संस्कृत श्लोक: "बालो वा यदि वा वृद्धो युवा वा गृहमागतः" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद, सुभाषितानि,सुविचार,संस्कृत श्लोक, भागवत दर्शन, सूरज कृष्ण शास्त्री।
![]() |
संस्कृत श्लोक: "बालो वा यदि वा वृद्धो युवा वा गृहमागतः" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद |
संस्कृत श्लोक: "बालो वा यदि वा वृद्धो युवा वा गृहमागतः" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद
श्लोक सहित शब्दार्थ, हिन्दी अनुवाद, विश्लेषण और आधुनिक सन्दर्भ
श्लोक
शब्दार्थ
- बालः – बालक (छोटा बच्चा)
- वा – अथवा (या)
- यदि वा – चाहे
- वृद्धः – वृद्ध (बुजुर्ग)
- युवा – युवक (जवान)
- गृहमागतः – घर में आया हुआ (अतिथि)
- तस्य – उसका
- पूजा – सत्कार, सम्मान, आदर
- विधातव्या – करनी चाहिए, निर्धारित है
- सर्वत्र – हर जगह, सभी परिस्थितियों में
- अभ्यागतः – आगंतुक, अतिथि
- गुरुः – पूज्य, सम्माननीय
हिन्दी अनुवाद
चाहे कोई बालक हो, वृद्ध हो या युवा हो, यदि वह हमारे घर आए तो उसका सम्मानपूर्वक आतिथ्य-सत्कार अवश्य करना चाहिए, क्योंकि हर स्थान पर आगंतुक (अतिथि) पूजनीय होता है।
1. पद-पादच्छेद (शब्द-विभाजन)
- बालः + वा + यदि वा + वृद्धः + युवा + वा + गृहमागतः ।
- तस्य + पूजा + विधातव्या + सर्वत्र + अभ्यागतः + गुरुः ॥
3. व्याकरणिक संरचना (संस्कृत विभक्ति अनुसार)
- बालो वा यदि वा वृद्धो युवा वा गृहमागतः → प्रथमा विभक्ति (कर्ता)
- यहाँ "बालः, वृद्धः, युवा, गृहमागतः" सभी कर्ता पद हैं, जो यह दर्शाते हैं कि अतिथि कोई भी हो सकता है।
- तस्य पूजा विधातव्या → षष्ठी (संबंध), कर्तृ कर्म
- "तस्य" (षष्ठी विभक्ति) यहाँ पर "अभ्यागतः" (अतिथि) के लिए प्रयुक्त हुआ है, जिसका अर्थ है "उसका (अतिथि का) सत्कार"।
- "पूजा विधातव्या" – पूजा करनी चाहिए (कर्तव्यपरक क्रिया)
- सर्वत्राभ्यागतो गुरुः → द्वितीया/प्रथमा विभक्ति
- "सर्वत्र" (सर्वनाम विशेषण) यह दर्शाता है कि यह नियम सार्वत्रिक है।
- "अभ्यागतः गुरुः" – यहाँ "गुरुः" शब्द का अर्थ केवल शिक्षक नहीं, बल्कि "सम्माननीय" के अर्थ में है।
4. सांस्कृतिक और दार्शनिक व्याख्या
- "अभ्यागतः गुरुः" का तात्पर्य यह है कि जो भी अतिथि हमारे घर आता है, वह पूजनीय होता है, चाहे वह किसी भी आयु या स्थिति में हो।
- "पूजा विधातव्या" – इसका तात्पर्य केवल औपचारिक पूजा नहीं, बल्कि सत्कार, आतिथ्य, प्रेम और सम्मान देना भी है।
- यह श्लोक भारतीय अतिथि-सत्कार परंपरा ("अतिथि देवो भवः") को प्रतिपादित करता है और समाज में परस्पर सम्मान की भावना विकसित करता है।
विश्लेषण
यह श्लोक भारतीय संस्कृति के "अतिथि देवो भवः" सिद्धांत को पुष्ट करता है। इसमें यह संदेश दिया गया है कि अतिथि का सम्मान और सत्कार किसी की उम्र, अवस्था या स्थिति देखकर नहीं किया जाना चाहिए। कोई भी व्यक्ति, चाहे वह छोटा बालक हो, वृद्ध व्यक्ति हो या कोई युवा, यदि वह हमारे घर आता है तो हमें उसका यथोचित सत्कार करना चाहिए।
संस्कृत साहित्य और धर्मशास्त्रों में अतिथि सत्कार को अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना गया है। यह न केवल सामाजिक सौहार्द का प्रतीक है, बल्कि आध्यात्मिक दृष्टि से भी पुण्यदायी माना गया है। इस श्लोक में यह विचार व्यक्त किया गया है कि हमारे पास जो भी संसाधन हों, उनके अनुसार अतिथि को सम्मान देना चाहिए।
सांस्कृतिक और दार्शनिक व्याख्या
- "अभ्यागतः गुरुः" का तात्पर्य यह है कि जो भी अतिथि हमारे घर आता है, वह पूजनीय होता है, चाहे वह किसी भी आयु या स्थिति में हो।
- "पूजा विधातव्या" – इसका तात्पर्य केवल औपचारिक पूजा नहीं, बल्कि सत्कार, आतिथ्य, प्रेम और सम्मान देना भी है।
- यह श्लोक भारतीय अतिथि-सत्कार परंपरा ("अतिथि देवो भवः") को प्रतिपादित करता है और समाज में परस्पर सम्मान की भावना विकसित करता है।
आधुनिक संदर्भ में प्रासंगिकता
- मानवता और सद्भाव – आज के समय में जब लोग व्यक्तिगत जीवन में व्यस्त होते जा रहे हैं, तब यह श्लोक हमें सिखाता है कि दूसरों के प्रति संवेदनशील रहें और जरूरतमंदों की मदद करें।
- सामाजिक समरसता – यह संदेश हमें जाति, धर्म, भाषा, या आर्थिक स्थिति से परे जाकर सभी का सत्कार करने की प्रेरणा देता है।
- भारतीय परंपरा और संस्कार – भारतीय संस्कृति में अतिथि का विशेष स्थान है। इस विचार को अपनाने से समाज में प्रेम, आदर और परस्पर सहयोग बढ़ेगा।
- आधुनिक अतिथि-सत्कार – अब यह जरूरी नहीं कि केवल शारीरिक रूप से आए हुए व्यक्ति का ही स्वागत करें, बल्कि आज डिजिटल युग में भी हमारे शब्दों और व्यवहार में दूसरों के प्रति सम्मान झलकना चाहिए।
निष्कर्ष
यह श्लोक भाषा और अर्थ दोनों दृष्टियों से बहुत ही गूढ़ और सारगर्भित है। संस्कृत व्याकरण के अनुसार यह एक सुंदर और सुव्यवस्थित वाक्य संरचना प्रस्तुत करता है, जिसमें अतिथि-सत्कार की अनिवार्यता और उसके महत्व को प्रतिपादित किया गया है।
COMMENTS