परशुराम: आदिपुरुष और एक क्रान्तिकारी, इतिहास के प्रथम राम - परशुराम, सत्य की रक्षा के लिए युद्ध अनिवार्य, परशुराम: जातिवाद के विरोधी, भागवत दर्शन सूरज
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परशुराम: आदिपुरुष और एक क्रान्तिकारी |
परशुराम: आदिपुरुष और एक क्रान्तिकारी
परशुराम को जानना हो, तो हमें पुराणों के उस पार ही जाना होगा। वे पुराणों में आई हुई कथा के पात्र बना तो दिये गये हैं, किन्तु वे पुराणों के युग में हैं नहीं। वे वैदिक मंत्रों के रचयिता हैं, और बहुत सारे मंत्र उन्होंने अपने पिता जमदग्नि के साथ साझा किये हैं। वैदिक साहित्य में उनकी पहचान परशुराम के रूप में कहीं नहीं, किन्तु वे जामदग्न्य और जमदग्निपुत्र राम के रूप में प्रसिद्ध हैं। ऋग्वेद के दशम मंडल में इस जमदग्निपुत्र की जितनी ऋचाएँ मिलती हैं, उनमें पहली बार ब्रह्मतेज का आलोक दिखाई देता है।
इतिहास के प्रथम राम - परशुराम
इतिहास में सबसे पहले राम तो यही हुए। परशु धारण करने के कारण ही ये परशुराम कहलाए। परशु ही क्यों ? क्योंकि उसी दौर में लोहे की खोज हुई और लोहे के आयुध सामने आये थे, अन्यथा एक दौर तो वह रहा है, जब मानव-अस्थियों से वज्र बनाये जाने के उदाहरण मिलते हैं। वेदों में वर्णित जीवनचर्या केवल अध्यात्म और देवतावाद में नहीं, युद्ध की सम्भावनाओं में भी दिखाई देती है।
सत्य की रक्षा के लिए युद्ध अनिवार्य
नैतिक व्यवस्था की मांग को लेकर सदियों से समाज में जो वैचारिक युद्ध चलता आया है, उसके जनक परशुराम हैं। मानवसभ्यता के इतिहास में परशुराम पहले क्रान्तिकारी हैं, जिन्होंने सत्य की रक्षा के लिये युद्ध को अनिवार्य बताया था। परशुराम का विचार था कि अपने भीतर बैठी राजसी और भोग-विलास में लिप्त शक्तियों के दमन के बिना सत्वगुणों का आवाहन किया नहीं जा सकता। अन्याय को सहन करते चले जाना पाप है। संघर्ष किये बिना इस पाप से मुक्त नहीं हुआ जा सकता। यह धरती उन राजसी शक्तियों के नीचे दबी पड़ी है, जिन्होंने मनुष्यता को कुचला है और सत्य को अपना मुँह खोलने नहीं दिया।
परशुराम: जातिवाद के विरोधी
परशुराम स्पष्ट रूप से जातिवाद को अनुचित मानते थे। उनके पिता जमदग्नि ने वर्णेतर स्त्री से विवाह किया। शस्त्र विद्या सिखाते समय परशुराम ने ब्राह्मणों के साथ समान रूप से क्षत्रियों और शूद्रों को भी सुपात्र समझा। इसके असंख्य उदाहरण मिलते हैं। परशुराम जीवनभर मनुष्यता के लिये नीतिशास्त्र बनाने में लगे रहे। अत्रि की पत्नी अनसूया, अगस्त्य की पत्नी लोपामुद्रा और अपने प्रिय शिष्य अकृतवर्ण के साथ मिलकर परशुराम नारी जागरण अभियान चलाने वाले सबसे पहले क्रान्तिकारी थे।
परशुराम वैदिकयुग और ब्राह्मणयुग के संधिपुरुष
परशुराम वैदिकयुग और ब्राह्मणयुग के संधिपुरुष हैं। वे आगाह करते हैं, कि सहिष्णु रहो चाहे जिस सीमा तक, किन्तु लोहा कभी भी ठंडा मत होने दो। जीवन अंततः एक भीषण युद्ध है, और इसे जीते बिना मुक्ति सम्भव है ही नहीं। इसलिये वे बार-बार कहते हैं- 'योद्धा बनो।' वे स्वयं को क्रान्तिकारी घोषित करते हैं, किन्तु कभी भगवान् घोषित नहीं करते। उनके अनुसार योद्धा के भीतर ही भगवान् का निवास है।
ऋग्वेद के दशम मंडल का ११०वाँ सूक्त
ऋग्वेद के दशम मंडल का ११०वाँ सूक्त जमदग्निपुत्र राम का है। हमें इस सूक्त से पहली बार उस ऋषि का परिचय प्राप्त होता है, जो बाद के पौराणिक आख्यानों में अपने क्रान्तिकारी तेवरों के कारण बहुचर्चित हुए। इस सूक्त में कुल एकादश ऋचाएँ हैं, जिनमें परशुराम के विचारों की वह अग्नि प्रज्वलित है, जिसे वे मनुष्यों के भीतर प्रज्वलित देखना चाहते हैं। सूक्त की प्रथम ऋचा को देखिए-
समिद्धो अद्य मनुषो दुरोणे देवो देवान्यजसि जातवेद:।
आ च वह मित्रमहश्चिकित्वान्त्वं दूत: कविरसि प्रचेता:।।
(ऋग्वेद १०.११०.१.)
'मनुष्य के भीतर प्रज्वलित हे अग्नि! तुम हमारे संग्राम में सम्मिलित होओ। तुम हमारे सबसे अच्छे मित्र हो। तुम दूत बन कर आये हो हमारे पास। क्रान्ति का आह्वान करो और हमें चैतन्य कर दो।।'
इस सूक्त में परशुराम मनुष्य जीवन के लिये एक नीतिशास्त्र प्रस्तावित करते हैं। उनके अनुसार प्रत्येक मनुष्य को यह प्रयत्न करना चाहिए कि उसका जीवन व्यर्थ ही न ढल जाए। उसे सत्य के पथ पर वीरतापूर्वक डटे रहना चाहिए। मनुष्य के भीतर जो प्रज्वलित अग्नि है, वही हमारा देव है। वही हमारे विचारों को आन्दोलित करता है, वही हमसे संवाद करता है। यह देव हममें सदैव जागा रहे, तो हमसे कोई अनैतिक कर्म नहीं हो सकते। वे इसी सूक्त में माँ भारती से एक प्रार्थना करते है, जिसका भावार्थ यह है-
'हे भारती! तू हमारे जीवन यज्ञ में आ। हम मनुष्यों में चेतना जगा। इडा, सरस्वती और तुम हमारे हृदयों में आकर बस जाओ।। (ऋग्वेद १०:११०:८)
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