रामचरितमानस की विशिष्ट चौपाइयों का विश्लेषण, जानें बिन होइ न परतीती। बिनु परतीती होइ नहिं प्रीती ।।, भागवत दर्शन सूरज कृष्ण शास्त्री। बिना ज्ञान के ।
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जानें बिन होइ न परतीती। बिनु परतीती होइ नहिं प्रीती ।। |
जानें बिन होइ न परतीती। बिनु परतीती होइ नहिं प्रीती ।।
जानें बिनु होइ न परतीती।
बिनु परतीती होइ नहिं प्रीती ।।
बिना ज्ञान के श्रद्धा उत्पन्न नहीं हो सकती और बिना श्रद्धा के प्रेम नहीं बढ़ सकता। इसलिए सच्चा ज्ञान स्वाभाविक रूप से प्रेम के साथ प्राप्त होता है। यदि हम यह दावा करते हैं कि हम ब्रह्म के ज्ञान से सम्पन्न हैं लेकिन यदि हम उसके प्रति प्रेम की अनुभूति नहीं करते तब हमारा ज्ञान केवल सैद्धान्तिक होता है।
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ।।
बहुत जन्मों के अन्त में अर्थात् मनुष्य जन्म में 'सब कुछ वासुदेव ही है' ऐसे जो ज्ञानवान् मेरे शरण होता है, वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है।
ज्ञान किसी अभ्यास से पैदा नहीं होता, प्रयुक्त जो वास्तव में है, उसको वैसा ही यथार्थ जान ज्ञान' है। *वासुदेवः सर्वम्* सब कुछ परमात्मा ही हैं। यह ज्ञान वास्तव में है ही ऐसा। यह कोई नया बनाया हुआ ज्ञान नहीं है, प्रत्युक्त स्वतः सिद्ध है। अतः भगवान् की वाणी से हमें इस बात का पता लग गया कि सब कुछ परमात्मा ही है, यह कितने आनन्द की बात है ! यह ऊँचा-से-ऊँचा ज्ञान है। इससे बढ़कर कोई ज्ञान है ही नहीं। कोई भले ही सब शास्त्र पढ़ ले, वेद पढ़ ले पुराण पढ़ ले, पर अन्त में यही बात रहेगी कि सब कुछ परमात्मा ही है; क्योंकि वास्तव में बात है ही यही !
अनेक जन्मों तक ज्ञान का अनुशीलन करने के पश्चात जब ज्ञानी मनुष्य का ज्ञान परिपक्व होकर सत्य ज्ञान में परिवर्तित हो जाता है तब वह परम प्रभु को सभी का उद्गम जानकर उनके शरणागत होता है।
महान आत्माएँ विरली ही होती हैं। भगवान ऐसे वचन ज्ञानी, कर्मी, हठ योगी इत्यादि के लिए नहीं कहते अपितु वे यह सब केवल अपने भक्त के लिए कहते हैं और यह घोषणा भी करते हैं कि ऐसी महान आत्माएँ अत्यंत दुर्लभ होती हैं जो यह समझती हैं कि “भगवान ही सबकुछ हैं और उनके शरणागत होती हैं।" ।
तत्त्व प्रेम कर मम अरु तोरा।
जानत प्रिया एकु मनु मोरा।।
शिवजी कहते हैं-हे उमा!अनेकों प्रकार के योग,जप,दान, तप,यज्ञ,व्रत और नियम करने पर भी श्री रामचंद्रजी वैसी कृपा नहीं करते जैसी अनन्य प्रेम होने पर करते हैं। परमात्मा की प्राप्ति एकमात्र मार्ग है परम प्रेम, परम प्रेम और परम प्रेम है, इसके अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग है ही नहीं। बिना प्रेम के राम (परमात्मा) की प्राप्ति नहीं होती चाहे कितना भी योग जप तप कर लिया जाये।
संसार में प्रायः कोई भी आदमी यह नहीं बताता कि मेरे पास इतना धन है, इतनी सम्पत्ति है, इतनी विद्या है, इतना कला-कौशल है। परन्तु भगवानने ऊंचे-से- ऊंचे महात्माके हृदय की गुप्त बात हमें सीधे शब्दों में बता दी कि सब कुछ परमात्मा ही है। इससे बढ़कर उनकी क्या कृपा होगी !
पद्मपुराण में एक सुन्दर उदाहरण दिया गया है। जाबली नाम के एक ऋषि ने अत्यंत तेजस्वी और शांत कन्या को वन में ध्यान मुद्रा में मग्न देखा। ऋषि ने उससे अपनी पहचान प्रकट करने और तपस्या का प्रयोजन बताने का अनुरोध किया। उस कन्या ने इसका इस प्रकार से उत्तर दिया
ब्रह्मविद्याहमतुला योगिरैर्या च मृग्यते।
साहं हरि पदामभोज काम्यया सुचिरं तपः।
चरामयस्मिन् वने घोरे ध्यायन्ती पुरुषोत्तमम्।।
ब्रह्मनन्देन पूर्णाहं तेनानन्देन तृप्तधीः।
तथापि शून्यमात्मानं मन्ये कृष्णरतिं विना।।
मैं ब्रह्म विद्या अर्थात स्वयं को जानने का ज्ञान हूँ जो ब्रह्म की अनुभूति की ओर ले जाता है। महान योगी और रहस्यवादी मुझे जानने के लिए कठोर तपस्या करते हैं लेकिन मैं स्वयं साकार भगवान के चरण कमलों में प्रेम विकसित करने के लिए घोर तपस्या कर रही हूँ। मैं परिपूर्ण हूँ और ब्रह्म के आनन्द से तृप्त हूँ। फिर भी भगवान कृष्ण के प्रेमामयी अनुराग के बिना मैं स्वयं को रिक्त और शून्य समझती हूँ।" इसलिए भगवान के साकार रूप के आनन्द में निमज्जित होने के लिए केवल ज्ञान ही पर्याप्त नहीं होता। भक्ति द्वारा कोई भी इस रहस्य को जान सकता है और फिर भगवान की पूर्ण चेतना प्राप्त करता है।
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।
स भूमिं विश्वतो वृत्यात्यातिष्ठद्दशांगुलम् ।।
पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भव्यम् ।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ।।
आत्म-साक्षात्कार के प्रारम्भ में जब मनुष्य भौतिकता का परित्याग करने का प्रयत्न करता है तब निर्विशेषवाद की ओर उसका झुकाव हो सकता है, किन्तु आगे बढ़ने पर वह यह समझ पता है कि आध्यात्मिक जीवन में भी कार्य हैं और इन्हीं से भक्ति का विधान होता है । इसकी अनुभूति होने पर वह भगवान् के प्रति आसक्त हो जाता है और उनकी शरण ग्रहण कर लेता है । इस अवसर पर वह समझ सकता है कि श्रीकृष्ण की कृपा ही सर्वस्व है, वे ही सब कारणों के कारण हैं और यह जगत् उनसे स्वतन्त्र नहीं है । वह इस भौतिक जगत् को अध्यात्मिक विविधताओं का विकृत प्रतिबिम्ब मानता है और अनुभव करता है कि प्रत्येक वस्तु का परमेश्र्वर कृष्ण से सम्बन्ध है । इस प्रकार वह प्रत्येक वस्तु को वासुदेव श्रीकृष्ण से सम्बन्धित समझता है । इस प्रकार की वासुदेवमयी व्यापक दृष्टि होने पर भगवान् कृष्ण को परंलक्ष्य मानकर शरणागति प्राप्त होती है । ऐसे शरणागत महात्मा दुर्लभ हैं ।
न वै वाचो न चक्षूंषि न श्रोत्राणि न मनांसीत्याचक्षते प्राण इति एवाचक्षते ह्येवैतानि सर्वाणि भवन्ति
जीव के शरीर की बोलने की शक्ति, देखने की शक्ति, सुनने की शक्ति, सोचने की शक्ति ही प्रधान नहीं है ।समस्त कार्यों का केन्द्रबिन्दु तो वह जीवन (प्राण) है । इसी प्रकार भगवान् वासुदेव या भगवान् श्रीकृष्ण ही समस्त पदार्थों में मूल सत्ता हैं । इस देह में बोलने, देखने, सुनने तथा सोचने आदि की शक्तियाँ हैं, किन्तु यदि बे भगवान् से सम्बन्धित न हों तो सभी व्यर्थ हैं । वासुदेव सर्वव्यापी हैं और प्रत्येक वस्तु वासुदेव है । अतः भक्त पूर्ण ज्ञान में रहकर शरण ग्रहण करता है
भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ॥
भगवान श्री कृष्ण जी कहते हैं कि मेरी प्रेममयी भक्ति से कोई मुझे सत्य के रूप में जान पाता है। तब यथावत सत्य के रूप में मुझे जानकर मेरा भक्त मेरे पूर्ण चेतन स्वरूप को प्राप्त करता है।
ज्ञानी को पहले निर्गुण, निर्विशेष और निरंकार रूप में भगवान की अनुभूति हो चुकी होती है लेकिन ज्ञानी को भगवान के साकार रूप की अनुभूति नहीं होती। इसका रहस्य यह है कि भगवान के साकार रूप को कर्म, ज्ञान और अष्टांग योग द्वारा जाना नहीं जा सकता। यह प्रेम ही है जो असंभव का द्वार खोलता है और अगम्य का मार्ग बनाता है। श्रीकृष्ण यहाँ कहते हैं कि भगवान के रूप, गुण, लीलाओं, धामों और संतो के रहस्य को केवल शुद्ध भक्ति द्वारा समझा जा सकता है। केवल भक्त ही भगवान को जान पाते हैं क्योंकि वे प्रेम चक्षुओं से युक्त होते हैं।
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