संस्कृत श्लोक: "भवानी शंकरौ वन्दे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ" का अर्थ, हिन्दी अनुवाद और विश्लेषण, रामचरितमानस, तुलसीदास, संस्कृत श्लोक, भागवत दर्शन।
![]() |
संस्कृत श्लोक: "भवानी शंकरौ वन्दे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ" का अर्थ, हिन्दी अनुवाद और विश्लेषण |
संस्कृत श्लोक: "भवानी शंकरौ वन्दे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ" का अर्थ, हिन्दी अनुवाद और विश्लेषण
शब्दार्थ सहित व्याख्या
प्रत्येक शब्द का अर्थ
- भवानी – माता पार्वती, शिव की शक्ति
- शंकरौ – भगवान शिव (यह द्विवचन है, अतः "भवानी और शंकर" दोनों के लिए प्रयुक्त हुआ है)
- वन्दे – मैं वंदना करता हूँ, प्रणाम करता हूँ
- श्रद्धा – श्रद्धा, गहरी आस्था, समर्पण
- विश्वास – निश्चय, दृढ़ आस्था
- रूपिणौ – रूप वाले, स्वरूपधारी (यह द्विवचन है, इसलिए "श्रद्धा और विश्वास के रूप में")
- याभ्यां – जिनके द्वारा, जिनसे (द्विवचन रूप)
- बिना – बिना, अभाव में
- न – नहीं
- पश्यन्ति – देखते हैं, अनुभव करते हैं
- सिद्धाः – सिद्ध पुरुष, जो आध्यात्मिक रूप से उच्च स्थिति में पहुँच चुके हैं
- स्वान्तःस्थम् – हृदय में स्थित
- ईश्वरम् – ईश्वर, परमात्मा
व्याख्या
इस श्लोक में भगवान शिव और माता पार्वती को श्रद्धा और विश्वास का प्रतीक बताया गया है। बिना श्रद्धा और विश्वास के, सिद्ध पुरुष भी अपने हृदय में स्थित ईश्वर का साक्षात्कार नहीं कर सकते। यह श्लोक आध्यात्मिक उन्नति के लिए श्रद्धा और विश्वास की अनिवार्यता को दर्शाता है।
हिन्दी अनुवाद
मैं भवानी (माता पार्वती) और शंकर (भगवान शिव) की वंदना करता हूँ, जो श्रद्धा और विश्वास के रूप हैं। जिनके बिना सिद्धजन भी अपने हृदय में स्थित ईश्वर का साक्षात्कार नहीं कर सकते।
श्लोक का विश्लेषण
1. श्रद्धा और विश्वास का तात्त्विक अर्थ
इस श्लोक में "श्रद्धा" और "विश्वास" को अत्यंत महत्वपूर्ण तत्त्वों के रूप में प्रस्तुत किया गया है। श्रद्धा का अर्थ है—पूर्ण समर्पण और निष्ठा, जबकि विश्वास का अर्थ है—अडिग आस्था और निश्चय। धर्म, साधना और आध्यात्मिक अनुभवों में ये दोनों अनिवार्य हैं।
2. शिव-पार्वती का प्रतीकात्मक रूप
- भवानी (पार्वती) = श्रद्धा: बिना श्रद्धा के साधक अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकते। श्रद्धा साधना का मूल आधार है।
- शंकर (शिव) = विश्वास: विश्वास वह शक्ति है जो हमें साधना में निरंतर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है।
3. सिद्धों के लिए भी अनिवार्य
श्लोक कहता है कि "याभ्यां बिना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्"—यानी जो साधक सिद्ध भी हो चुके हैं, वे भी बिना श्रद्धा और विश्वास के हृदयस्थ परमेश्वर (आत्मा में स्थित ब्रह्म) का साक्षात्कार नहीं कर सकते। यह सिद्ध करता है कि आत्म-साक्षात्कार के लिए ज्ञान के साथ-साथ श्रद्धा और विश्वास भी आवश्यक हैं।
आधुनिक सन्दर्भ में प्रासंगिकता
1. शिक्षा और आत्मविकास में श्रद्धा और विश्वास
आज के समय में भी ज्ञान प्राप्ति के लिए श्रद्धा और विश्वास आवश्यक हैं। एक छात्र यदि शिक्षक और शिक्षा के प्रति श्रद्धा रखता है तथा अपने ऊपर विश्वास बनाए रखता है, तो वह सफलता की ओर बढ़ता है।
2. आध्यात्मिक साधना में
कई लोग साधना तो करते हैं, लेकिन श्रद्धा या विश्वास की कमी के कारण उन्हें गहरे आध्यात्मिक अनुभव नहीं होते। यदि व्यक्ति अपनी साधना के प्रति श्रद्धा रखे और ईश्वर के साक्षात्कार में विश्वास बनाए रखे, तो आध्यात्मिक उन्नति संभव है।
3. दैनिक जीवन में
कोई भी कार्य करने के लिए श्रद्धा (लगन और समर्पण) और विश्वास (स्वयं पर भरोसा) आवश्यक हैं। चाहे व्यवसाय हो, कला हो या कोई अन्य क्षेत्र, ये दोनों गुण सफलता के मूल मंत्र हैं।
श्लोक का शास्त्रीय सम्बन्ध और विश्लेषण
तुलसीदास जी ने श्रद्धा और विश्वास को उमा और शिव का रूप मानते हैं और कहते हैं कि योग में सिद्धि प्राप्त करने वाले सिद्ध भी बिना श्रद्धा और विश्वास के अंतर्स्थित ईश्वर की प्राप्ति नहीं कर सकते। जिस किसी भी चीज़ को हम जानना चाहते हैं उसके अनुभव को बिना जाने दिल से मन लेने को श्रद्धा कहते हैं। मन को धारण करने के बाद उस पर निरंतर विश्वास का होना ही फलोत्पादक होता है, ऐसे मन में धारण करना सिद्धि प्राप्त करना नितांत आवश्यक है।
श्रद्धावान मनुष्य जीवन के आधार-भूत सिद्धांतों में से एक है जिससे वह पूर्ण विकास की ओर गति करता है। श्रद्धा न हो तो मानवीय सांस्कृतिक सुख प्राप्त करके भी आध्यात्मिक सुख प्राप्त नहीं कर सकते क्योंकि जिन गुणों से आध्यात्मिक सुख प्राप्त होता है उनकी पृष्ठभूमि श्रद्धा पर ही अनुमोदित है।
भवानी शंकरौ वन्दे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ।
याभ्यां बिना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्॥
शंकर विश्वास है तो भवानी श्रद्धा। दोनों की आराधना से ही सिद्धि या अंतःकरण में स्थित परमात्म देव के दर्शन होते हैं।
शिवत्व अर्थात जीवन के अवशेष का संहार-ईश्वर प्राप्ति का प्रमुख कारण है भगवान शिव का एकान्त अपूर्ण होना, उन्हें भी चाहिए। उमा अर्थात् गुणधर्म का अभिवर्धन। शिव का अर्थ असुरता का संहार है और भवानी का अर्थ भावना का परिहार है। शिव के रूप में विश्वास दृढ़ होता है, कठिन होता है पर भवानी के रूप में श्रद्धा सरल और सुखदायक होती है। मूलतः विश्वास जगाना हो तो श्रद्धा की शरण लेनी चाहिए। श्रद्धा साधना को सरल बनाया गया है, सुख रूप कर दिया गया है।
श्रद्धा का समावेश मनुष्य के पार-लौकिक जीवन को भी आनंददायक बनाता है। मनुष्य की मृत्यु से दुःखी इसलिए रहता है कि वह उसे अकेले जाना जानता है। भय की, भूल की, अज्ञान की जड़ अकेलापन है। उन सभी को दुःख है पर हृदय की श्रद्धा जीवित रह रही है तो अकेलापन भी अखरता नहीं। श्रद्धा स्वयं अंतःकरण में आनंद का उद्रेक करती है तो ऐसा अहोभाव होता है कि हमारी प्रिय वस्तु हमारे बहुत करीब है, अपनी कल्पना में ही ओट-प्रोत है। अपने अन्तर्देवता श्रद्धा के वश में है, वह आपके आध्यात्म की अन्तःकरण में ही करता है। उसे इंसान को कोट तृप्ति देता है।
श्रद्धा ही मनुष्य के जीवन का आदर्श होना है। श्रद्धा का अर्थ है ईश्वर विश्वास और आत्म विश्वास का अर्थ है ईश्वर विश्वास। श्रद्धा आस्तिकता की धुरी है।
शास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जना:।
दंभहङकारसंयुक्ता: कामराग्बलान्विता:॥
कर्षयन्त: शरीरस्थं भूतग्राममचेतस:।
मां चैवन्त:शरीरस्थं तान्विद्यासुरनिश्चयान्॥
अध्यात्म के नाम पर लोग निरर्थक तपस्या करते हैं। कुछ लोग भौतिक अस्तित्व पर प्रभुत्व के लिए काँटों की सेज पर लेटते हैं या अपने शरीर में कीलें ठोंकते हैं। अन्य लोग वर्षों तक एक हाथ ऊपर उठाए रखते हैं, क्योंकि उन्हें विश्वास है कि इससे उन्हें रहस्यमयी क्षमताएँ प्राप्त होंगी। कुछ लोग लगातार सूर्य को देखते रहते हैं, इस बात की परवाह किए बिना कि इससे उनकी आँखों को कितना नुकसान पहुँचता है। अन्य लोग काल्पनिक भौतिक लाभों के लिए अपने शरीर को जलाकर लंबे उपवास करते हैं।
श्रीकृष्ण कहते हैं: "हे अर्जुन, तुमने मुझसे उन लोगों की स्थिति के बारे में पूछा था जो शास्त्रों के आदेशों की अवहेलना करते हैं और फिर भी श्रद्धा के साथ पूजा करते हैं। मैं तुम्हें बता रहा हूँ कि कठोर तपस्या करने वाले लोगों में भी श्रद्धा दिखाई देती है, लेकिन यह ज्ञान के उचित आधार से रहित होती है। ऐसे लोगों को अपनी साधना की प्रभावकारिता पर गहरा विश्वास होता है, लेकिन उनकी श्रद्धा अज्ञानता की अवस्था में होती है। जो लोग अपने भौतिक शरीर का दुरुपयोग करते हैं और उसे पीड़ा पहुँचाते हैं, वे भीतर निवास करने वाले परमात्मा का अनादर करते हैं। ये सभी शास्त्रों के अनुशंसित मार्ग के विपरीत हैं।
मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते।
स गुणांसमतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते॥
जो लोग अनन्य भक्ति से मेरी सेवा करते हैं, वे प्रकृति के तीनों गुणों से ऊपर उठकर ब्रह्म के स्तर पर पहुँच जाते हैं।
यजन्ते सात्त्विका देवन्यारक्षान्सि राजसा:।
प्रेतान्भूतगणाश्चन्ये यजन्ते तामसा जना: ॥
ऐसा कहा जाता है कि अच्छे लोग अच्छे की ओर आकर्षित होते हैं और बुरे लोग बुरे की ओर। तमोगुण वाले लोग भूत-प्रेतों की ओर आकर्षित होते हैं, भले ही ऐसे प्राणी दुष्ट और क्रूर स्वभाव के हों। जो लोग राजसिक होते हैं, वे यक्षों (शक्ति और धन से भरपूर अर्ध-आकाशीय प्राणी) और राक्षसों (ऐसी शक्तिशाली प्राणी जो कामुक भोग, प्रतिशोध और क्रोध का प्रतीक होते हैं) की ओर आकर्षित होते हैं । वे इन निम्न प्राणियों को प्रसन्न करने के लिए जानवरों का खून भी चढ़ाते हैं, इस तरह की नीच पूजा के औचित्य पर विश्वास करते हुए। जो लोग सत्वगुण से युक्त होते हैं , वे उन दिव्य देवताओं की पूजा की ओर आकर्षित होते हैं जिनमें वे अच्छाई के गुण देखते हैं।
अतः मैं —
सत्त्वं मूलं वासुदेवशब्दितं
यदीयते तत्र पुमानपावृत:।
सत्त्वे च तस्मिन्भगवान्वासुदेवो
ह्यधोक्षजो मे मनसा विधीयते ॥
मैं सदैव शुद्ध कृष्णभावनामृत में भगवान वासुदेव को नमस्कार करने में लगा रहता हूँ। कृष्णभावनामृत सदैव शुद्ध चेतना है, जिसमें वासुदेव नाम से विख्यात भगवान बिना किसी आवरण के प्रकट होते हैं।
निष्कर्ष
यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि आत्मसाक्षात्कार हो या सांसारिक सफलता—श्रद्धा और विश्वास के बिना कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता। शिव और पार्वती केवल देवी-देवता ही नहीं, बल्कि साधना के दो अनिवार्य स्तंभ भी हैं। जब श्रद्धा और विश्वास एक साथ होते हैं, तब हम अपने जीवन के परम लक्ष्य की ओर अग्रसर होते हैं।
COMMENTS