दैत्यगुरु शुक्राचार्य: ऋषिपुत्र से असुरों के गुरु बनने की अद्भुत कथा, पौराणिक कथाएँ, भागवत दर्शन सूरज कृष्ण शास्त्री।
दैत्यगुरु शुक्राचार्य: ऋषिपुत्र से असुरों के गुरु बनने की अद्भुत कथा
शुक्राचार्य—एक ऐसा नाम जिसे देवता और असुर दोनों सम्मान से लेते हैं। नवग्रहों में प्रमुख "शुक्र" के रूप में प्रसिद्ध ये देवगुरु बृहस्पति के समकालीन थे और दैत्यों के आध्यात्मिक गुरु माने जाते हैं। किंतु एक ऋषिपुत्र होते हुए भी वे असुरों के मार्गदर्शक कैसे बने? उनके जीवन में ऐसा क्या घटित हुआ जिसने उन्हें भगवान विष्णु का विरोधी बना दिया? आइए इस रहस्यमयी कथा को विस्तार से समझते हैं।
भृगु ऋषि के पुत्र शुक्राचार्य
शुक्राचार्य महर्षि भृगु के पुत्र थे। भृगु ऋषि की दो पत्नियाँ थीं—
- ख्याति, जिनसे शुक्राचार्य का जन्म हुआ।
- दक्षप्रजापति की पुत्री, जिनसे च्यवन ऋषि हुए।
शुक्राचार्य का जन्म शुक्रवार को हुआ, इसलिए उनका नाम "शुक्र" पड़ा और ग्रहों में 'शुक्र ग्रह' के रूप में उनकी प्रतिष्ठा हुई।
शिक्षा और ईर्ष्या का जन्म
शुक्राचार्य को उनके पिता भृगु ने ब्रह्मर्षि अंगिरा ऋषि के पास अध्ययन के लिए भेजा, जहाँ उनके साथ देवगुरु बृहस्पति भी अध्ययन कर रहे थे।
शुक्राचार्य अत्यंत मेधावी थे, किंतु अंगिरा ऋषि अपने पुत्र बृहस्पति को अधिक प्राथमिकता देते थे। इससे शुक्राचार्य को लगा कि उनके साथ भेदभाव हो रहा है।
असंतोष के कारण वे वहाँ से चले गए और आगे की शिक्षा सनक, सनंदन, सनातन और सनत्कुमार से प्राप्त की। फिर उन्होंने गौतम ऋषि से भी ज्ञान अर्जित किया।
शुक्राचार्य की प्रतिभा विलक्षण थी, और वे बृहस्पति से भी अधिक शक्तिशाली बन गए। किंतु देवताओं ने बृहस्पति को अपना गुरु मान लिया, जिससे शुक्राचार्य के मन में ईर्ष्या उत्पन्न हुई।
दैत्यगुरु बनने का मार्ग
शुक्राचार्य देवताओं की अनदेखी से क्षुब्ध थे। उधर, असुर देवताओं से निरंतर पराजित हो रहे थे। तब शुक्राचार्य ने असुरों का मार्गदर्शन करने का निर्णय लिया और वे उनके गुरु बन गए।
उन्होंने महादेव की कठोर तपस्या की और प्रसन्न करके उनसे एक अति शक्तिशाली विद्या "संजीवनी मंत्र" प्राप्त किया, जिससे वे मृत असुरों को पुनः जीवित कर सकते थे। इस मंत्र के कारण दैत्यों का बल बढ़ने लगा और वे पुनः देवताओं से टक्कर लेने लगे।
भगवान विष्णु द्वारा शुक्राचार्य की माता का वध
शुक्राचार्य जब शिव की तपस्या में लीन थे, तब देवताओं ने असुरों पर आक्रमण कर दिया। हारने पर असुरों ने उनकी माता ख्याति की शरण ली।
ख्याति अत्यंत तेजस्विनी थीं। वे अपनी योगशक्ति से देवताओं को निष्क्रिय कर देतीं और असुरों की रक्षा करतीं।
जब पाप बढ़ने लगा, तब भगवान विष्णु ने ख्याति का वध करने का निश्चय किया। उन्होंने सुदर्शन चक्र से ख्याति का सिर काट दिया।
माता की मृत्यु से शुक्राचार्य अत्यंत दुखी हुए। उन्होंने अपनी तपस्या को और कठोर कर दिया और अंततः संजीवनी मंत्र प्राप्त करके असुरों की शक्ति को पुनः स्थापित किया।
भगवान विष्णु को भृगु ऋषि का श्राप
जब भृगु ऋषि को अपनी पत्नी ख्याति की मृत्यु का समाचार मिला, तो उन्होंने भगवान विष्णु को श्राप दिया—
"तुमने एक स्त्री का वध किया है, अतः तुम्हें बार-बार जन्म लेकर माँ के गर्भ में रहकर कष्ट सहना पड़ेगा।"
इस श्राप के कारण भगवान विष्णु को अपने आगामी अवतारों (राम, कृष्ण, परशुराम, बुद्ध आदि) में माता के गर्भ से जन्म लेना पड़ा।
इससे पहले वे वराह, मत्स्य, कूर्म, और नरसिंह अवतार में बिना गर्भ में गए ही प्रकट हुए थे।
शुक्राचार्य का पतन
शुक्राचार्य ने अपने ज्ञान और संजीवनी मंत्र से असुरों को अजेय बना दिया था। किंतु देवगुरु बृहस्पति के पुत्र कच ने शुक्राचार्य के पास जाकर यह मंत्र सीख लिया।
जब शुक्राचार्य को इस धोखे का पता चला, तो उन्होंने क्रोधित होकर कच को श्राप दिया कि उसे इस मंत्र का प्रयोग कभी नहीं करना पड़ेगा।
धीरे-धीरे, देवताओं ने फिर से अपना वर्चस्व स्थापित किया और शुक्राचार्य की शक्ति कम होने लगी।
निष्कर्ष
शुक्राचार्य की कथा हमें यह सिखाती है कि ज्ञान और शक्ति का प्रयोग उचित दिशा में किया जाना चाहिए। यदि ईर्ष्या, प्रतिशोध और क्रोध के कारण शक्ति का प्रयोग किया जाए, तो उसका परिणाम अंततः हानि में ही होता है।
दैत्यगुरु बनने के पीछे शुक्राचार्य की योग्यता और उनके साथ हुआ अन्याय, दोनों ही प्रमुख कारण थे।
भगवान विष्णु के साथ उनका शत्रुत्व जीवनभर बना रहा, किंतु उनके ज्ञान और तप की प्रशंसा देवता और असुर, दोनों करते रहे।
मुख्य बिंदु संक्षेप में
इस प्रकार, शुक्राचार्य का जीवन संघर्ष, तपस्या, ज्ञान और प्रतिशोध की एक अद्भुत गाथा है, जो आज भी हमारी पौराणिक कथाओं में अमर है।
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