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चार्वाक-दर्शन: सूत्र सहित विश्लेषण |
चार्वाक-दर्शन: सूत्र सहित विश्लेषण
उपनिषदों के प्रादुर्भाव के अनन्तर तथा महाभारत के पूर्व भारतवर्ष के तत्त्वज्ञान के इतिहास में एक विचित्र युग बारम्भ होता है, जिसमें आध्यात्मिक विचारों के प्रति जनसाधारण में अविश्वास का उदय होता है। चार्वाक-दर्शन का प्रादुर्भाव इसी युग से सम्बन्ध रखता है।
चार्वाक प्राचीन भारत का भौतिकवादी तत्त्वज्ञानी है। उसकी दृष्टि में भूत ही मौलिक तत्त्व है। आँखों से जितना दिखलाई पड़ता है, उतना ही संसार है। सत्यता की कसोटी इन्द्रियगोचरता है अर्थात् इन्द्रियों के द्वारा जिन वातों का अनुभब हमें होता है, वे ही वस्तुएँ सत्य हैं। उनके अतिरिक्त कोई वस्तु है ही नहीं। आत्मा के विषय में भी इनकी दृष्टि अत्यन्त स्थूल है। आत्मा के शान्त होने पर ही दुःखों से अत्यन्त निवृत्ति होती है, परन्तु आत्मा है क्या ? इस विषय की खोज इन लोगों ने अपनी दृष्टि से की। ये शरीर को ही आत्मा मानते है। दर्शन के विकास से यह अत्यन्त स्थूलतम दृष्टि है। जीवन के विकास में एक निम्नतर स्तर ऐसा होता है कि बुद्धि स्थूल विषय को ही ग्रहण करने में समर्थ होती है और उस बुद्धि से हो 'आत्मा' की खोज कर ये लोग सच की प्राप्ति के लिए चिन्तित होते हैं। दर्शन के विकास का यह निम्नतम स्तर है, जहाँ से भारतीय दर्शन आरम्भ होकर अद्वैत वेदान्त के उच्चतम शिखर पर धीरे-धीरे चढ़ता जाता है। 'चार्वाक दर्शन' इसी दशा का परिचायक है।
'चार्वाक' शब्द का अर्थ
इस दर्शन का नाम 'चार्वाक' है। इस नाम की व्याख्या भिन्न-भिन्न आचायों ने भिन्न-भिन्न रूप से की है। इस मत के 'चार्थी' नामक आचार्य का उल्लेख काशिकावृत्ति में किया गया है "अथ ते चार्थी लोकायते"-अर्थात् लोकायत शास्त्र में चार्थी नामक आचार्य पदार्थों की व्याख्या करता है। 'चार्वाक' नामक किसी प्राचीन ऋषि ने, जो आचार्य बृहस्पति के शिष्य थे, इस दर्शन के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया था। 'चारुवाक्' (मिठ बोला) से भी 'चार्वाक' शब्द की निष्पत्ति कुछ लोग मानते है। इस मत वालों का उपदेश था- खाओ, पीओ और मौज उड़ावो। इन मीठे वचनों के कारण भी 'चार्वाक' नाम पड़ना कुछ आश्चर्यजनक नहीं है।
लोकायत
इस मत का नाम 'लोकायत' भी था और इस नाम से ही यह दर्शन बाल्मीकीय रामायण में (अयोध्या काण्ड, अध्याय १०२) निर्दिष्ट किया गया है। 'लोकायत' के ज्ञाता लोग 'लोकायतिक' कहे गये हैं, जो अपने को बड़ा ही पण्डित समझते हैं, परन्तु जो बाल-बुद्धि के होते हैं और अनर्थ करने में ही दक्ष होते हैं। ये धर्मशास्त्र का निरादर कर अपनी तार्किक बुद्धि से निरर्थक बातें कहते हैं ।
कचिन्न लोकायतिकान् ब्राह्मणांस्तात सेवसे ।
अनर्थकुशला ह्येते बालाः पण्डितमानिनः ।।
धर्मशास्त्रेषु मुख्येषु विद्यमानेषु दुर्बुधाः ।
बुद्धिमान्वीक्षिकी प्राप्य निरर्थ प्रवदन्ति ते ॥
-अयोध्याकाण्ड, १०२१३८-३६
'लोकायत' का अर्थ है- लोक में आयत या व्याप्त सिद्धान्त अर्थात् यह सिद्धान्त जो लोक में अत्यन्त प्रसिद्ध है, परन्तु तार्किक विचार से रहित है, वह 'लोकायत' है। इसके आद्य प्रवर्तक 'वृहस्पति' नामक कोई आचार्य थे और उनके नाम पर यह दर्शन 'बार्हस्पत्य दर्शन' के नाम से भी अभिहित किया जाता है। इन सब अभिधानों में 'चार्वाक' नाम ही इसका अत्यन्त प्रख्यात है।
चार्वाक दर्शन के ग्रन्थ
चार्वाक-मत की जानकारी के लिए अनेक दर्शन के ग्रन्थों में सामग्री उपलब्ध होती है। ब्राह्मण, बौद्ध और जैन दार्शनिकों ने अपने सिद्धान्तों के निर्णय करने से पूर्व चार्वाक मत का निर्देश कर खण्डन किया है। इन्हीं उल्लेखों के आधार पर इस मत का स्वरूप तथा सिद्धान्त खड़ा किया जा सकता है। ब्रह्मसूत्र शांकर भाष्य (३।३।५३-५४ सूत्रों पर) कमलशीत कृत 'तत्त्वसंग्रह-पंजिका', 'विवरण-प्रमेय संग्रह', 'न्यायमंजरी', "सर्वसिद्धान्त संग्रह', 'सर्वदर्शन-संग्रह' (प्रथम परिच्छेद), 'नैषधीय चरित' (१७ वाँ सर्ग) आदि ग्रन्थों के अध्ययन से चार्वाकों के सिद्धान्त निःसन्देह जाने जाते हैं। इन वर्णनों में एक ही त्रुटि है कि ये ग्रन्थ चार्वाक सिद्धान्त का प्रतिपादन पूर्वपक्ष की दृष्टि से करते हैं। सम्भवतः भट्ट जयराशि विरचित 'तत्त्वोपप्लवसिंह' ही प्रथम ग्रन्थ है, जिममें इस मत का सैद्धान्तिक विवेचन उत्तर पक्ष के रूप में किया गया है। इस नास्तिक मत के संस्थापक 'वृहस्पति' के द्वारा रचित कतिपय सूत्र भी पूर्वोक्त ग्रन्थों में तथा अन्यत्र भी उद्धृत किये गए हैं। ये सूत्र संख्या में बीस से अधिक नहीं हैं, परन्तु इनमें चार्वाकों के मूल सिद्धान्त संक्षेप में बड़ी सुन्दरता से प्रतिपादित किये गए हैं। ये सूत्र 'बार्हस्पत्य सूत्र' के नाम से प्रख्यात हैं। इन सूत्रों के अनुशीलन से भी इस दर्शन के सिद्धान्तों की रूपरेखा सहज में खड़ी की जा सकती है। यहाँ इन सूत्रों की व्याख्या प्रस्तुत की जा रही है, जिससे पाठक चार्वाक-दर्शन के तथ्यों को उनके मान्य आचार्य के मूल शब्दों में ही सरलता से समझ जायें ।
चार्वाक-दर्शन: सूत्र सहित विश्लेषण
1. तत्त्व-मीमांमा
क) अथातः तत्त्वं व्याख्यास्यामः ।
अब इसलिए तत्त्वों की व्याख्या हम करेंगे ।
व्याख्या- 'वार्हस्पत्य' सूत्रों में यह पहला सूत्र है, जिसमें तत्त्वों को व्याख्या करने की प्रतिज्ञा की गई है। 'अतः' पद प्रयोजन का सूचक है अर्थात् दुःखों से छुटकारा पाने के लिए तत्त्वों की जानकारी आवश्यक होती है। इसी अभिप्राय से तत्त्वों का व्याख्यान यहाँ किया जा रहा है।
ख) पृथिव्यापस्तेजोवायुरिति तत्त्वानि ।
तत्त्व संख्या में चार ही होते हैं – (क) पृथ्वी, (ख) जल, (ग) तेज तथा (घ) वायु ।
व्याख्या- इन चार तत्त्वों का उपादान ग्रहण कर यह जगत्, हमारा शरीर, समस्त भौतिक पदार्थों का निर्माण किया गया है। बौद्धों के समान चार्वाक भी 'आकाश' को पदार्थ नहीं मानता। आवरणाभाव मात्र होने से आकाश शून्य ही है, ये ही चारों पदार्थ अपनी आणविक अवस्था में जगत् के मूल कारण हैं। प्रश्न यह है कि यह सृष्टि होती कैसे है? चार्वाक न तो ईश्वर को मानता है, जो जगत् के निर्माण का कार्य करता है (न्याय मत में), और न वह 'अदृष्ट' ही मानता है, जिसके कारण परमाणुओं में कम्पन तथा परस्पर-मिलन की क्रिया सम्पन्न होती है (वैशेषिक मत में) । उसकी मान्यता यह है कि इन परमाणुओं में अकस्मात् सम्मिलित होने की क्षमता उत्पन्न हो जाती है, जिससे वे आपस मे मिलकर इस विराट विश्व के निर्माण में सफल होते हैं। ये परमाणु क्यों मिलते हैं? कैसे मिलते है ? इन प्रश्नों का उत्तर एक दुरूह पहेली है, जिसे कोई भी नहीं जानता ।
आकाश को चार्वाक लोग 'भूतवैरल्य' के अतिरिक्त और कुछ नहीं मानते । 'भूतवैरल्य' का अर्थ है भौतिक कणों की विरलता। कहने का तात्पर्य है कि जहाँ भौतिक कणों का घनीभाव नही होता है वहाँ आकाश की प्रतीति नहीं होती । आकाश के विषय में दो वस्तुएँ प्रतीत होती हैं एक भौतिक कणों का अभाव और दूसरा उनका बैरल्य अर्थात् विरलता । पहला मत इसलिए ठीक नहीं है कि भौतिक कणों का अभाव मानना कथमपि युक्ति युक्त नहीं प्रतीत होता । फलतः कणों की विरलता मानना ही उचित प्रतीत होता है। चार्वाकों के भीतर एक सम्प्रदाय ऐसा भी बतलाया जाता है जो अन्य दार्शनिकों के समान आकाश को भी एक विशिष्ट तत्व स्वीकार करता था। परन्तु इस मत पर विद्वानों को आस्था नहीं। इसलिए चार्वाक का अपना विशिष्ट मत यही है कि मूल जगत् के चार ही तत्त्व वर्तमान है। इसी प्रकार अन्य दार्शनिकों के द्वारा मान्यता दिये गये दिक्, काल, मन आदि पदार्थों की स्वतन्त्र सत्ता चार्वाकों को मान्य नहीं है। चार्वाकों का इस सिद्धान्त पर आग्रह विशेष रूप से जागरूक है।
ग) तत्समुदाये शरीरेन्द्रिय-विषय-संज्ञा ।
(इन्हीं तत्त्वों के समुदाय में शरीर, इन्द्रिय और विपय ऐसा नामकरण किया जाता है)।
व्याख्या-आशय यह है कि शरीर, इन्द्रिय (ज्ञानेन्द्रियतमा कमेन्द्रिय) तथा विषय (इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किये जानेवाले रूप, रस, स्पर्श, गन्ध तथा शब्द) - इनकी उत्पत्ति भूतचतुष्टय के संयोग से होती है। इन भूतों के अणु एक दूसरे के साथ मिलकर इन वस्तुओं का निर्माण करते हैं। इनमें संयोजन या सम्मिश्रण को मात्रा भिन्न-भिन्न होती है और इसीलिए इन उत्पन्न वस्तुओं के गुणों में अन्तर मिलता है।
ड़) तेभ्यश्चैतन्यम्
(इन्हीसे, पूर्वोक्त चारों पदार्थों से, चैतन्य उत्पन्न होता है)।
व्याख्या- हमारे शरीर में पृथ्वी, जल आदि पदार्थों के अतिरिक्त 'चैतन्य' भी विद्यमान है। हम चेतन हैं। वस्तुओं का हम अपनी इन्द्रियों से बोघ इसी कारण कर सकते है कि हम चेतन हैं। यह समस्या चार्वाकों के सामने थी 'चैतन्य' का उदय क्योंकर होता है? पृथ्वी आदि चारों पदार्थों के अणु तो जड़ है। इन जड़ पदार्थों से चैतन्य का उदय शरीर में किस प्रकार होता है। इसके उत्तर में वृहस्पति का कथन है कि 'चैतन्य' कोई नवीन तथा स्वतन्त्र वस्तु नहीं है। प्रत्युत इन्हीं चारों तत्त्वों के किसी विशेष मिश्रण से या संघटन से चैतन्य आप-से-आप उत्पन्न हो जाता है। इस विषय में चार्वाक अगले सूत्र के लौकिक दृष्टान्त प्रस्तुत करता है।
च) किण्वादिभ्यो मदशक्तिवत् विज्ञानम् (पाठान्तर चैतन्यम्) ( किण्व आदिकों के द्वारा मदशक्ति के समान विज्ञान या चैतन्य उत्पन्न होता है)।
व्याख्या- 'किण्व' किसी पौधे का बीज होता था, जिसका उपयोग प्राचीन काल में शराब बनाने के लिए किया जाता था। 'किण्व' के डालने से वस्तु शराब के रूप में बदल जाती थी। उसमें पागल बनाने की शक्ति, मतवाला बनाने की क्षमता आ जाती थी। मदशक्ति एक नई वस्तु होती है, जो स्वतः उत्पन्न हो जाती है। आदि पद से ताम्बूल का दृष्टान्त समझना चाहिए। चूना, खैर, सुपारी, पान-ताम्बूल के विश्लेषण करने पर ये ही तो नई वस्तुएँ प्रकट होती हैं। पान के खाने से मुंह में लाली उत्पन्न हो जाती है। यह लाली आई कहाँ से ? यह तो सफेद चूने में धूसर रंगवाले खैर (कत्था) में, न सुपारी में और न हरे पान के पत्ते में है। व्यवहार यही कहता है कि इन चारों वस्तुओं के विशिष्ट मिश्रण से ही लाली आप-से-आप पैदा हो जाती है। इन चारों का मिश्रण एक विशिष्ट मात्रा में होना चाहिए, लालिमा स्वतः उत्पन्न हो जायगी। चैतन्य के उदय की भी यही दशा है। पृथ्वी, जल, तेज तथा वायु - इन चारों तत्त्वों को एक साथ एक विशिष्ट मात्रा में संगठित करने पर शरीर में चैतन्य का उदय स्वतः विना किसी वाह्य साधन के हो जाता है। ताम्बूल का दृष्टान्त शंकराचार्य ने भी अपने 'सर्व-सिद्धान्त-संग्रह' (२१७) में चार्वाक मत की व्याख्या में दिया है-
जडभूतविकारेषु चैतन्यं यत्तु दृश्यते ।
ताम्बूल-पूग-चूर्णानां योगाद् रराग इवोत्थितम् ।।
छ) भूतान्येव चेतयन्ते ।
अर्थात् ऊपर वर्णित चारों भूत ही चैतन्य उत्पन्न करते है। 'चैतन्य' कोई पृथक् सिद्ध वस्तु नहीं, प्रत्युत तत्त्वों का ही एक विकार है।
ज) चैतन्यविशिष्टः कायः पुरुषः ।
इस सूत्र में 'आत्मा' का चार्वाकी लक्षण दिया गया है। चेतनता से युक्त स्थूल शरीर ही पुरुष या आत्मा है। चार्वाकों का यह सूत्र बड़ा ही प्रख्यात, बहुशः उल्लिखित तथा तथ्य-प्रतिपादक है। चार्वाक लोग शरीर से अतिरिक्त 'आत्मा' नामक कोई पृथक् तत्त्व नहीं मानते। आत्मा चेतन होता है, इसे तो वे मानते हैं, परन्तु इस चैतन्य की अभिव्यक्ति शरीर के माध्यम से ही होती है अर्थात् शरीर को छोड़कर क्या चैतन्य कहीं अन्यत्र देखा जा सकता है ? कहीं नहीं। ऐसी दशा में चैतन्य से विशिष्ट यह भौतिक पिण्ड, स्थूल शरीर ही उनकी दृष्टि में 'आत्मा' है। यह भौतिकवाद का मौलिक सिद्धान्त है और इसीके ऊपर चार्वाकों की आचार-मीमांसा बाधित है।
झ) जलबुद्बुद्वज्जीवाः ।
जल के ऊपर जिस प्रकार बुलबुले उत्पन्न होते है, एक क्षण तक टिकते हैं और फिर उसी जल में विलीन हो जाते है, जीवों की भी यही दशा है। जीव अनित्य होता है। कतिपय क्षणों तक वह टिकता है और फिर वह यहीं विलीन हो जाता है। जीव को नित्य माननेवाले दार्शनिकों के मत पर यह कठोर दण्ड प्रहार है। दूसरे दार्शनिक लोग जीव को नित्य मानकर उसे सुख पहुँचाने के लिए पुण्य अर्जन करनेवाले सत्वों का उपदेश देते हैं, परन्तु चार्वाकों की दृष्टि में यह एकदम असंगत बात है। क्षणिक जीव के कल्याण के लिए दूसरे लोक में सुख देनेवाले पुण्यसंचार की आवश्यकता ही क्यों है ? यह पानी के बुलबुलों की तरह यहीं आता और चला जाता है।
ञ) परलोकिनोऽभावात् परलोकाभावः ।
(परलोक में रहनेवाले के अभाव में परलोक का ही अभाव है)।
व्याख्या- यह सूत्र चार्वाकों के परलोक विषयक तथ्य का प्रतिपादक है। नियम यह है कि रहनेवाले की सत्ता होने पर ही कोई लोक माना जा सकता है। परलोक में यदि कोई जानेवाला तथा वहाँ निवास करनेवाला हो तो उस लोक की सत्ता मानी जाय। दूसरे दार्शनिक मानते हैं कि देहपात होने पर नित्य आत्मा अपने किये गए कर्मो के फल भोगने के लिए परलोक में जाता है। वहीं वह सत्कर्मों से पुण्य भोगता है अथवा दुष्कर्मो के पाप से क्लेश भोगता है। चार्वाक ऐसा नहीं मानता। आत्मा ही क्या है ? चैतन्य-विशिष्ट यह स्थूल देह ही तो आत्मा है। फलतः इस देह के नाश हो जाने पर आत्मा का भी नाश सिद्ध हो जाता है। जब आत्मा ही नहीं है, तब परलोक जायगा ही कौन ? यदि नहीं, तो वहाँ रहवेवाला ही कौन है ? फलतः परलोक का अस्तित्व ही नहीं है। यह केवल लोगों को भ्रम में डालकर ठगने का एक डोंग ही है।
ट) मरणमेव अपवर्गः ।
मरण ही मोक्ष है।
व्याख्या- यह सूत्र चार्वाकों के मोक्ष सिद्धान्त का द्योतक है। मोक्ष का अर्थ है मुक्ति। किससे? दुखों से? दुःखों का ज्ञान हमें शरीर के द्वारा ही होता है। पैर में कांटे चुभते हैं। कलम बनाते समय चाकू से हमारी अंगुली फट जाती है; पीठ में जहरीले कीड़े के काटने से फोड़ा पैदा होता है, जो हमें दर्द के मारे बेचैन किया करता है। चिन्ता के कारण हमें नींद नहीं नाती और करवटें बदलते रातें बीत जाती है यह हमारा प्रतिदिन का अनुभव है। इसलिए शरीर को 'भोगायतन' (भोगों का घर) कहते है। फल यह है कि शरीर के होने तक ही कष्ट रहते हैं। शरीर का नाश हो जाने पर यह आप-से-आप नष्ट हो जाते है। इसलिए चार्वाक के अनुसार मुक्ति मरण का ही दूसरा नाम है। मरण होते ही, शरीर छूटते ही, सदा के लिए दुःखों से सम्बन्ध छूट जाता है और यही तो मुक्ति है।
ठ) धूर्तप्रलापत्रयी स्वर्गोत्पादकत्वेन विशेषाभावात् ।
स्वर्गसुख को उत्पन्न वतलाने वाले तीनों वेद (ऋग्वेद, यजुर्वेद तया सामवेद) धूर्तों का वकवास है, क्योंकि स्वर्ग का सुख संसार में होनेवाले सुख की अपेक्षा कोई विशिष्टता नहीं रखता ।
व्याख्या- चार्वाक स्वर्ग को नहीं मानते। स्वर्ग की सत्ता ही असिद्ध है। क्यों ? स्वर्ग की परिभाषा अन्यत्र दी गई है-
यन्न दुःखेन संभिन्नं न च ग्रस्तमनन्तरम् ।
""तत् सुखं स्वः पदास्पदम् ।।
इसका अर्थ है कि जिस सुख में दुःख का थोड़ा भी मिश्रण नहीं रहता अर्थात् जो अमिश्रित सौख्य ही रहता है और आगे चलकर जो दुःख के द्वारा दबाया न जा सके और जो बहुत दिनों तक स्थिर तथा टिकनेवाला होता है. वह 'स्वर्ग' के नाम से प्रसिद्ध है। इस पर चार्वाक का कहना है कि स्वर्ग-सुख लौकिक सुख की अपेक्षा कथमपि विशिष्ट या बड़ा नहीं है। दोनों की एक ही कोटि या रीति है। विशिष्ट पदार्थ में प्राणी की अभिलाषा होती है। सामान्य में नहीं । फलतः लोक-सामान्य होने से स्वर्ग की सत्ता मिथ्या है, झूठी है।
कौन स्वर्ग का अस्तित्व बतलाता है? किसने स्वर्ग को देखा है? उस लोक से लौटकर इसकी खबर देने के लिए भला कोई लौटकर आया है कि स्वर्ग में विश्वास हम करें? यह तो गप्प है श्रोत्रियों का ।
ड) वेद धूर्तों का प्रलाप है
व्याख्या- वेद के विषय में चार्वाकों की यह बड़ी ही प्रख्यात मान्यता है। स्वर्ग के निराकरण का पहला कारण तो ऊपर दिखलाया ही गया है कि स्वर्गीय सुख तथा पार्थिव मुख में किसी प्रकार का अन्तर नहीं है। दोनों की कोटि एक ही है। दूसरा कारण यह है कि स्वर्ग का प्रत्यक्ष किसी इन्द्रिय के द्वारा नहीं किया जा सकता। वेद का ही वचन है स्वर्गकामो यजेत् अर्थात् स्वर्ग की कामना करनेवाला पुरुष यज्ञ करे। यज्ञ साधन है और स्वर्ग अस्तित्व में विश्वास करना न्याय है। वेद को आस्तिक तत्त्वज्ञानी ईश्वर की साक्षात् वाणी मानता है, जिसमें सन्देह करने की, ननु नच करने की, तनिक भी गुंजाइश नहीं है। ऋषियों के प्रातिभ चक्षु के द्वारा उन्मीलित तत्त्वों का समूह ही वेद पदवाच्य है-
प्रत्यक्षेणानुमित्या वा यस्तूपायो न बुध्यते।
एनं विदन्ति वेदेन तस्माद् वेदस्य वेदता ।।
अर्थात् प्रत्यक्ष या अनुमति के द्वारा जिस अलौकिक उपाय का ज्ञान हमें नहीं, कथमपि नही, हो सकता, उस उपाय को हम वेद के द्वारा जानते है। यही तो वेद का वेदत्व है अलौकिक उपाय का बोधन । वेद का स्वतः प्रामाण्य है यह मत चार्वाकों को अभीष्ट नहीं। वह वेद को धूर्तों का प्रलाप मानता है, अर्थात् संसार को ठगने के लिए ही कतिपय व्यक्तियों ने इन ग्रन्थों का प्रणयन किया है। इस प्रकार जब वेद ही धूतों का बकवास है, तब उनके द्वारा निर्दिष्ट यज्ञ, उपवास, व्रत, तप, स्वर्ग, नरक आदि-आदि अलौकिक बातें स्वयं ही वालू की भीत के समान भूमिसात् हो जाती हैं।
प्रमाणमीमांसा
क) प्रत्यक्षमेव प्रमाणम् ।
प्रत्यक्ष ही एकमात्र प्रमाण है। इस सूत्र में 'एव' पद दृढ़ता और नव-धारण के निमित्त है। चार्वाक दृष्टि में प्रत्यक्ष ही अकेला प्रमाण है। अन्य प्रमाण जैसे अनुमान, उपमान, शब्द आदि की सत्ता नहीं है। भौतिकवादी चार्वाक के मूल सिद्धान्त के अनुकूल ही यह मत है कि इन्द्रियगोचरता ही सत्यता की कसौटी है। इन्द्रियों के द्वारा जो कुछ भी गम्य है, बोध्य है, ज्ञेय है वही सच्चा है, प्रामाणिक है, मान्य है तथा विश्वासार्ह है।
अनुमान कदापि विश्वास योग्य नहीं है। अनुमाव में होता है क्या ? दृष्ट तपा अनुभूत नियम के आधार पर किसी बदृष्ट तथा अननुभूत वस्तु की सत्ता का हम अनुमान लगाते हैं। पाकशाला का हमारा दैनंदिन अनु-भव है कि धूम को देखकर हम आग के होने का बनुमान लगाते है। यह हमारा दृष्ट ज्ञान है। इसीके आधार पर हम किसी पर्वत में भी अग्नि की सत्ता का अनुमान करते हैं, जब हम उससे एक वविच्छित्त धूम-रेखा को निकलते हुए पाते है। इसी में चार्वाक को शंका है। 'जहाँ धूम है, वहाँ अग्नि हैं- इस साहचर्य नियम (या व्याप्ति) में हम पक्का विश्वास कैसे करें । हम विशिष्ट अग्नि को विशिष्ट धूम के साथ सम्बद्ध अनेक स्थलों पर अवश्य पाते हैं, परन्तु इतने से ही हम सामान्य अग्नि को सामान्य धूम के साथ सम्बद्ध वतलाने के अधिकारी नहीं हैं। अनेक दृष्ट स्थलों पर, लाखों उदाहरणों में सही, धूम और अग्नि का साहचर्य नियम है, परन्तु इसका हमारे पास क्या प्रमाण है कि आज भी वर्तमान काल में भी, सब स्थलों पर यह नियम वैसा ही रहेगा। यह तो अंधेरे में कूदने से अधिक महत्त्व नहीं रखता । अनुमान पर आश्रित होने से 'उपमान' भी प्रसिद्ध है। 'धूर्त प्रलाप' होने से वेद भी श्रद्धा और विश्वास का पात्र नहीं है। इसलिए प्रत्यक्ष ही केवल प्रमाण है और इस प्रत्यक्ष के द्वारा अनुभूत सत्य ही एकमात्र सत्य है।
शब्द की असिद्धि
वेद को न माननेवाले जैन और वौद्ध दर्शनों में 'शब्द' प्रमाण माना जाता है। तीर्थकर के वचन समूह 'अंग' के नाम से प्रख्यात हैं और इनकी मान्यता जैन समाज में सर्वतः सिद्ध है, विशेपतः श्वेताम्बर मत में। बौद्ध-दर्शन में 'त्रिपिटक' सुत्तपिटक, विनयपिटक तथा अभिधम्म पिटक -बुद्ध-वचन होने से मान्य, सत्य तथा प्रमाणभूत माने जाते है। परन्तु चार्वाक 'शब्द' को प्रमाण नहीं मानता। 'शब्द' का लक्षण है- आप्तोपदेशः शब्दः (हितोपदेष्टा आप्त व्यक्ति का उपदेश शब्द कहलाता है।) इस लक्षण के विषय में चार्वाक का कथन है कि यह लक्षण ठीक होने पर भी 'शब्द' की स्वतन्त्र मत्ता सिद्ध नहीं होती, कारण कि आप्त पुरुष के वचनों को सुनने से जो अर्थ-ज्ञान होता है, वह तो प्रत्यक्ष ही हुआ, उसके लिए एक स्वतन्त्र प्रमाण की कल्पना नितान्त असिद्ध है। रही वेद की प्रामाणिकता स्वतन्त्र रूप से। यह तो उसे मान्य नहीं है। अनर्थक शब्दों के प्रयोग करने से. पर-स्पर विरोधी तया प्रणित कार्यकलाप (जैसे यज्ञ, अश्वमेध आदि) के प्रति पावन से तथा अप्रत्यक्ष पदार्थों (जैसे स्वर्ग नरक नादि की कल्पना करने से वेद प्रमाण के बाहर है। उत्तर के सूत्र में 'धूर्तप्रलापस्त्रयी' के समान ही चार्वाकों का यह क्लीक 'सर्वदर्शनसंग्रह' में उदधत किया गया है
त्रयो वेदस्य कर्तारी भण्डधूर्तनिशाचराः ।
जर्फरी तुर्फरीत्यादि पण्डितानां वचः स्मृतम् ।।
आचार-मीमांसा
अब तक चार्वाकों की पदार्थ-मीमांसा और प्रमाण-मीमांसा का विवेचन किया गया है। आचार-मीमांसा के विषय में इनके दो सूत्र मिलते है-
(क) कामः एव एकः पुरुषार्थः ।
(ख) तदुपयोगित्वात् अर्थोपि अर्थकामौ पुरुषाथों ।
[ 'काम' ही प्रधान पुरुषार्थ है और उसमें उपयोगी होने के कारण 'अर्थ' भी पुरुषार्थ माना जाता है। इसीलिए चार्वाकों के मत में दो ही पुरुषार्थ हैं-अर्थ कौर काम ।]
व्याख्या-
इन दोनों सूत्रों में चार्वाकों की आचार-विषयक समीक्षा प्रस्तुत की गई है। अन्य दर्शनों में पुरुषों के द्वारा प्राप्य तथा अभिलषणीय चार वस्तुएँ बतलाई गई है, जो सामान्यतः 'पुरुषार्थ' के नाम से अभिहित की जाती हैं। ये चारों पुरुषार्थ हैं धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष और इन्हीं की प्राप्ति के लिए मानव मात्र अश्रान्त परिश्रम किया करता है। मीमांसकों की दृष्टि में वेद के द्वारा प्रतिपादित तथा इष्ट अर्थ को देनेवाला अनुष्ठान ही 'धर्म' कहलाता है (मोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः) जैसे यज्ञयाग, व्रत, उपवास आदि । रुपया-पैसा, धन-दौलत आदि का नाम है अर्थ । 'काम' से तात्पर्य इच्छा, अभिलाषा, सुख-सौख्य स्त्री सम्भोगजन्य सुख आदि। संसार के प्रपंच से तथा दुःखों से छुटकारा पाना मोक्ष या मुक्ति है।
चार्वाक का कथन है कि पुरुषार्थ चार न होकर एक ही है। अधिक-से-अधिक दो। मुख्य पुरुषार्थ है काम। चार्वाक मत में भौतिक सुख की प्राप्ति ही जीवन का एकमात्र लक्ष्य है। इस सुख की प्राप्ति विना धन दौलत के हो नहीं सकती। इसलिए 'अर्थ' भी लगातार पुरुषार्थ है। 'काम' की ही मुख्यता है उपयोगी होने से कार्यसाधक होने से 'अर्थ' की गौणता है, परन्तु फिर भी दोनों ही पुरुषार्थ हैं। चार्वाक की मान्यता का मन्त्र इस कूटकर भरा हुआ है-
यावज्जीवेत् सुखं जीवेत्, ऋणं कृत्वा वृत्तं पिवेत् ।
भस्मीभूतस्य देहस्य, पुनरागमनं कुतः ॥
चार्वाकी शिक्षा है- जब तक जीओ, खूब मौज से जीओ । यदि पैसा पास न हो तो किसी धनी से ऋण अपने दिल में तनिक भी न रखो। संसार में आना थोड़े ही होता है। लेकर घी पिओ। ऋण चुकाने का डर भस्म हो जानेवाले देह का फिर इस अतः 'खायो, पीओ, मौज उड़ाओ'-यही जीवन का चरम लक्ष्य है। इस सिद्धान्त को हम कह सकते हैं- आधि-भौतिक सुखवाद ।
इस श्लोक के तात्पर्य में प्रवेश करने पर हम इसे चार्वाकों की 'चतुः-सूत्री' कह सकते हैं। इस श्लोक के चारों पाद चार सूत्रों का काम करते है और चार्वाकों के मौलिक तत्त्वों का निर्धारण करते है-
पहला पाद – जीवन का लक्ष्य सुखमय जीवन-यापन ।
दूसरा पाद – काम की सिद्धि अर्थमूलक ।
तीसरा पाद – मोक्ष की कल्पना
चौथा पाद – आत्मा की अमरता देह का भस्म होना (मरण) । नितान्त असिद्ध । देह के पुनः आगमन के अभाव में पुनर्जन्म का अभाव ।
गम्भीर तथा मूलभूत सिद्धान्तों का प्रतिपादक होने से यह पद्य चार्वाक-दर्शन की 'चतुःसूत्री' को एकत्र प्रस्तुत करता है। चार्वाक लोग स्वस्थ तया सौख्यमय जीवन के पक्षपाती थे। वे नहीं चाहते थे कि यह सुन्दर जीवन आध्यात्मिक सुख पाने की मृगमरीचिका में व्यर्थ बिताया जाय। जीवन के ऐहिक पक्ष के वे प्रबल प्रशंसक थे। सर्वदा 'हाय-हाय' करते रहना उनके विचार से कायरता का सूचक है, बीरता का नहीं। विपत्तियों से जमकर संघर्ष किया जाय, उन्हें जीता जाय तथा जीवन को सरस-सुन्दर बनाया, रोचक रुचिकर रखा जाय यही उनकी व्यावहारिक दृष्टि भी आध्यात्मवादियों की खिल्ली उड़ाने से नहीं चूकते, जो अध्यात्म सुख को इसलिए त्याज्य मानते है कि वह दुःखों से संस्पृष्ट रहता है। भला वह कौन मूर्ख होगा, जो मोती के समान चमकनेवाले चावल के दानों को इसलिए दूर फेंकता है कि उनको भूसी का एक हल्का छिलका छिपाये रहता है ? दुःख से मिश्रित लौकिक सुखों के प्रति चार्वाकों का यह दृष्टिकोण उपेक्षणीय नहीं माना जा सकता-
त्याज्यं सुखं विषयसंगमजन्म पुंसां
दुःखोपस्सृष्टमिति मूर्खविचारणैषा ।
ब्रीहीन् जिहासति सितोत्तमतण्डुलाढ्यान् ।
को नाम भोस्तुषकणोपहितान् हितार्थी ।।
- 'सर्वदर्शन सग्रह' में उद्धृत प्राचीन श्लोक
समाज व्यवस्था
चार्वाकों की समाज व्यवस्था या समाज संगठन भी अपनी विशिष्टिता लिये हुए है। इस विषय में उनके एक-दो सूत्र मिलते है-
क) दण्डनीतिरेव विद्या । अत्र वार्ता अन्तर्भवत्ति ।।
[ दण्डनीति ही विद्या है और इसके भीतर वार्ता का अन्तर्भाव होता है।]
व्याख्या – चार्वाक की दृष्टि में लोक-व्यवहार के निर्वाह करने के कारण दो ही विद्याएँ है दण्डनीति और वार्ता। आजकल की परिभाषा में 'दण्डनीति' से तात्पर्य राजनीति से है और 'वार्ता' से तात्पर्य अर्थशास्त्र है, जिसके भीतर कृषि, वाणिज्य, व्यापार आदि का समावेश किया जा सकता है। उन दोनों में भी 'दण्डनीति' की ही प्रबलता तथा मुख्यता है। 'वार्ता' का तो उसमें अन्तर्भाव अभीष्ट है। 'वार्ता दण्डनीतिश्चेति बार्हस्पत्त्याः । कौटिल्य ने भी 'अर्थशास्त्र' में इस मत के माननेवाले 'वृहस्पति' के अनुयायियों का उल्लेख किया है, जो चार्वाक-मत के आदि प्रवर्तक 'बृहस्पति' से भिन्न नहीं प्रतीत होते ।
चार्वाकमत में ये ही विद्याएँ हैं जिनमें लोकव्यवहार तथा समाज को सुव्यवस्थित बनाने की क्षमता विद्यमान है। 'वार्ता' प्राणियों के जीवन निर्वाह, अर्थ-वृद्धि, व्यापार-वाणिज्य आदि के लिए नितान्त उपयोगी है। कृषि तथा वाणिज्य भारतीय समाज के कल्याण करनेवाले हैं, क्योंकि इनके अभाव में न तो मनुष्यों के भोजन की व्यवस्था की जा सकती है और न उनके संचित धन में ही वृद्धि की जा सकती है। दण्डनीति आजकल के 'लॉ' (कानून) तथा 'आर्डर' (व्यवस्था) का सूचक है। मनु के समान चार्वाक का भी मत है कि दण्ड ही प्रजाओं का पालन करता है; दण्ड के ही भय से प्रजा अपने कार्यों का पालन करती है; दण्ड का भय यदि उठा दिया जाय तो प्रजा उच्छृंखल बन जाय और मनमाने रास्तों पर चलकर एक-दूसरे का जीना कठिन कर दे। महाभारत तया स्मृतिग्रंथों में मानव-समाज के व्यवस्थापन के निमित्त दण्ड के आविर्भाव का जो वर्णन मिलता है, वह चार्वाक को भी मान्य है।
ख) निग्रहानुग्रहकर्ता राजा ईश्वरः ।
राजा ही ईश्वर है; ऐसी दृढ़ मान्यता चार्वाक-मत की है। चार्वाक निरीश्वरवादी है। वह ईश्वर को नहीं मानता, क्योकि ईश्वर की सत्ता प्रत्यक्ष के द्वारा कथमपि सिद्ध नहीं की जा सकती। मानव की समस्त इन्द्रियाँ ईश्वर के जनाने में असमर्थ है। न हमारी आँखें उसे देख सकती है, न हमारे हाथ उसे छू सकते हैं। ईश्वर की सत्ता में वैदिक दर्शन अनुमान तथा शब्द-प्रमाण का आश्रय लेता है। चार्वाक तो इन प्रमाणों में विश्वास ही नहीं करताः फलतः इनके द्वारा सिद्ध किया गया पदार्थ आकाश कुसुम के समान नितान्त निराधार और असत्य है। तो क्या ईश्वर है ही नहीं ?
चार्वाक का उत्तर है कि ईश्वर अवश्य है। निग्रह तथा अनुग्रह करने में समर्थ व्यक्ति की ही ईश्वर संज्ञा है। जो प्रसन्न होने पर अपनी अनुकम्पा तथा प्रसाद की वर्षा करे और भ्रष्ट होने पर दण्ड का प्रहार करे, यही तो ईमान है। और यह ईश्वर कोई अलौकिक सत्ता न होकर नितान्त लौकिक प्रत्यक्ष पदार्थ है और यह है राजा, प्रजा के ऊपर शासन करनेवाला, उन्हें उन्मार्ग से हटाकर सन्मार्ग पर लानेवाला, अपराधियों को दण्ड देनेवाला, शोभन कार्य करनेवालों पर अनुग्रह करनेवाला। ऐसे प्रत्यक्ष शासक के अतिरिक्त ईश्वर कोई है ही नहीं। उसकी सत्ता नितान्त असिद्ध है।
इन दोनों सूत्रों के आधार पर हम 'चार्वाकी समाज' की रूपरेखा भली-भाँति समझ पाते हैं। चार्वाक आधिभौतिक सुखवाद का पक्षपाती अवश्य था, उच्छ्ङ्खल जीवन के प्रति बड़ी कड़ी दृष्टि थी । समाज के भीतर रहकर ही व्यक्ति व्यवस्थित तथा मर्यादित जीवन बिता सकता है, समाज से बहिर्मुख होने पर नहीं। इसलिए समाज को दण्ड के द्वारा शासित करनेवाला शासक राजा उसकी दृष्टि में 'ईश्वर' है। दण्ड नीति तथा वार्ता-ये दोनों विद्याएँ मानव समाज के पोषण तथा परि-वृंहण के लिए उपादेय है। इसलिए चार्वाक इन दोनों को ही ज्ञातव्य विद्या की कोटि में रखता है। इस दर्शन के मौलिक गुणो की समीक्षा के समय 'समाज-व्यवस्था' पर दृढ़ आग्रह कथमपि भुलाया नहीं जा सकता । यह चार्वाकों को पूर्णतया 'व्यावहारिक तत्त्व ज्ञानी' सिद्ध कर रहा है।
ग) लौकिको मार्गोऽनुसर्तव्यः ।
लौकिक मार्ग का अनुसरण करना चाहिए ।
व्याख्या — यह सूत्र इस मत की मौलिक विचारधारा का सूचक है। 'लौकिक' शब्द का अर्थ है लोकोपकारी, बहुत लोगों का हित करनेवाला । चार्वाक की दृष्टि में वही मार्ग अनुसरण करने योग्य है, जो लोगों का उपकारक हो, प्राणियों का कल्याण और मंगल का साधक हो। दूसरे शब्दों में जो 'बहुजन हिताय' तथा 'बहुजन सुखाय' हो, उसी मार्ग पर चलना मानव का कर्तव्य होना चाहिए। 'लौकिक' का दूसरा अर्थ 'ऐहिक' भी है। फलतः इस सूत्र का आशय है कि परलोक की ओर ले जानेवाला मार्ग सर्वदा उपेक्षणीय है, क्योंकि परलोक नामक वस्तु का सर्वथा अभाव है। यज्ञ-याग, तप, व्रत आदि पारलौकिक साधनों की चार्वाक सर्वथा उपेक्षा करता है।
चार्वाक दर्शन का समीक्षण
चार्वाक-दर्शन के मूलभूत सिद्धान्तों का यहाँ ऊपर संक्षिप्त वर्णन किया गया है। इससे स्पष्ट है कि चार्वाक सब प्रकार से 'नास्तिक' है। न वह वेद को मानता है, न परलोक को, न ईश्वर को मानता है, न धर्म को। वह अर्थ और काम को ही पुरुषों के लिए उपादेय समझता है। यह प्रत्यक्षवादी दार्शनिक है, जो इन्द्रिय से अननुभूत पदार्थ को असत्य मानता है। भौतिक सुख का उपभोग ही मानव जीवन का लक्ष्य है और इसलिए पास में पैसा न रहने पर वह ऋण लेकर मौजी जीवन बिताने का उपदेश देता है। ये सब सिद्धान्त समाज में विप्लवकारी हैं और इसलिए सब दार्शनिकों ने जैन, बौद्ध और ब्राह्मण तत्त्व-ज्ञानियों ने - एक स्वर से इन सिद्धान्तों की भरपूर निन्दा की है। परन्तु एक बात की ओर ध्यान देना उचित है और यह है समाज-व्यवस्था पर चार्वाकों का सातिशय आग्रह। चार्वाकों के स्वरूप के विषय में अपने एक पूर्व कथन को यहाँ दोहराना में उचित समझता हूँ- "चार्वाक दर्शन को स्थापित करने वाले प्राचीन और भारतीय वैज्ञानिक हैं, जो 'तर्क' की कसौटी पर सत्य को कसते है। वे आधुनिक भौतिकवादियों की अपेक्षा संयमी हैं और संयत जीवन विताने के पक्षपाती है। इसलिए वे ऋण लेकर भी घी पीने का उपदेश देते है, शराब पीने का नहीं। सुन्दर समाज में रहकर ही प्राणी अपनी उन्नति कर सकता है, इस तथ्य की ओर इन्होंने खूब आग्रह दिखलाया । अतः उनके सिद्धान्तों का भी मूल्य है। वे एकदम निःसार नहीं हैं।"
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