स्वर्ग और नरक : एक दार्शनिक दृष्टिकोण, कर्मों का वर्गीकरण, शरीर के प्रकार, स्वर्ग और नरक का वास्तविक स्वरूप, स्वर्ग-नरक की कल्पना और समाज पर प्रभाव।
स्वर्ग और नरक : एक दार्शनिक दृष्टिकोण
स्वर्ग और नरक की वास्तविकता को समझने के लिए यह जानना आवश्यक है कि यह हमें प्राप्त कैसे होता है। भारतीय दर्शन के अनुसार, जीव अपने कर्मों के आधार पर स्वर्ग (सुख) या नरक (दुःख) का अनुभव करता है। प्रत्येक जीव कर्म करने में स्वतंत्र होता है, किंतु उन कर्मों के फल भोगने के लिए परतंत्र होता है। यदि कर्मों के फल का भोग न किया जाए, तो पुनर्जन्म का सिद्धांत व्यर्थ हो जाएगा, क्योंकि बिना शरीर के आत्मा कर्मफल का अनुभव नहीं कर सकती।
कर्मों का वर्गीकरण
भारतीय दर्शन में कर्मों को तीन श्रेणियों में बांटा गया है—
- संचित कर्म – अब तक किए गए समस्त कर्मों का संग्रह संचित कर्म कहलाता है।
- प्रारब्ध कर्म – संचित कर्म का वह भाग, जो वर्तमान जन्म में भोगने के लिए निर्धारित होता है, प्रारब्ध कहलाता है।
- क्रियमाण कर्म – जो कर्म वर्तमान में किए जा रहे हैं, वे क्रियमाण कर्म कहलाते हैं।
शरीर के प्रकार
जैसे कर्मों के प्रकार बताए गए हैं, वैसे ही शरीर के भी दो रूप होते हैं—
- स्थूल शरीर – जन्म के बाद जो दृश्य रूप में होता है, वह स्थूल शरीर कहलाता है। इसी शरीर के माध्यम से सांसारिक कार्य संपन्न होते हैं, और जीव को सुख-दुःख का अनुभव होता है। जीव को अपने कर्मों के अनुसार सुख-दुःख का अनुभव इसी शरीर में करना पड़ता है।
- सूक्ष्म शरीर – जब आत्मा शरीर का त्याग करती है, तब भौतिक शरीर और इंद्रियाँ समाप्त हो जाती हैं, किंतु मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार रूपी सूक्ष्म शरीर जीव के साथ रहता है। मोक्ष की अवस्था में यह भी विलीन हो जाता है और आत्मा अपनी शुद्ध अवस्था में स्थित होती है।
स्वर्ग और नरक का वास्तविक स्वरूप
कई लोग स्वर्ग और नरक को भौतिक स्थान मानते हैं, किंतु वास्तव में ये केवल कर्मों के फलस्वरूप सुख-दुःख की अनुभूति के प्रतीक हैं। यदि स्वर्ग-नरक किसी अन्य लोक में होते, तो आत्मा वहां कर्मफल का अनुभव कैसे करती?
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आत्मा को कर्मफल भोगने के लिए स्थूल शरीर की आवश्यकता होती है, क्योंकि—"नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।"(भगवद्गीता 2.23)अर्थात आत्मा अविनाशी है, इसे न शस्त्र काट सकते हैं, न अग्नि जला सकती है, न जल भिगो सकता है और न वायु सुखा सकती है।
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यदि यह माना जाए कि सूक्ष्म शरीर स्वर्ग-नरक में कर्मफल भोगता है, तो फिर पुनर्जन्म की आवश्यकता नहीं रह जाती। लेकिन पुनर्जन्म का सिद्धांत यह दर्शाता है कि आत्मा को पुनः स्थूल शरीर धारण करना ही होगा।
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यदि मान लिया जाए कि सूक्ष्म शरीर ने स्वर्ग-नरक में कर्मफल भोग लिया, तो फिर स्थूल शरीर में जन्म लेने के बाद वह कौन-से कर्मों के फल भोगेगा?
स्वर्ग-नरक की कल्पना और समाज पर प्रभाव
यदि स्वर्ग-नरक को अन्य लोकों में मान लिया जाए, तो पुनर्जन्म का सिद्धांत व्यर्थ हो जाता है। कुछ लोग यह तर्क देते हैं कि केवल मिश्रित कर्मों वाले ही पुनर्जन्म लेते हैं, किंतु यह तर्क अव्यवहारिक प्रतीत होता है क्योंकि—
- प्रत्येक व्यक्ति के कर्मों में पुण्य और पाप दोनों होते हैं, जिससे हर जीव मिश्रित कर्मों वाला ही होता है।
- यदि सभी का पुनर्जन्म निश्चित है, तो स्वर्ग-नरक की कल्पना निरर्थक हो जाती है।
स्वर्ग-नरक को भौतिक स्थान मानने से समाज में अंधविश्वास और आडंबर को बढ़ावा मिलता है। वास्तव में, स्वर्ग और नरक अन्य लोकों में नहीं, बल्कि इसी जीवन में हमारे कर्मों के परिणामस्वरूप अनुभूत किए जाते हैं। अतः हमें कर्मों की शुद्धता पर ध्यान देना चाहिए, न कि काल्पनिक स्वर्ग-नरक के भय या प्रलोभन में फंसना चाहिए।
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