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भायप भगति भरत आचरनू। कहत सुनत दुख दूषन हरनू॥

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भायप भगति भरत आचरनू। कहत सुनत दुख दूषन हरनू॥, रामचरितमानस की विशिष्ट चौपाइयों का विश्लेषण,"भायप भगति" का विश्लेषण, 'भायप भगति' का आध्यात्मिक संदेश।

भायप भगति भरत आचरनू। कहत सुनत दुख दूषन हरनू॥
भायप भगति भरत आचरनू। कहत सुनत दुख दूषन हरनू॥


भायप भगति भरत आचरनू। कहत सुनत दुख दूषन हरनू॥

भायप भगति भरत आचरनू। कहत सुनत दुख दूषन हरनू॥

जो किछु कहब थोर सखि सोई। राम बंधु अस काहे न होई॥

 यह चौपाई श्रीरामचरितमानस के अयोध्याकांड से ली गई है। इसका अर्थ इस प्रकार है—

अर्थ:

भगवान श्रीराम के भाई भरतजी भक्ति से परिपूर्ण हैं और उत्तम आचरण वाले हैं। उनका कथन और श्रवण सभी दुखों और दोषों को हरने वाला है।

हे सखि! मैं जो कुछ भी थोड़ा-सा कहूँगी, वही सत्य होगा, क्योंकि श्रीराम के भाई भरत ऐसे क्यों न हों (अर्थात् वे तो स्वाभाविक रूप से सर्वगुण संपन्न ही होंगे)।

प्रसंग:

यह संवाद अयोध्याकांड में तब आता है जब भरतजी वन जाकर श्रीराम को अयोध्या लौटने के लिए मनाने का प्रयास करते हैं। इस प्रसंग में श्रीराम की भार्या माता सीता, लक्ष्मण तथा अन्य लोग भरतजी के उत्तम गुणों की प्रशंसा करते हैं। उक्त दोहा भी भरतजी के अद्भुत गुणों की पुष्टि करता है।

"भायप भगति" का विश्लेषण

"भायप भगति" शब्द युग्म श्रीरामचरितमानस के अयोध्याकांड से लिया गया है। इस दोहे में तुलसीदासजी ने भरतजी के चरित्र की विशेषता बताते हुए कहा है—

भायप भगति भरत आचरनू।
कहत सुनत दुख दूषन हरनू॥

1. 'भायप' शब्द का विश्लेषण

"भायप" शब्द अवधी भाषा का एक रूप है, जिसका संस्कृत मूल "भय" (श्रद्धा एवं संकोच युक्त प्रेम) से संबंधित है। यह शब्द "भय" (सम्मान सहित प्रेम) + "अप" (समुच्चय या गहनता दर्शाने वाला प्रत्यय) से बना हुआ प्रतीत होता है। अतः "भायप" का अर्थ होता है— सम्मानपूर्वक संकोच और प्रेम सहित भक्ति।

भरतजी की भक्ति विशुद्ध प्रेम और संकोचयुक्त थी। उनके मन में श्रीराम के प्रति अत्यंत श्रद्धा, प्रेम और सेवा की भावना थी, किंतु वे कभी भी अपने प्रेम को व्यक्त करने में अहंकारयुक्त नहीं थे। उनकी भक्ति में सहज समर्पण, संकोच और अनुशासन था।

2. 'भक्ति' शब्द का विश्लेषण

"भक्ति" शब्द संस्कृत मूल "भज्" धातु से बना है, जिसका अर्थ है सेवा, उपासना और प्रेमपूर्ण समर्पण। तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में भक्ति को विभिन्न रूपों में प्रस्तुत किया है, जिनमें शरणागति, प्रेम और निःस्वार्थ सेवा मुख्य हैं।

भरतजी की भक्ति निष्काम (निष्प्रयोजन), अनन्य (अद्वितीय), एवं निर्मल (निर्मोही) थी। वे श्रीराम के प्रति अनन्य प्रेम रखते थे, लेकिन अपने लिए कुछ भी नहीं चाहते थे। उनकी भक्ति केवल प्रभु सेवा के लिए थी, न कि किसी सांसारिक लाभ के लिए।

3. 'भायप भगति' का व्यावहारिक दृष्टिकोण

"भायप भगति" का तात्पर्य यह है कि भरतजी की भक्ति ऐसी थी, जो श्रद्धा, प्रेम, सेवा, संकोच और मर्यादा से परिपूर्ण थी। वे श्रीराम के प्रति प्रेम रखते थे, लेकिन उस प्रेम में दास्यभाव (सेवा), संकोच (निजता), एवं कर्तव्यनिष्ठा समाहित थी।

4. संदर्भ एवं व्याख्या

यह दोहा तब आता है जब माता सीता श्रीराम के भाई भरतजी के गुणों का वर्णन कर रही हैं। जब भरतजी चित्रकूट में श्रीराम से मिलने आते हैं और उन्हें वापस अयोध्या चलने के लिए निवेदन करते हैं, तब उनकी निष्कपट भक्ति को देखकर सभी चकित रह जाते हैं। माता सीता स्वयं उनकी भक्ति का गुणगान करते हुए कहती हैं कि—

  • भरतजी की भक्ति श्रद्धा और प्रेम से युक्त है।
  • उनके कथन और चरित्र को सुनने से ही सारे दुख दूर हो जाते हैं।
  • वे स्वयं ऐसे श्रेष्ठ भक्त हैं कि उनका चरित्र लोगों के लिए आदर्श बन जाता है।

5. तुलसीदासजी के अनुसार भरतजी की भक्ति के गुण

तुलसीदासजी ने भरतजी को भक्ति के सर्वोच्च उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है। उनकी भक्ति में कुछ प्रमुख विशेषताएँ हैं—

  1. अनन्यता – भरतजी का मन केवल और केवल श्रीराम में ही लगा था। वे किसी अन्य विकल्प की ओर नहीं देखते थे।
  2. निष्कामता – उन्होंने राज्य, ऐश्वर्य और सुख-सुविधाओं को अस्वीकार कर दिया और केवल श्रीराम की सेवा को चुना।
  3. निष्कपटता – उनकी भक्ति में छल-कपट, अहंकार, या किसी प्रकार की स्वार्थ सिद्धि का लेशमात्र भी नहीं था।
  4. त्याग और समर्पण – उन्होंने राज्य को श्रीराम का अधिकार मानकर, स्वयं केवल सेवक की भाँति रहना स्वीकार किया।
  5. संकोच और मर्यादा – वे श्रीराम के आदेश का उल्लंघन कभी नहीं करते थे, न ही अपने प्रेम को जबरदस्ती जताते थे।

6. 'भायप भगति' का आध्यात्मिक संदेश

भरतजी की भक्ति हमें यह सिखाती है कि—

  • सच्ची भक्ति प्रेम और श्रद्धा का संतुलन है।
  • भक्ति में स्वार्थ नहीं, सेवा भाव होना चाहिए।
  • ईश्वर की आज्ञा और मर्यादा का पालन ही सर्वोत्तम भक्ति है।


"भायप भगति" के अन्य उदाहरण

"भायप भगति" का अर्थ है श्रद्धा, संकोच, प्रेम और मर्यादा से युक्त भक्ति। यह भक्ति केवल भरतजी तक सीमित नहीं है, बल्कि अन्य भक्तों में भी देखी जाती है। यहाँ कुछ प्रमुख उदाहरण दिए जा रहे हैं—


1. श्रीलक्ष्मणजी की "भायप भक्ति"

लक्ष्मणजी की भक्ति भी "भायप भक्ति" का सर्वोत्तम उदाहरण है। वे श्रीराम के प्रति अत्यंत प्रेम रखते हैं, किंतु मर्यादा और संकोच बनाए रखते हैं।

(क) अनन्य सेवाभाव

जब श्रीराम वनवास जाते हैं, तब लक्ष्मणजी विनम्रतापूर्वक सेवा करने का निवेदन करते हैं—

नाथ सकल सेवक सब नाथा। मैं पुनि सेवकु सेवक माथा॥
बिनु सेवा जो नाथ तुम्हारा। होइ अकाजु जनमु संसारा॥ (अयोध्या कांड, 86.3)

अर्थ:
हे नाथ! यद्यपि सभी आपकी सेवा करने योग्य हैं, किंतु मैं तो सेवकों में भी सबसे निम्न सेवक हूँ। यदि मैं आपकी सेवा न करूँ, तो मेरा जन्म ही व्यर्थ है।

विशेषता: लक्ष्मणजी सेवा का अधिकार माँगते हैं, परंतु इसमें संकोच और मर्यादा का भाव है। वे अपनी भक्ति को थोपते नहीं, बल्कि स्वयं को विनम्र सेवक मानते हैं।


(ख) त्याग और प्रेम

श्रीराम के वनवास की घोषणा होते ही लक्ष्मणजी राजमहल छोड़ देते हैं और सुमित्रा को उत्तर देते हैं—

उर कछु प्रीति प्रतीति न माता। जौं रघुबीर अनाथ समाता॥
मातु पिता गुरु बचनु न माना। तौ मैं दासु राम कै आना॥ (अयोध्या कांड, 39.3)

अर्थ:
हे माता! यदि श्रीराम को इस राज्य में अनाथ-सा अनुभव हो रहा है, तो इसमें कोई प्रेम नहीं है। यदि राजा, गुरु और माता-पिता की आज्ञा का पालन करने से श्रीराम की सेवा में बाधा आती है, तो मैं रामजी का ही दास हूँ।

विशेषता: लक्ष्मणजी में स्वाभाविक प्रेम और सेवा भावना है, किंतु वे श्रीराम के चरणों से बाहर नहीं जाते।


2. हनुमानजी की "भायप भक्ति"

हनुमानजी की भक्ति दास्यभाव से युक्त है, जिसमें प्रेम, श्रद्धा, मर्यादा और संकोच का अद्भुत मिश्रण है।

(क) निष्काम सेवा

हनुमानजी कहते हैं—

प्रभु भंजन दुःख भंजन हारा। सोइ सेवकु प्रियतमु तुम्हारा॥ (सुंदरकांड, 7.3)

अर्थ:
हे प्रभु! वही सेवक आपको प्रिय है, जो स्वयं अपने दुखों की चिंता न करके केवल आपकी सेवा में तत्पर रहता है।

विशेषता: हनुमानजी निष्काम सेवा का आदर्श प्रस्तुत करते हैं। वे श्रीराम से कुछ भी नहीं माँगते, केवल सेवा में लगे रहते हैं।


(ख) संकोच एवं समर्पण

जब विभीषणजी रामजी की शरण में आते हैं, तब हनुमानजी श्रीराम से कहते हैं—

नाथ दसानन कै असि रीती। सपनेहुँ प्रानु न मानहि प्रीती॥
जद्यपि सहाय सखा अति तोषी। प्रभु सरनागत भीरु न रोषी॥ (लंका कांड, 17.1)

अर्थ:
हे नाथ! रावण का स्वभाव ऐसा है कि वह प्रेम से भी किसी को स्वीकार नहीं करता। यद्यपि विभीषणजी आपके भक्त हैं, फिर भी वे संकोच कर रहे हैं। प्रभु, आप शरणागत पर कभी क्रोध नहीं करते।

विशेषता: हनुमानजी स्वयं न बोलकर विभीषणजी के पक्ष में कहते हैं। उनका भक्ति भाव मर्यादा से युक्त है।


3. शबरीजी की "भायप भक्ति"

शबरीजी की भक्ति में श्रद्धा, प्रेम, सेवा और संकोच का अद्भुत संतुलन है।

(क) प्रतीक्षा और सेवा

शबरीजी वर्षों तक श्रीराम के आगमन की प्रतीक्षा करती रहीं। जब श्रीराम आए, तो उन्होंने अत्यंत श्रद्धा से फल अर्पित किए—

प्रीति सहित हरषि फल दीन्हे। प्रभु खाए प्रेम सहित लीन्हे॥ (अरण्य कांड, 36.2)

अर्थ:
शबरीजी ने प्रेमपूर्वक श्रीराम को फल दिए, और प्रभु ने प्रेम सहित उन्हें स्वीकार किया।

विशेषता: शबरीजी अपनी भक्ति में अत्यंत संकोचशील हैं। वे प्रेम से भक्ति करती हैं, किंतु दिखावे से दूर रहती हैं।


4. विभीषणजी की "भायप भक्ति"

विभीषणजी की भक्ति में श्रद्धा और संकोच का सुंदर संतुलन है। वे जब श्रीराम की शरण में आते हैं, तो अत्यंत विनम्र होकर कहते हैं—

शरणागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि।
ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकति हानि॥ (लंका कांड, 17.3)

अर्थ:
जो व्यक्ति शरण में आए हुए को अपने अहित की आशंका से ठुकरा देता है, वह अत्यंत नीच और पापमय होता है। उसकी निंदा करना भी अनुचित है।

विशेषता: विभीषणजी श्रीराम के प्रति श्रद्धा रखते हैं, किंतु संकोच भी करते हैं। वे स्पष्ट रूप से अपने पक्ष में तर्क नहीं देते, बल्कि विनम्र भाव से शरणागत होने की व्याख्या करते हैं।


5. जनकजी की "भायप भक्ति"

जनकजी की भक्ति ज्ञानयुक्त थी, किंतु उसमें संकोच और मर्यादा स्पष्ट रूप से देखी जाती है। जब श्रीराम का विवाह सीताजी से होता है, तब वे अत्यंत विनम्र होकर कहते हैं—

जोगु न भागु न राजु मराला। जासु कृपा पावउँ प्रभु काला॥ (बालकांड, 319.4)

अर्थ:
हे प्रभु! न तो मेरे पास योग है, न भाग्य, न राज्य, फिर भी आपकी कृपा से मैं आपको पा रहा हूँ।

विशेषता: जनकजी की भक्ति संकोच, ज्ञान और मर्यादा से युक्त है। वे स्वयं को श्रीराम के योग्य नहीं मानते, किंतु उनकी कृपा को स्वीकार करते हैं।


1. श्रीमद्भागवत महापुराण

(क) विदुरजी की भायप भक्ति

विदुरजी की भक्ति में प्रेम, संकोच और समर्पण का अद्भुत मिश्रण देखने को मिलता है। जब श्रीकृष्ण कौरवों के दूत बनकर हस्तिनापुर जाते हैं, तो दुर्योधन उनका अपमान करता है। तब श्रीकृष्ण विदुरजी के घर पधारते हैं। विदुरजी संकोचवश कुछ न होने पर भी उन्हें प्रेमपूर्वक केले के छिलके खिलाने लगते हैं—

सा भाग्यवन्ती विदुरस्य भार्या।
या लेशमात्रं प्रभुणोपभुक्तम्॥ (भागवत महापुराण 10.68.26)

अर्थ:
विदुरजी की पत्नी कितनी सौभाग्यशालिनी हैं कि स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने उनके हाथ से थोड़ा सा भोजन ग्रहण किया!

विशेषता: विदुरजी की भक्ति में संपत्ति या साधनों का कोई महत्व नहीं था। वे श्रीकृष्ण के प्रेम में इतने तन्मय हो गए कि उन्हें यह भी ध्यान नहीं रहा कि वे केले के छिलके परोस रहे हैं।


(ख) गजेंद्र की भायप भक्ति

गजेंद्र ने जब मगर के चंगुल में फँसकर भगवान को पुकारा, तो उनकी भक्ति में संकोच, विनय और पूर्ण समर्पण स्पष्ट रूप से प्रकट होता है—

न यस्य कश्चिद दयितोऽस्ति करहिचिद् द्वेष्यश्च यस्मिन विशुद्धम्।। (भागवत 8.3.32)

अर्थ:
हे प्रभु! आपका कोई प्रिय या शत्रु नहीं है। आप तो सभी के प्रति समभाव रखते हैं, कृपया मेरी रक्षा करें।

विशेषता: गजेंद्र अहंकार त्यागकर पूर्ण समर्पण करता है। वह शक्ति होने पर भी अपनी शक्ति पर भरोसा नहीं करता, बल्कि संकोचपूर्वक श्रीहरि को पुकारता है।


2. वाल्मीकि रामायण

(क) शबरीजी की भायप भक्ति

वाल्मीकि रामायण में भी शबरीजी की भक्ति का उल्लेख मिलता है। वे अत्यंत संकोच के साथ श्रीराम का स्वागत करती हैं और कहती हैं—

किं करिष्यामि ते राम किं मया नोपपद्यते।
भक्त्या तु हृदि संप्राप्तं न त्यजामि कथंचन॥ (अरण्यकांड, 74.18)

अर्थ:
हे राम! मैं आपके लिए क्या कर सकती हूँ? मेरे पास कुछ भी योग्य नहीं है, लेकिन मेरी भक्ति आपके हृदय में समाई हुई है, इसे मैं छोड़ नहीं सकती।

विशेषता: शबरीजी की भक्ति में संकोच और प्रेम का अद्भुत समन्वय है। वे अपने सामर्थ्य की चिंता न करके केवल प्रेमपूर्वक श्रीराम की आराधना करती हैं।


(ख) विभीषणजी की भायप भक्ति

जब विभीषण श्रीराम की शरण में आते हैं, तब वे अत्यंत संकोचपूर्वक कहते हैं—

दोषो यद्यपि मे नाथ तवाग्रे नोपपद्यते।
शरणं प्रपद्ये राम तवाहं दीनवत्सल॥ (युद्धकांड, 19.14)

अर्थ:
हे नाथ! मुझमें बहुत दोष हो सकते हैं, परंतु मैं दीन हूँ और आपकी शरण में आया हूँ। कृपया मुझे स्वीकार करें।

विशेषता: विभीषणजी की भक्ति में संकोच और विनम्रता है। वे अपने दोषों को स्वीकार करते हुए भी श्रीराम की कृपा माँगते हैं।


3. भगवद्गीता

(क) अर्जुन की भायप भक्ति

जब अर्जुन मोह और दुविधा में होते हैं, तब वे श्रीकृष्ण के समक्ष संकोचपूर्वक अपनी स्थिति व्यक्त करते हैं—

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः।
प्रच्छामि त्वां धर्मसंमूढचेताः॥ (भगवद्गीता 2.7)

अर्थ:
हे कृष्ण! मैं कायरता के दोष से आक्रांत हो गया हूँ और धर्म के विषय में अत्यंत भ्रमित हूँ। कृपया मुझे शरण दें।

विशेषता: अर्जुन की भक्ति संकोच, श्रद्धा और पूर्ण समर्पण से युक्त है। वे पहले योद्धा के रूप में श्रीकृष्ण को आदेश देते हैं, किंतु अंततः उनके शरणागत हो जाते हैं।


4. हरिवंश पुराण

(क) उद्धवजी की भायप भक्ति

जब उद्धवजी गोपियों के बीच श्रीकृष्ण का संदेश लेकर जाते हैं, तब वे गोपियों की भक्ति देखकर स्वयं संकोच अनुभव करते हैं और श्रीकृष्ण से कहते हैं—

नाहं गच्छामि वैकुण्ठं न च कैलासमुत्तमम्।
व्रज गच्छामि गोपीनाम् पादरेणूबलिं वहे॥ (हरिवंश पुराण, 2.13.24)

अर्थ:
हे कृष्ण! मैं न वैकुण्ठ जाना चाहता हूँ और न कैलाश, बल्कि मैं तो गोपियों के चरणों की रज में लिपट जाना चाहता हूँ।

विशेषता: उद्धवजी की भक्ति संकोच और आत्मसमर्पण से युक्त है। वे गोपियों की भक्ति को स्वयं से श्रेष्ठ मानते हैं।


5. संत साहित्य (रामानुज, तुलसी, सूर, कबीर)

(क) रामानुजाचार्य की भायप भक्ति

रामानुजाचार्य ने श्रीरंगनाथ भगवान की भक्ति को अत्यंत संकोचपूर्वक प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा—

न मे भवेद् भवदनुग्रह एष एव।
त्वत्पादपद्मशरणं यतस्तु मे॥

अर्थ:
हे प्रभु! यदि आपकी कृपा मुझ पर न हो, तो मेरा जीवन व्यर्थ है। मैं केवल आपके चरणों की शरण में रहना चाहता हूँ।

विशेषता: रामानुजाचार्य स्वयं को अत्यंत तुच्छ मानकर भक्ति करते हैं।


(ख) सूरदासजी की भायप भक्ति

सूरदासजी ने कृष्ण से प्रार्थना की—

मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायो।
मोसों कहत मोल को लायो॥

अर्थ:
हे कृष्ण! मैं तुच्छ हूँ, किंतु फिर भी आप मुझ पर कृपा करें।

विशेषता: सूरदासजी संकोच और प्रेम से भक्ति व्यक्त करते हैं।


निष्कर्ष

"भायप भगति" एक ऐसी भक्ति है, जिसमें—
संकोच और विनम्रता
प्रेम और श्रद्धा
पूर्ण समर्पण और मर्यादा
निष्काम सेवा
शरणागत भाव
का अद्भुत संतुलन होता है।

यह भक्ति रामचरितमानस, श्रीमद्भागवत, वाल्मीकि रामायण, भगवद्गीता, हरिवंश पुराण, संत साहित्य आदि में विभिन्न भक्तों के माध्यम से प्रकट हुई है।

"भायप भगति" केवल भरतजी तक सीमित नहीं है, बल्कि यह श्रद्धा, प्रेम, सेवा और संकोच युक्त भक्ति सभी श्रेष्ठ भक्तों में पाई जाती है। यह भक्ति—
✔ लक्ष्मणजी में सेवा और त्याग
✔ हनुमानजी में दास्यभाव और संकोच
✔ शबरीजी में प्रेम और प्रतीक्षा
✔ विभीषणजी में शरणागति और संकोच
✔ जनकजी में ज्ञान और मर्यादा
के रूप में प्रकट होती है।

"भायप भगति" के अन्य ग्रंथों में उदाहरण

"भायप भगति", जिसमें श्रद्धा, प्रेम, संकोच, मर्यादा और सेवा का अद्भुत समन्वय होता है, केवल रामचरितमानस तक सीमित नहीं है। अन्य ग्रंथों में भी ऐसे भक्तों के उदाहरण मिलते हैं, जिनकी भक्ति में यह विशेषताएँ स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती हैं।

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भागवत दर्शन: भायप भगति भरत आचरनू। कहत सुनत दुख दूषन हरनू॥
भायप भगति भरत आचरनू। कहत सुनत दुख दूषन हरनू॥
भायप भगति भरत आचरनू। कहत सुनत दुख दूषन हरनू॥, रामचरितमानस की विशिष्ट चौपाइयों का विश्लेषण,"भायप भगति" का विश्लेषण, 'भायप भगति' का आध्यात्मिक संदेश।
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भागवत दर्शन
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