मानवता के क्षय पर एक गंभीर प्रश्न: सभ्यता और प्रगति की सच्ची परिभाषा,"किसे सभ्यता कहते हो नर! क्या है प्रगति की परिभाषा?, सीखा न इतिहास से कुछ भी, मान
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मानवता के क्षय पर एक गंभीर प्रश्न: सभ्यता और प्रगति की सच्ची परिभाषा |
मानवता के क्षय पर एक गंभीर प्रश्न: सभ्यता और प्रगति की सच्ची परिभाषा
डॉ. निशा कान्त द्विवेदी द्वारा रचित ये पंक्तियाँ हमें यह सोचने पर विवश करती हैं कि क्या वास्तव में हम सभ्य और विकसित हो रहे हैं, या फिर हमारी प्रगति केवल भौतिक उपलब्धियों तक सीमित रह गई है? क्या यह विकास सच में मानवता के उत्थान के लिए है, या हम धीरे-धीरे अपनी मूल संवेदनशीलता और नैतिकता को खोते जा रहे हैं?
सभ्यता और प्रगति की सच्ची परिभाषा
सभ्यता का तात्पर्य केवल ऊँची इमारतों, आधुनिक तकनीकों, या आर्थिक उन्नति से नहीं है। यदि मानवीय संवेदनाएँ समाप्त हो रही हैं, यदि मनुष्य अपने स्वार्थ, हिंसा और प्रतिस्पर्धा में इतना लिप्त हो गया है कि दूसरों के सुख-दुःख की उसे कोई परवाह नहीं, तो क्या इसे सभ्यता कहा जा सकता है?
वास्तव में, सच्ची सभ्यता वही होती है, जहाँ मनुष्य केवल अपने भौतिक सुखों के पीछे नहीं भागता, बल्कि सह-अस्तित्व, प्रेम, करुणा और नैतिक मूल्यों का पालन करता है। लेकिन दुर्भाग्यवश, आधुनिक समाज में सभ्यता और प्रगति का अर्थ केवल वैज्ञानिक एवं तकनीकी उन्नति तक ही सीमित हो गया है।
युद्ध और मानवता का पतन
कवि प्रश्न करते हैं:
इतिहास इस बात का साक्षी है कि युद्धों ने केवल विनाश ही लाया है। चाहे वह प्राचीन समय के साम्राज्यों की लड़ाइयाँ हों, या आधुनिक विश्वयुद्ध—इन सभी ने मानवता को गहरे घाव दिए हैं। किसी भी युद्ध के अंत में न तो कोई विजेता होता है और न कोई पराजित, क्योंकि हारता तो केवल मनुष्य ही है, और जीतती है केवल विनाशलीला।
युद्धों की भयावहता को दर्शाते हुए कवि लिखते हैं:
जब भी कोई युद्ध होता है, तब सबसे अधिक पीड़ा मासूमों को होती है। उनकी हँसी, उनकी शांति और उनके सपने—सबकुछ नष्ट हो जाता है। युद्धों के बाद जो बचता है, वह केवल उजड़ा हुआ संसार, विधवाओं की करुण पुकार और अनाथ बच्चों की निरीह आँखें होती हैं।
इतिहास से सीख न लेने की त्रासदी
"इतिहास से सीखो"—यह वाक्य हम बार-बार सुनते हैं, पर क्या हमने वास्तव में इतिहास से कुछ सीखा है? कवि की ये पंक्तियाँ हमें इस पर सोचने के लिए मजबूर करती हैं:
इतिहास हमें यही सिखाता है कि जब भी मनुष्य ने अहंकार में चूर होकर युद्ध, हिंसा और असंवेदनशीलता का मार्ग अपनाया है, तब तब उसने स्वयं को ही नष्ट किया है। फिर भी, हम बार-बार उन्हीं भूलों को दोहराते रहते हैं।
आज की दुनिया और कविता की प्रासंगिकता
आज भी हम चारों ओर युद्ध, आतंकवाद, हिंसा और असमानता को देखते हैं। राष्ट्र अपने अस्तित्व और सत्ता की रक्षा के नाम पर हथियारों की होड़ में लगे हुए हैं। व्यक्ति-व्यक्ति के बीच भी स्वार्थ, प्रतिस्पर्धा और असहिष्णुता बढ़ रही है। ऐसे में, यह कविता हमें आत्ममंथन करने के लिए प्रेरित करती है।
क्या यह वास्तविक प्रगति है? क्या यही सभ्यता का स्वरूप है? क्या हम अपने भौतिक विकास को ही सबकुछ मानकर अपनी आत्मा और मूल्यों को भूल चुके हैं? यदि ऐसा है, तो यह चिंता का विषय है।
समाधान और एक नई दिशा
इस समस्या का समाधान केवल बाहरी नीतियों और व्यवस्थाओं में नहीं, बल्कि हमारे भीतर है। हमें अपने भीतर करुणा, संवेदनशीलता और नैतिकता को पुनः जाग्रत करना होगा। हमें यह समझना होगा कि सच्ची सभ्यता वह नहीं, जिसमें मनुष्य ऊँची-ऊँची इमारतें बना ले, बल्कि वह है, जिसमें मनुष्य का दिल विशाल हो, जिसमें दया, प्रेम और सह-अस्तित्व की भावना हो।
इसलिए, यह कविता केवल एक शाब्दिक अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि एक चेतावनी है—एक आह्वान है कि मनुष्य को अब भी संभल जाना चाहिए। उसे अपनी वास्तविक पहचान को पुनः खोजने की आवश्यकता है। तभी वह वास्तव में "सभ्य" और "विकसित" कहलाने के योग्य होगा।
निष्कर्ष
डॉ. निशा कान्त द्विवेदी की यह कविता हमें सभ्यता और प्रगति की सच्ची परिभाषा पर पुनर्विचार करने के लिए प्रेरित करती है। यदि हमने समय रहते आत्मचिंतन नहीं किया और इतिहास से सीख नहीं ली, तो हम अपनी ही बनाई हुई दुनिया में खो जाएंगे। लेकिन यदि हम करुणा, शांति और नैतिकता के मार्ग पर चलें, तो न केवल हम स्वयं सुखी होंगे, बल्कि समस्त मानवता के लिए भी सच्ची सभ्यता और प्रगति का मार्ग प्रशस्त करेंगे।
सम्पूर्ण कविता
किसे सभ्यता कहते हो नर!
क्या है प्रगति की परिभाषा?
मानव निगल रहा मानवता
किससे कौन करे क्या आशा...!
युद्ध कहाँ, कब फला है किसको,
जीता कौन, कौन है हारा?
दिखी चीखती मानवता ही,
बहे अश्रु-जल धारा...
सदा सभ्यता व विकास का,
दम्भ स्वयं भरने वाला!
सीखा न इतिहास से कुछ भी,
मानव! तू है तिल-तिल हारा।।
-✍️ डॉ निशा कान्त द्विवेदी 🙏
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