जगतगुरुतम श्री कृपालु महाराज जी का गूढ़तम ज्ञान, साधन और उनके उद्देश्य, योग एवं अन्य शारीरिक साधनाएं, प्रवचन एवं सत्संग, संकीर्तन एवं संगीत, संतों की.
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जगतगुरु श्री कृपालु महाराज जी का गूढ़तम ज्ञान |
जगतगुरु श्री कृपालु महाराज जी का गूढ़तम ज्ञान
श्री महाराज जी से एक साधक ने जिज्ञासा प्रकट की—
"प्रभु! हम संकीर्तन करते हैं, आपके और प्रचारकों के प्रवचन सुनते हैं, भजन-कीर्तन गाते हैं, रूपध्यान करने का प्रयास करते हैं, तथा योग आदि का अनुसरण करते हैं। क्या इन सबके करने से हमें भगवद्प्राप्ति हो जाएगी? क्या यही हमारे मुख्य लक्ष्य को प्राप्त करने का मार्ग है?"
श्री महाराज जी का उत्तर:
"बिल्कुल नहीं।"
भगवद्प्राप्ति केवल इन साधनों से संभव नहीं है। ये सभी उपाय सहायक मात्र हैं, किन्तु जब तक मन में सच्चा समर्पण और भगवद्विश्वास उत्पन्न नहीं होता, तब तक इनका अंतिम लक्ष्य प्राप्त नहीं हो सकता।
साधन और उनके उद्देश्य
श्री महाराज जी ने समझाया कि जो विभिन्न साधन हम अपनाते हैं, वे निश्चित रूप से आवश्यक हैं, लेकिन उनका मुख्य उद्देश्य अलग-अलग होता है—
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योग एवं अन्य शारीरिक साधनाएं
- योग और अन्य शारीरिक अभ्यासों का मुख्य उद्देश्य केवल शरीर को स्वस्थ रखना है।
- एक स्वस्थ शरीर आवश्यक है ताकि साधक बिना किसी शारीरिक बाधा के अपनी साधना कर सके।
- लेकिन मात्र योग करने से आत्मा की उन्नति या भगवद्प्राप्ति नहीं हो सकती।
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प्रवचन एवं सत्संग
- जब हम सत्संग में प्रवचन सुनते हैं, तो उससे ईश्वर के प्रति हमारी समझ विकसित होती है।
- प्रवचन का उद्देश्य हमें यह सिखाना है कि ईश्वर से हमारा संबंध क्या है और हमें कैसे उनके प्रति समर्पित होना चाहिए।
- केवल प्रवचन सुनने से भगवद्प्राप्ति नहीं होती; यह तो केवल एक मार्गदर्शन है।
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संकीर्तन एवं संगीत
- संकीर्तन करने और सुनने से मन एकाग्र होता है, क्योंकि संगीत की लय और भावनाएं मन को स्थिर करने में सहायक होती हैं।
- जब मन स्थिर होगा, तभी वह भगवान के ध्यान में तल्लीन हो सकेगा।
- लेकिन केवल संकीर्तन करने से भगवद्प्राप्ति नहीं होगी जब तक कि मन पूर्णत: भगवान में समर्पित न हो जाए।
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संतों की संगति
- संतों के समीप रहने से उनके दिव्य वाइब्रेशन (spiritual vibrations) का प्रभाव हमारे चित्त पर पड़ता है।
- इससे हमें संसार से वैराग्य प्राप्त करने में सहायता मिलती है।
- लेकिन यदि केवल संतों के पास बैठने मात्र से ही भगवद्प्राप्ति हो जाती, तो सभी लोग जो संतों के पास रहते हैं, सिद्ध हो जाते।
भगवद्प्राप्ति के लिए आवश्यक तत्व
श्री महाराज जी स्पष्ट करते हैं कि इन सभी साधनों को अपनाने के बाद भी, यदि साधक के मन में यह दृढ़ विश्वास उत्पन्न नहीं हुआ कि—
"इस संसार में अथवा इसके बाहर भी, श्री भगवान के अतिरिक्त कोई हमारा नहीं है। हमारे समस्त संबंध, संपूर्ण प्रेम, और पूर्ण समर्पण केवल भगवान के प्रति ही होना चाहिए। वे ही हमारे सर्वस्व हैं।"
—तब तक भगवद्प्राप्ति संभव नहीं है।
भगवान केवल हमारे नाम लेने से प्रसन्न नहीं होते, बल्कि जब हमारा अंतःकरण शुद्ध होता है और हम पूर्ण समर्पण की अवस्था में पहुंचते हैं, तभी वे हमें अपना लेते हैं।
भगवान के नाम की महिमा
भगवान का नाम स्वयं भगवान हैं। जब मन पूर्णत: भगवान में तल्लीन हो जाता है, तब—
- भगवान का नाम लेते ही अश्रुपात होने लगता है,
- रोमांच उत्पन्न होता है,
- और साधक प्रेम-विभोर होकर चेतनावस्था लुप्त कर देता है।
इस अवस्था को "अंतःकरण की शुद्धि" कहा जाता है।
भगवद्प्राप्ति का वास्तविक मार्ग
श्री महाराज जी यह भी कहते हैं कि—
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भगवद्प्राप्ति का मार्ग भीतर से गुजरता है।
- जब तक साधक का अंतःकरण पूर्ण रूप से शुद्ध नहीं होता, तब तक भगवान का वास्तविक अनुभव संभव नहीं है।
- यह शुद्धि बाहरी साधनों से नहीं, बल्कि गहन आत्मसमर्पण से आती है।
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गुरु की कृपा आवश्यक है।
- जब साधक इस शुद्धि को प्राप्त कर लेता है, तब सद्गुरु उसे दिव्य प्रेम प्रदान करते हैं।
- गुरु ही वह शक्ति हैं, जो भक्त को भगवान के साक्षात्कार की दिशा में ले जाते हैं।
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दिव्य प्रेम की प्राप्ति ही परम लक्ष्य है।
- जब यह दिव्य प्रेम प्राप्त हो जाता है, तब साधक को संसार में और कुछ भी पाने की आवश्यकता नहीं रहती।
- यही वह अवस्था है, जिसके मिलने के बाद कुछ भी प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं रहती।
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