अध्यात्म: अभ्यास, भक्ति और ईश्वर प्राप्ति का रहस्य, भागवत दर्शन सूरज कृष्ण शास्त्री,करत-करत अभ्यास के जडमति होत सुजान।रसरी आवत-जात ते सिल पर परत निशान
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अध्यात्म: अभ्यास, भक्ति और ईश्वर प्राप्ति का रहस्य |
अध्यात्म: अभ्यास, भक्ति और ईश्वर प्राप्ति का रहस्य
१. अभ्यास का महत्व
निरंतर अभ्यास से मूर्ख भी पंडित बन सकता है, जैसे कुएँ की जगत पर बार-बार रस्सी के आने-जाने से पत्थर पर निशान बन जाते हैं। यह हमें यह सिखाता है कि यदि हम अपने मन में भगवान का निरंतर स्मरण करें, तो वह हमारे जीवन का अभिन्न अंग बन जाता है और आवश्यकता पड़ने पर हमें पुकारने से पहले ही सहायता प्रदान करता है।
२. एकमात्र भरोसा: श्रीराम
तुलसीदास जी कहते हैं कि उनका एकमात्र भरोसा, बल, आशा और विश्वास श्रीराम में है, जैसे चातक पक्षी केवल स्वाति नक्षत्र के जल की प्रतीक्षा करता है।
३. योग और अभ्यास का रहस्य
योग का अभ्यास मन और शरीर के बीच सामंजस्य स्थापित करता है और आत्म-साक्षात्कार की ओर ले जाता है। जो भी तुम स्वयं में स्थित होने के लिए करते हो, वही अभ्यास है।
(हे पार्थ! अभ्यासपूर्वक मन को बिना विचलित हुए मुझ परम दिव्य पुरुषोत्तम का स्मरण करने पर तुम मुझे प्राप्त करोगे।)
मन यदि पाँच वृत्तियों से मुक्त होकर इस क्षण में स्थित हो, तो वही अभ्यास है। जैसे लहर समुद्र की गहराई को नहीं जान सकती क्योंकि गहराई में उतरते ही वह लहर नहीं रहती, वैसे ही मन भी हमारे अस्तित्व की गहराई में प्रवेश नहीं कर सकता।
४. सतत भक्ति का महत्व
(जो योगी अनन्य भक्ति से सतत मेरा स्मरण करता है, उसके लिए मैं सुलभ हो जाता हूँ।)
(यदि मन संसार में आसक्त है, तो वह बंधन का कारण बनता है, और यदि वह ईश्वर में लीन है, तो मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है।)
५. ईश्वरीय कृपा और आत्मसाक्षात्कार
बुद्धि से ईश्वर को जानना संभव नहीं, क्योंकि वह तर्कातीत हैं।
(भगवान राम बुद्धि, मन और वाणी की सीमा से परे हैं।)
(भगवान के चरण कमलों से अमृत स्नान कराए बिना उन्हें कोई भी नहीं जान सकता।)
(अपने मन को मुझमें स्थिर करो, बुद्धि को भी मुझे समर्पित करो। ऐसा करने पर तुम सदा मुझमें निवास करोगे।)
६. निष्काम भक्ति और निष्काम कर्म
(हे अर्जुन, जो व्यक्ति मेरे लिए कर्म करता है, मुझे ही जीवन-लक्ष्य मानता है, और सभी जीवों से निर्वैर भाव रखता है, वह निश्चित रूप से मुझे प्राप्त करता है।)
(कृष्ण से असंबंधित कार्य न करना ही सच्चा वैराग्य है।)
७. भक्ति: जीवन का मूल तत्व
ईश्वर भक्ति केवल धार्मिक अनुष्ठानों तक सीमित नहीं, बल्कि जीवन के प्रत्येक कर्म में परिलक्षित होनी चाहिए।
(हे अर्जुन, यदि तुम अपने मन को मुझमें स्थिर करने में असमर्थ हो, तो अभ्यासयोग द्वारा मेरा स्मरण करने का अभ्यास करो।)
ईश्वर का ध्यान सभी विद्यमान चीज़ों की समग्रता के रूप में किया जा सकता है। जो लोग ऐसा नहीं कर सकते, वे ईश्वर के किसी एक पहलू जैसे दिव्य पिता, माता, बालक आदि का ध्यान करते हैं। जब हम ईश्वर का नाम जपते हैं, तो यह भक्ति में परिणत होता है।
"मामेकमेव शरणमात्मानं सर्वदेहिनाम्॥"
(तुम सब प्राणियों के आत्मस्वरूप मुझे ही शरण ग्रहण करो।)
(जो मुझसे प्रेम करते हैं, मैं उन्हें ऐसा दिव्य ज्ञान प्रदान करता हूँ जिससे वे मुझे प्राप्त कर सकें।)
८. निष्कर्ष
ईश्वर प्राप्ति केवल मानसिक प्रयासों से संभव नहीं, बल्कि ईश्वरीय कृपा आवश्यक है।
(जो यह मानते हैं कि वे अपनी बुद्धि से ईश्वर को समझ सकते हैं, वे वास्तव में उन्हें नहीं जानते।)
(कलियुग में ईश्वर का नाम ही एकमात्र आधार है; जो निरंतर स्मरण करता है, वह भवसागर से पार हो जाता है।)
अध्ययन और आचरण हेतु मुख्य बिंदु
- निरंतर अभ्यास से ही सिद्धि संभव है।
- भगवान का स्मरण जीवन का अभिन्न अंग बनाना चाहिए।
- ईश्वर की कृपा से ही सच्चा ज्ञान प्राप्त होता है।
- भक्ति केवल अनुष्ठानों तक सीमित नहीं, बल्कि जीवन की संपूर्णता में परिलक्षित होनी चाहिए।
- सच्ची भक्ति ही आत्मसाक्षात्कार का मार्ग है।
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