कृपण स्वभाव वाले लोगों से बचकर रहें।
संक्षिप्त निष्कर्ष
श्लोक हमें बताता है कि जीवन में कुछ पीड़ाएँ इतनी तीव्र होती हैं कि वे बिना अग्नि के भी व्यक्ति को भीतर से जलाने लगती हैं। इसलिए हमें विवेकपूर्ण जीवन जीना चाहिए ताकि हम इन कष्टों से बच सकें।
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