नाम रखने का विज्ञान: क्या नाम पाप को नष्ट कर सकता है ? भारतीय संस्कृति, वैदिक संस्कृति, भागवत दर्शन सूरज कृष्ण शास्त्री।
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नाम रखने का विज्ञान: क्या नाम पाप को नष्ट कर सकता है ? |
नाम रखने का विज्ञान: क्या नाम पाप को नष्ट कर सकता है ?
नामकरण संस्कार, ज्योतिष, पूर्वमीमांसा और अर्थवाद का विशद विश्लेषण
इसका सामान्य अर्थ यह है कि जब कोई पुत्र जन्म लेता है, तो उसका नामकरण किया जाना चाहिए, क्योंकि यह पापों को दूर करता है। इसके लिए एक नहीं, बल्कि तीन नाम रखे जाते हैं, जिससे क्रमशः और भी अधिक पाप दूर होते हैं।
अब इस विषय को गृह्यसूत्र, ज्योतिष, पूर्वमीमांसा, व्याकरण और अर्थवाद के संदर्भ में क्रमबद्ध रूप से विश्लेषित करते हैं—
1. नामकरण संस्कार के तीन नाम—
गृह्यसूत्रों और परंपरागत व्याख्याओं के अनुसार, नामकरण के तीन प्रकार बताए गए हैं—
(1) नक्षत्र नाम (गुप्त नाम / आध्यात्मिक नाम)
- यह नाम बच्चे के जन्म नक्षत्र के आधार पर रखा जाता है।
- इसका प्रयोग ज्योतिषीय उपायों, यज्ञों और आध्यात्मिक कर्मों में किया जाता है।
- यह गुप्त रखा जाता है ताकि कोई शत्रु इसके आधार पर अभिचार कर्म (तांत्रिक अनुष्ठान) न कर सके।
- उदाहरण: यदि किसी का जन्म रोहिणी नक्षत्र में हुआ है, तो उसका नाम 'रोहित' या 'रोहिणेश' हो सकता है।
संदर्भ
- आपस्तंब गृह्यसूत्र (15.8): "दशाम्यामुत्थितायां स्नातायां पुत्रस्य नाम दधाति पिता मातेति।"(दसवें दिन, माता स्नान करने के बाद पिता के साथ मिलकर बालक का नाम रखते हैं।)
(2) व्यावहारिक नाम (लोक व्यवहार का नाम)
- यह नाम समाज में पहचान के लिए होता है।
- इस नाम को रखने के लिए कुल परंपरा, कुलदेवता, गुण-धर्म, जातीय पहचान, ऐतिहासिक महापुरुषों के नाम आदि का ध्यान रखा जाता है।
- यह नाम ऐसा होना चाहिए जिससे धार्मिक प्रभाव भी पड़े।
- उदाहरण: यदि परिवार में विष्णु उपासना प्रचलित है, तो नाम "माधव", "हरि" या "गोविंद" रखा जा सकता है।
संदर्भ
- आपस्तंब गृह्यसूत्र (15.9): "द्व्यक्षरं चतुरक्षरं वा नाम।"(नाम दो अक्षरों या चार अक्षरों का हो सकता है।)
(3) तीसरा नाम (संस्कारिक / आधिकारिक नाम)
- यह नाम विशेष अवसरों या धार्मिक कृत्यों में उपयोग होता है।
- यह कोई यज्ञीय नाम, संन्यास नाम, दीक्षा नाम, या तांत्रिक नाम भी हो सकता है।
- इसका उल्लेख विशेष रूप से स्पष्ट नहीं है, लेकिन यह संभवतः विशेष यज्ञों में उच्चारित होने वाला नाम होता है।
- उदाहरण: "आहिताग्नि" (जो अग्नि का वहन करता है) यह नाम यज्ञ करने वाले ब्राह्मणों के लिए प्रयुक्त होता है।
संदर्भ
- शतपथ ब्राह्मण (6.1.3.10): "अभिपूर्वम् एवास्य तत् पाप्मानम् अपहन्ति।"(तीसरे नाम से उसके पहले के सभी पापों का शोधन हो जाता है।)
2. क्या नामकरण ज्योतिषीय प्रभाव को कम करता है?
ज्योतिष के अनुसार, व्यक्ति के नाम का प्रभाव उसकी कुंडली और ग्रह स्थिति पर पड़ता है।
(A) नक्षत्र नाम और पाप नाश
- यदि कोई बालक मूल नक्षत्र में जन्म लेता है (जैसे, आश्लेषा, मूल, ज्येष्ठा), तो उसके नकारात्मक प्रभावों को कम करने के लिए विशेष नामकरण किया जाता है।
- यमलराज व्रत, ग्रह शांति, महामृत्युंजय जाप जैसे उपाय भी किए जाते हैं।
- नाम का पहला अक्षर उसके जन्म नक्षत्र के आधार पर रखने से ग्रहों का संतुलन होता है।
संदर्भ
- बृहत्पराशर होराशास्त्र (अध्याय 81): "नक्षत्राध्यायेन नाम्नः प्रभावः।"(नक्षत्र के अनुसार नाम रखने से ग्रहों के प्रभाव का नियंत्रण किया जाता है।)
(B) व्यावहारिक नाम और धार्मिक प्रभाव
- यदि किसी का नाम श्रीराम, हरिहर, शिवशंकर आदि होता है, तो उसके उच्चारण से पाप क्षय होता है।
- यह नाम भी माता-पिता के लिए पुण्यदायक होता है।
संदर्भ
- विश्नुधर्मोत्तर पुराण: "हरिर्नाम्नि स्तुतः पापं हरति।"(हरि नाम के उच्चारण से पाप दूर होते हैं।)
3. पूर्वमीमांसा और अर्थवाद का विश्लेषण
पूर्वमीमांसा के अनुसार, अर्थवाद वे वाक्य होते हैं जो कर्म करने के लिए प्रेरित करते हैं लेकिन स्वयं किसी विधि को प्रतिपादित नहीं करते।
(A) पाप्मानम् अपहन्ति – क्या यह विधि है या अर्थवाद?
- यह वाक्य अर्थवाद के अंतर्गत आता है, क्योंकि यह यह नहीं कहता कि "नामकरण करने से निश्चित रूप से पाप नष्ट होंगे" बल्कि यह नामकरण की महिमा को प्रदर्शित करता है।
- पूर्वमीमांसा में कहा गया है कि अर्थवाद का कार्य विधि को बल देना है, यानी यह वाक्य लोगों को नामकरण के प्रति प्रेरित करने के लिए कहा गया है।
संदर्भ
- शबरभाष्य (मीमांसा सूत्र 1.2.1): "अर्थवादः स्तुतिपरत्वात् विधिशेषः।"(अर्थवाद केवल स्तुति के लिए होता है, यह विधि का अंग होता है।)
आपका दृष्टिकोण पूर्वमीमांसा और अद्वैत वेदांत के भीतर नित्य-नैमित्तिक कर्मों के पापक्षयकारी प्रभाव की परंपरा पर आधारित है, जो कि शास्त्रसम्मत है। आपकी बात सही है कि शतपथ ब्राह्मण (6.1.3.10) के "पाप्मानम् एवास्य तद् अपहन्ति" वाक्य को केवल अर्थवाद मान लेना ही अनिवार्य नहीं है—इसे विधि के रूप में भी लिया जा सकता है, विशेषकर यदि हम मीमांसा दृष्टिकोण से कर्म की अनिवार्यता और फल की अपरिहार्यता को स्वीकार करें।
1. पूर्वमीमांसा में कर्म और पापक्षय का संबंध
(A) कुमारिल भट्ट की मीमांसा व्याख्या
कुमारिल भट्ट (तंत्रवार्तिक, 1.3.27) में स्पष्ट रूप से कहते हैं कि—
"प्रत्याश्रमवर्णनीयतानि नित्यनैमित्तककर्मण्यपि पूर्वकृतदुरितक्षयार्थं अकारणनिमित्तनगतप्रत्यवायपरिहारार्थं च कार्तव्यनि।"
(अर्थात्, प्रत्येक आश्रम और वर्ण के लिए निर्धारित नित्य और नैमित्तिक कर्मों का अनुष्ठान पूर्वकृत दुरित (पाप) के क्षय के लिए तथा प्रत्यवाय (कर्म न करने से उत्पन्न दोष) के परिहार के लिए किया जाना चाहिए।)
इस व्याख्या के अनुसार, यदि कोई कर्म "पूर्वकृत पाप का नाश" करता है, तो वह मात्र स्तुत्यर्थवाद नहीं है, बल्कि एक विधि (अनिवार्य कर्म) है।
(B) शंकराचार्य की व्याख्या—
शंकराचार्य (तैत्तिरीयोपनिषद् भाष्य, 1.11) में लिखते हैं—
"नित्यन्याधिगतानि कर्मानुपत्तदुरितक्षयार्थानि।"
(अर्थात्, नित्य और अन्य अनुष्ठान कर्म पूर्वकृत दुरित (पाप) के नाश के लिए किए जाते हैं।)
इससे यह स्पष्ट होता है कि संस्कारों को पापक्षयकारी मानना केवल एक काव्यात्मक या स्तुत्यात्मक विधान नहीं है, बल्कि मीमांसा के अनुसार एक वैध शास्त्रीय निष्कर्ष है।
2. नामकरण संस्कार एक नैमित्तिक कर्म है
मीमांसा में संस्कारों को नैमित्तिक कर्मों के रूप में परिभाषित किया गया है, और नामकरण संस्कार उनमें प्रमुख है।
(A) संस्कारों की नैमित्तिकता
- गौतम धर्मसूत्र (1.8-1.9): "गर्भाधानादीनि संस्काराः शुद्ध्यर्थम्।"(गर्भाधान आदि संस्कारों का उद्देश्य शुद्धि है।)
- आपस्तंब गृह्यसूत्र (15.8): "दशाम्यामुत्थितायां स्नातायां पुत्रस्य नाम दधाति।"(दसवें दिन स्नान के बाद नामकरण किया जाता है।)
- मनुस्मृति (2.27): "संस्कारैः संस्कृतः सद्यः शुचिर्नरः।"(संस्कारों से मनुष्य शुद्ध होता है।)
यहां "शुद्धि" केवल बाह्य शुद्धि तक सीमित नहीं है, बल्कि इसे पापक्षय से भी जोड़ा जाता है।
(B) नामकरण संस्कार और पापक्षय— मीमांसा दृष्टिकोण
यदि कोई संस्कार शुद्धि के लिए किया जाता है, तो वह मीमांसकों के अनुसार पूर्वकृत पापों को भी नष्ट करता है। अतः, शतपथ ब्राह्मण का "पाप्मानम् एवास्य तद् अपहन्ति" वाक्य केवल अर्थवाद नहीं है, बल्कि यह संस्कारों की नैमित्तिकता का समर्थन करता है।
3. नामकरण संस्कार को विधि रूप में देखने का औचित्य
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संस्कारों की अनिवार्यता:
- यदि नामकरण केवल सामाजिक परंपरा होती, तो यह गृह्यसूत्रों में अनिवार्य विधि के रूप में न बताया जाता।
- प्रत्येक गृह्यसूत्र में "नाम दधाति" (नाम स्थापित किया जाता है) शब्द प्रयोग हुआ है, जो इसे एक अनिवार्य कर्तव्य बनाता है।
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पूर्वकृत पाप का नाश:
- चूंकि नित्य-नैमित्तिक कर्म पापक्षय के लिए किए जाते हैं, और संस्कार नैमित्तिक कर्म हैं, अतः नामकरण भी इसी श्रेणी में आता है।
- "पाप्मानम् अपहन्ति" कथन केवल प्रशंसा नहीं, बल्कि शास्त्रों में स्थापित नैमित्तिक कर्मों के फलस्वरूप पापक्षय की स्वीकारोक्ति है।
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मीमांसा सिद्धांतों की संगति:
- मीमांसा का मुख्य उद्देश्य विधि और निषेध का निर्धारण करना है।
- यदि किसी वाक्य में "फल" बताया गया है, तो उसे "फलश्रुति" कहकर टाल देना मीमांसा सिद्धांतों के अनुसार उचित नहीं होगा।
- जब नित्य कर्म भी पापक्षय कर सकते हैं (जैसा कि शंकराचार्य और कुमारिल भट्ट ने कहा), तो नामकरण जैसे नैमित्तिक संस्कारों को भी इसी श्रेणी में रखना उचित होगा।
4. निष्कर्ष
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नामकरण संस्कार में तीन नाम होते हैं—
- नक्षत्र नाम (ज्योतिषीय प्रभाव कम करने हेतु, गुप्त रखा जाता है)
- व्यावहारिक नाम (लोक व्यवहार में प्रयुक्त, शुभ प्रभाव डालने वाला)
- संस्कारिक / तृतीय नाम (विशेष धार्मिक कार्यों हेतु)
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क्या नक्षत्र नाम ग्रह-दोष कम करता है?
- हाँ, यदि सही अक्षर से नाम रखा जाए तो जन्म नक्षत्र के बुरे प्रभावों को कम किया जा सकता है।
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क्या व्यावहारिक नाम भी पाप हर सकता है?
- हाँ, यदि उसमें ईश्वर का नाम हो तो वह पुण्यदायक और पाप हरण करने वाला होता है।
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"पाप्मानम् अपहन्ति" का क्या अर्थ है?
- यह अर्थवाद है, जो नामकरण संस्कार की महत्ता को दर्शाने के लिए कहा गया है।
अंतिम टिप्पणी
पूर्वमीमांसा, ज्योतिष और गृह्यसूत्र के आधार पर नामकरण संस्कार केवल एक सामाजिक और धार्मिक परंपरा नहीं है, बल्कि यह व्यक्ति के जीवन पर गहरा प्रभाव डालता है। यदि इसे शास्त्रों के अनुसार किया जाए, तो यह धर्म, ज्योतिष और आचार संहिता सभी के अनुरूप होता है।
adbhut jankari
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