सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा। लागि देखि सुंदर फल रूखा॥, भावार्थ,रामचरितमानस की विशिष्ट चौपाइयों का विश्लेषण, भागवत दर्शन सूरज कृष्ण शास्त्री।
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सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा। लागि देखि सुंदर फल रूखा॥ |
सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा। लागि देखि सुंदर फल रूखा॥
तुलसीदास जी की इन चौपाइयों को देखें👇
सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा। लागि देखि सुंदर फल रूखा॥
सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी। परम सुभट रजनीचर भारी॥
तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं। जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं॥
भावार्थ:-
हे माता! सुनो, सुंदर फल वाले वृक्षों को देखकर मुझे बड़ी ही भूख लग आई है। (सीताजी ने कहा-) हे बेटा! सुनो, बड़े भारी योद्धा राक्षस इस वन की रखवाली करते हैं॥ हनुमान्जी ने कहा-हे माता! यदि आप मन में सुख मानें (प्रसन्न होकर) आज्ञा दें तो मुझे उनका भय तो बिलकुल नहीं है।
-जब माँ से आंजनेय ने कहा कि इस बाग में फल लगे हैं,अतः अपने इस भूखे पुत्र को खाने की आज्ञा दीजिये तो माँ ने माँ के स्वभाव का ही परिचय देते हुए कहा- “सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी।परम सुभट रजनीचर भारी।”
हनुमानजी खुश हो गये कि चलो माँ ने मुझे छोटा पुत्र ही माना है।क्योंकि अभी अभी अजर अमर होने का बरदान दिया है फिर भी चिन्ता बनी हुयी है,इतनी चिन्ता तो माँ छोटे बेटे की ही करती है।हनुमानजी ने कहा--
“तिन्ह कर भय माता मोहिं नाहीं।
जो तुम सुख मानहु मन माहीं।”
माँ ने सोचा इसे राक्षसों का भय नहीं है,पर उसकी सोच यह है कि यह बाटिका तो मोह रूपी रावण की बाटिका है।ज्ञान की बाटिका का फल तो ब्यक्ति को धन्य बनाता है,उसमें मोक्ष के फल लगते है।किन्तु क्या इस मोह की बाटिका का फल खाना उचित रहेगा?
हनुमानजी तो ऐसे भूखे हैं,जिन्होंने जन्म लेते ही सूर्य को फल समझकर मुख में रख लिया।हनुमानजी की इस लीला का संकेत यह है कि संसार की बाटिका में धर्म,अर्थ,काम,मोक्ष का फल लगा हुआ है,और वह उन्हें तो चाहिए नहीं,वह दूर वाले उस फल के इच्छुक हैं,जो कि आकाश में प्रकाश के रूप में दिखाई दे रहा है,और उस फल तक छलाँग लगाने की सामर्थ्य भी उनमें है।यह हनुमानजी का एक रूप है।
संसार में अनेक ब्यक्ति तो मोह की बाटिका का ही फल खा रहे हैं।किन्तु हनुमानजी का अभिप्राय था कि अगर भक्ति देवी की कृपा हो जाय,तो मोह की बाटिका का भी फल खाया जा सकता है।ज्ञान में तो मोह का तिरस्कार है,पर भक्ति में मोह की बड़ी महिमा है।इसे युँ कहें कि भक्त भी भगवान को देखकर मोहित ही तो होता है।
जनकपुर वासी स्त्रियाँ यही तो कहती हैं-- “कहहु सखी अस को तनुधारी।जेहिं न मोह यह रूप निहारी।”
हनुमानजी का तात्पर्य भी यही है कि भूख मिटाने का काम तो भक्ति का ही है,क्योंकि ज्ञानी-बिरागी तो कहेंगे कि संसार की वस्तुएँ नश्वर हैं।इनका फल ग्रहण करने का अर्थ है अपना विनाश।पर भक्ति में करुणा है।अतः हनुमानजी कहते हैं कि आप आदेश दें तो मै फल खा लूँ।शब्द कितना अच्छा चुना - “लागि देख सुन्दर फल रूखा।”
“फल बड़े सुन्दर हैं।”मोह की बाटिका के फल बड़े सुन्दर होते हैं।इन्हें देखकर लोगों का मन ललच जाता है।पर सुन्दरता फल का बहिरंग गुण है,सुन्दर फल भी अगर कड़ुवा हो तो आदमी थूके बिना मानेगा नहीं।अतः माँ ने कहा कि पुत्र!खाने से पूर्व “सुन्दर”को “मधुर” बना लो,तब तुम इसे ग्रहण करो।
और इसका उपाय भी बता दिया--
“रघुपति चरन हृदय धरि,तात मधुर फल खाहु।”
यानी मोह की बाटिका का फल जब तुम भगवान को अर्पित कर दोगे,तब यह मोह की बाटिका का फल न रहकर प्रभु का प्रसाद हो जायगा।और प्रसाद होते ही मधुर हो जायगा।हनुमानजी ने कहा-माँ कितनी वात्सल्यमयी हैं।
हनुमानजी ने फल खाने के साथ साथ बाग को उजाड़ दिया,राक्षसों को मारा तथा लंका को जला दिया।लौटने पर बंदरों ने पूछा कि आपने माँ से आज्ञा तो केवल फल खाने की ली थी,बाग उजाड़ने,राक्षसों को मारने तथा लंका को जलाने की आज्ञा तो ली नहीं थी,फिर आपने ए तीनों काम किसकी आज्ञा से किए?
हनुमानजी ने कहा कि मैंने आज्ञा तो केवल फल खाने की ही ली थी,पर शेष तीनों काम तो फल खाने के फल थे।इसका अभिप्राय यह है कि भक्ति देवी की कृपा का फल खाने के बाद भी अगर मोह की बाटिका न उजड़े,दुर्गुणों के राक्षसों का विनाश न हो और प्रबृत्ति की लंका न जले तो माँ की कृपा किस काम की?
वस्तुतः भक्ति की कृपा के फल का रसास्वादन करने के बाद ब्यक्ति के जीवन का मोह विनष्ट हो जाता है,दुर्गुण नष्ट हो जाते हैं तथा प्रबृत्ति की मोहमयी लंका भी जलकर नष्ट हो जाती है।
“अकाल पड़ा, इसका अर्थ यही है कि भूख तो भक्ति के बिना नहीं मिटेगी।श्रीसीताजी आयीं।भौतिक जगत में इसका फल यह हुआ कि वर्षा हुयी और आध्यात्मिक अर्थ यह है कि साक्षात पराभक्ति का आगमन।भक्ति की उपलब्धि ब्यक्ति के प्रयत्न से नहीं होती।वे किसी साधना,तपस्या के फल से नहीं,अपितु अपनी सहज कृपा से आयीं। और जनकजी ने उन्हें पाया तो उनकी निष्कामता और बैराग्य का दूसरा पक्ष उनके सामने आया।
सांसारिक ब्यक्ति शरीर से जन्म लेने वाले को पुत्र या पुत्री स्वीकार करता है,यह स्वाभाविक प्रबृत्ति है।पर यहाँ,सुनयनाजी के गर्भ से सीताजी का जन्म नहीं हुआ, और जन्म के मूल में पिता के रूप में जनकजी भी नहीं हैं,किन्तु जब उन्होंने इस दिब्य कन्या को देखा, तो उनके हृदय में वात्सल्य उमड़ पड़ा,और उन्होंने उन्हें पुत्री के रूप में स्वीकार कर,सुनयनाजी की गोद में दे दिया।ब्यावहारिक जगत में शरीर का नाताहै पर भक्ति का नाता शरीर का नहीं है।
महाराज दशरथ की शरीर के प्रति महत्व बुद्धि है,इसलिए भगवान से कहते हैं कि आप मेरे पुत्र बनिए,किन्तु जनकजी ने शरीर से संबंधित न होने के बाद भी सीताजी को पुत्री स्वीकार कर लिया तो इसका अर्थ यह है कि वे शरीर की भावना से ऊपर उठे हुये”बिदेह” हैं।भक्ति का मूलाधार ही भाव है।
अब देखिए! शरीर के नाते से पाने के लिए मनुजी को कितने लम्बे काल तक साधना करनी पड़ी,और एक जन्म लगाने के बाद,तब कहीं दूसरे जन्म में जाकर श्रीराम को पुत्र कहने का अवसर मिला।अतः शरीर वाले नाते की प्रक्रिया बड़ी लम्बी है।इसमें समय की,श्रम की, वस्तुओं की आवश्यकता हो सकती है।पर अगर कोई भाव से नाता मानना चाहे तो एक क्षण में मान ले।इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि भावना यानी भक्ति का मार्ग सरल है।
ईश्वर कहता है कि तुम सकाम हो तो मुझे पुत्र बना लो,और यदि निष्काम हो तो मुझे पुत्री बना लो।मैं तो दोनों के लिए ही प्रस्तुत हूँ।पिता पुत्र का नाता सकामता का नाता है तथा पिता पुत्री का नाता निष्कामता का नाता है।रामायण में दोनों नातों का संकेत आपको मिलेगा।
रामचरितमानस में कौशल्याजी,कैकेयीजी,सुमित्राजी के जीवन में शरीर के माध्यम से प्रभु चार रूपों में आए।पर बन में भगवान राम ने शबरी को माँ कहा और उन्होंने भी प्रभु को पुत्र रूप में स्वीकार किया।यह तो विशुद्ध भाव का नाता है।
भगवान को श्रीदशरथजी ने पुत्र रूप में पाया,यह शरीर का नाता था,पर गीधराज ने पुत्र माना और भगवान ने उन्हें पिता स्वीकार किया,तो कितना सरल मार्ग हो गया।मानो एक गीध भी भगवान को पुत्र बना सकता है।एक दीन हीन भीलनी भी भगवान को पुत्र मानकर अपने को धन्य कर सकती है। अतः सीताजी का मिथिला में प्राकट्य भावराज्य का प्राकट्य है।भाव से एक नाता महाराज जनक ने पाया।
भाव के नाते से एक पात्र यदि श्रीसीताजी हैं तो दूसरी द्रोपदी(महाभारत)हैं।सद्गुरुदेव श्री रामकिंकरजी ने एक लेख पढ़ा,जिसमें किसी महिला ने लिखा था कि आज की नारी को सीता नहीं अपितु द्रोपदी जैसी तेजस्विनी होने की आवश्यकता है ।
उन्होंने लिखा था कि नारी को सहनशील नहीं होना चाहिए।सीताजी को उन्होंने “भीरु”कहा था।उसमें अन्य और ऐसे शब्दों का प्रयोग किया गया था,जिसे दुहराना उचित नहीं हैँ।उनका अभिप्राय यह था कि दबी-दबी सी रहने वाली सीता का आदर्श नारी समाज के लिए ठीक नहीं है। द्रोपदी की जो तेजस्विता है,वही आज की नारी का आदर्श होना चाहिए।
इसमें कोई संदेह नहीं कि द्रोपदी की भी अपनी महानता है,पर श्रीसीताजी से उसकी तुलना किसी तरह से नहीं की जा सकती।श्री सीताजी साक्षात् महाशक्ति हैं,जगज्जननी हैं।
यद्यपि द्रौपदी भी तेजोमयी हैं, भगवान कृष्ण उनसे अनुराग करते हैं,पर अंतर तो है ही।इसे सूत्र के रूप में यूँ कहा जा सकता है कि अगर द्रोपदी नर की पत्नी हैं,तो श्रीसीताजी नारायण की प्रिया हैं।और नर तथा नारायण में बहुत बड़ा अंतर है।उनके जन्म में भी बहुत महत्वपूर्ण अंतर है।
श्रीसीताजी ने पृथ्वी से जन्म लिया,और पृथ्वी का स्वभाव तो हमें पता ही है कि उनमें कितनी उदारता है,कितनी सहिष्णुता है तथा कितनी करुणा है।इसलिए श्रीसीताजी के जीवन में भी सहिष्णुता है।
इसे जो लोग “दब्बूपन” मानते हैं,तो उनके बिचार दर्शन के लिए भला क्या किया जा सकता है?गोस्वामीजी ने श्रीसीताजी के विषय में यही लिखा है--
“धरनि सुता धीरज धरेउ समय सुधरम बिचारि।”
अर्थात वे धरित्री की पुत्री हैं,इसलिए उन्होंने अत्यंत कठिन से कठिन परिस्थिति में भी धैर्य धारण किया।पर ऐसा नहीं है कि वे तेजस्विनी नहीं हैं।तेजस्विता की पराकाष्ठा भी उनमें है।
आप देखिये कि,जो लंका में अकेले बन्दिनी हों,राक्षस राक्षसिनियों से घिरी हुयी हों,जगत बिजेता रावण जिनके समक्ष समस्त संसार के वैभवों को लेकर उपस्थित होकर जिन्हें प्रलोभन दे रहा हो,बिबाह करने के लिए आग्रह कर रहा हो,पर उसका जो उत्तर उन्होंने दिया,उसे सुनकर कौन कह सकता है कि, श्रीसीताजी तेजस्विनी नहीं हैं।रावण को फटकारते हुए उन्होंने कहा--
“सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा।कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा।
सठ सूने हरि आनेसि मोहीं।अधम निलज्ज लाज नहिं तोही।”
रावण को ‘सठ’कहने में उन्हें जरा भी भय नहीं है।वे कहती हैं कि तू निर्लज्ज है।ऐसी तेजस्विता सरल है क्या?।
तेजस्विता होने का अर्थ यह नहीं कि वे हमेशा तेजस्विता प्रगट कर लोगों को जलाती रहें। द्रौपदी ने कभी कड़वी बात कह दी,तो तेजस्विता का मापदंड हमेशा कड़वे बोल बोलना ही नहीं लिया जा सकता।अब इसे दूसरे सूत्र के संदर्भ में देखें- द्रोपदी का जन्म भी यज्ञ से हुआ और श्रीसीताजी का जन्म भी यज्ञ से हुआ।
श्रीसीताजी के प्राकट्य के मूल में पृथ्वी हैं और द्रोपदी का प्रादुर्भाव यज्ञकुंड की अग्नि से अपने भाई धृष्टद्युम्न के साथ हुआ।पर यहाँ दृष्टि दूसरी है।एक ओर यदि जनकजी जैसे महा बैराग्यवान,ज्ञानी तथा निष्काम हैं,तो दूसरी ओर सकाम और संसारी द्रुपद हैं।और द्रुपद की कथा भी बड़ी बिचित्र है।
द्रुपद व द्रोणाचार्य दोनों गुरुकुल में साथ साथ पढ़ते थे।उनकी मित्रता इतनी प्रगाढ़ थी कि द्रुपद ने कहा मित्र मैं राजा बनूँगा तो आधा राज्य तुम्हें दे दूँगा।
समय बीतने पर द्रुपद राजा हो गये और द्रोणाचार्य गरीब बने रहे।बेटे अश्वत्थामा को आटे को घोलकर दूध बनाकर पिलाने की नौबत से दुखी द्रोणाचार्य अपने दोस्त द्रुपद के यहाँ गये।जब उन्हें अपनी गरीबी का हाल सुनाने के बाद,उनका गुरुकुल का बचन याद दिलाया,तो द्रुपद बोले कि बचपन की नासमझी की बातों को याद रखना मूर्खता है।कहो तो तुम्हें कुछ धन,मुद्रा,धेनु आदि दिलवा दूँ,पुरानी बातों को भूल जाओ।द्रोणाचार्य अपमान से तिलमिला उठे, और कहा, मुझे तुम्हारी कोई वस्तु नहीं चाहिए।
आगे चलकर द्रोणाचार्य कौरवों और पांडवों के शिक्षक बने।शिष्यों ने शिक्षा पूरी करने के बाद गुरुदक्षिणा देनी चाही।द्रोणाचार्य ने कहा,तुम लोगों में से जो द्रुपद को बंदी बनाकर ले आयेगा,मैं समझूँगा कि वही मेरा योग्य शिष्य है।अर्जुन ने द्रुपद को बंदी बनाकर गुरु के समक्ष खड़ा कर दिया।द्रोणाचार्य ने कहा,द्रुपद मैं तुम्हें मार भी सकता हूँ,किन्तु ऐसा नहीं करूँगा,केवल तुम्हारा बचन पूरा कराऊँगा,और उन्होंने द्रुपद का आधा राज्य छीन लिया।
द्रुपद ने इस अपमान का बदला लेने के लिए यज्ञ किया।
अब जरा सोचिए,जनकजी और द्रुपद की भला क्या तुलना हो सकती है?जनकजी में महान संतुलन है,ज्ञान है,बैराग्य है,किन्तु द्रुपद तो हमारे सामने एक क्रोधी,प्रतिक्रियावादी तथा हिंसक स्वभाव वाले राजा के रूप में हमारे सामने आते हैं।
द्रुपद ने यज्ञ किया।यज्ञ के पीछे भावना थी कि मुझे ऐसा पुत्र मिले,जो द्रोणाचार्य का सिर काट सके।इस यज्ञ से धृष्टद्युम्न और द्रोपदी का जन्म होता है।आगे वर्णन आता है कि धृष्टद्युम्न ने द्रोणाचार्य से ही शस्त्र की शिक्षा पायी।और धृष्टद्युम्न ने महाभारत के युद्ध में जब द्रोणाचार्य शस्त्र छोड़कर नेत्र मूँदकर,ध्यान मग्न बैठे थे,तभी पिता की बात रखने के लिए द्रोणाचार्य का सिर काट लिया।इसके बाद अश्वत्थामा में भी बदला लेने की बृत्ति आई और युद्ध समाप्त होने के बाद उसने धृष्टद्युम्न का बध कर दिया।
किसी पत्रकार ने श्री किंकरजी से पूछा कि रामायण और महाभारत में क्या अन्तर है,तो उन्होंने जबाब दिया कि,”महाभारत माने”-जैसा होता है,और “रामायण माने”-जैसा होना चाहिए।महाभारत अर्थात क्रिया-प्रतिक्रिया का चक्र।
इस चक्र को अगर अनवरत रूप से बढ़ाते ही चला जाये,तो जीवन में एक महाविनाश की सृष्टि हो सकती है। यह महाभारत के विनाश से स्पष्ट है।
श्रीरामचरितमानस में श्रीसीताजी को कहा गया कि वे तो--
“अतिसय प्रिय करुणानिधान की।”
मातृ बृत्ति,करुणा से युक्त बृत्ति है,और श्रीसीताजी का जन्म किसी प्रतिक्रिया से नहीं हुआ है,किसी से बदला लेने के लिए नहीं हुआ है।उनका तो जन्म हुआ है,प्रभु के हृदय में जीव
के प्रति करुणा उत्पन्न करने के लिए।उनका पक्ष करुणा और प्रेम का पक्ष है।
लंका का युद्ध समाप्त होने के बाद,भगवान राम ने विभीषण से कहा,सीता को ले आइए।
विभीषणजी ने पालकी मँगाई,सीताजी स्नान व वस्त्र परिवर्तन के बाद पालकी में बैठ गयीं।जब वे वानर सेना के पास पहुँचीं,तो बानर ब्यग्र हो गये,उनके दर्शन के लिए,किन्तु
पालकी के ऊपर पर्दा पड़ा हुआ था।बानर,शिष्टाचार क्या जानें?सोचे पर्दा उठाकर दर्शन कर लें।किन्तु लिखा हुआ है कि जो राक्षस पालकी ढो रहे थे तथा रक्षा करने के लिए बेंत लेकर चल रहे थे,वे बेंत दिखाकर बन्दरों को पालकी के पास जाने से रोकने लगे।
जब प्रभु ने इस दृश्य को देखा,तो कहा मित्र विभीषण!--
“सीता सखा पयादें आनहु।”
सीताजी को पालकी पर नहीं, पैदल ले आओ।श्रीसीताजी उतरीं।उनका दर्शन करके बन्दर धन्य हो गये।
यद्यपि सीताजी प्रारंभ में ही अस्वीकार कर सकतीं थीं,कि प्रियतम के पास मैं पैदल ही चलूँगी,पालकी पर नहीं।पर वे पालकी पर बैठकर आ गयीं।इसका अभिप्राय भी माँ की करुणा ही है।वस्तुतः माँ ने सोचा कि मैं यदि पैदल चलूँगी तो बंदरगण जो मेरे सुपुत्र हैं,उनकी अभिलाषा तो पूर्ण हो जायेगी,पर राक्षसगण भी तो मेरे पुत्र ही हैं।
और, प्रभु ने प्रतिज्ञा की है कि- “निशिचर हीन करौं महि”
तो जो बचे हुए मेरे राक्षस पुत्र है, उनकी रक्षा का उपाय यही है कि, उनसे भी सेवा लेकर, प्रभु से मैं कह दूँ कि”पहले वे जैसे भी रहे हों,पर आज तो वे मेरा भार ढोने वाले हैं,आज मेरे रक्षक हैं,अतः इन पर कृपा कीजिए।बस! यही माँ की करुणा है। और यही श्रीसीताजी का स्वरूप है।
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