कथा: कान्हा की पिचकारी, पौराणिक कथाएँ,कथा,, भागवत दर्शन, सूरज कृष्ण शास्त्री, कान्हा की चतुराई और होली का रस, होली पर्व, ठाकुर जी की जीत, बृज की अनोखी
कथा: कान्हा की पिचकारी
होली की खरीदारी और कान्हा की जिद
कल सुबह मैं होली की खरीदारी के लिए बाजार जा रहा था। तभी बालरूप ठाकुर जी (कान्हा) ने मुझसे कहा—
ठाकुर जी: बाबा, मैं भी तेरे संग बाजार चलूँगा।
मैं: नहीं लाला, त्योहार का समय है। बाजार में बहुत भीड़ होगी, तुम कहीं खो जाओगे।
ठाकुर जी: नहीं खोऊँगा बाबा, तेरे संग-संग रहूँगा। तेरे बिना मेरा घर पर मन नहीं लगेगा, मोहे भी ले चल।
ठाकुर जी की जिद के आगे मैं न झुकूँ, ऐसा कैसे हो सकता था! मैंने उन्हें सजा-संवारकर अपने संग ले लिया और बाजार की ओर चल दिया।
ठाकुर जी की पसंद की पिचकारी
बाजार में हम एक पंसारी की दुकान पर पहुँचे, जहाँ मैं कुछ सामान खरीदने लगा। उसी दुकान के बाहर एक बुढ़िया चारपाई पर बैठी पिचकारियाँ बेच रही थी। ठाकुर जी उसकी पिचकारियाँ बड़े ध्यान से देख रहे थे।
बुढ़िया ने प्रेमपूर्वक एक पिचकारी ठाकुर जी के हाथ में दे दी। मैं दुकान के अंदर से ही यह दृश्य देख रहा था। जब बाहर आया तो—
ठाकुर जी: बाबा, मोहे ये पिचकारी दिला दे।
मैं: अभी नहीं लाला, अभी होली को बहुत दिन हैं। तुम इसे तोड़ दोगे।
ठाकुर जी: नहीं तोडूँगा बाबा, बहुत संभालकर रखूँगा।
उधर, बुढ़िया भी बोली—
बुढ़िया: दिला दो बाबा! औरों को 150 रुपये की बेचूँगी, तेरे लाला के लिए 50 रुपये में लगा दूँगी।
पर मैंने सिर हिलाकर मना कर दिया और पास ही एक फलवाले से फल लेने लगा।
ठाकुर जी फिर से पिचकारी वाली दुकान पर जाकर खड़े हो गए। अब तक ठाकुर जी अपने रूप का जादू उस बुढ़िया पर चला चुके थे।
बुढ़िया ने प्रेम से ठाकुर जी को पिचकारी देते हुए कहा—
बुढ़िया: लाला, ले जा ये पिचकारी। ऐसे ही ले जा, ये बाबा तोहे ना दिलवाने वाला।
ठाकुर जी (अभिमान से): ना ना, ऐसे न लेंगे! हम कोई माँगने वाले थोड़े ही हैं। जब हमारा बाबा दिलवाएगा, तभी लेंगे।
इतना कहकर ठाकुर जी पिचकारी वापस रखकर मेरे पास आ गए। बुढ़िया बड़बड़ाने लगी—
बुढ़िया: ऐसा निर्दयी बाबा ना देखा! बालक का मन दुखा रहा है, दिलवा क्यों नहीं देता?
मैंने उसकी बात अनसुनी कर दी और ठाकुर जी का हाथ पकड़कर घर आ गया।
बृज की अनोखी पिचकारी
घर आकर ठाकुर जी ने एक लोटे में जल भर लिया और घर की मुँडेर पर जाकर बैठ गए।
अब जो भी घर के आगे से निकले, ठाकुर जी मुँह में पानी भरकर 'कूला' कर देते और जोर से ताली बजाते हुए कहते—
"ये हमारे बृज की पिचकारी है!"
बाहर निकलने वाले लोगों की अलग-अलग प्रतिक्रियाएँ थीं—
- रसिक: लाला, मोपे ना गिरा! मोपे गेर।
- गोपियाँ (ऊपरी मन से): लाला, मान जा! नहीं तो तू भी पिटेगो और तेरा बाबा भी पिटेगो।
अब मेरे पास शिकायतें आने लगीं। मैं समझ गया कि अब तो पिचकारी लानी ही पड़ेगी।
ठाकुर जी की जीत
मैंने अपना झोला उठाया, ठाकुर जी की उंगली पकड़ी और वापस उसी बुढ़िया की दुकान पर पहुँचा।
मैंने 200 रुपये का नोट निकालकर बुढ़िया की ओर बढ़ाया और कहा—
मैं: मईया, वो पिचकारी दे दे जो हमारे लाला को पसंद आई थी।
बुढ़िया ने नोट थैली में डालते हुए कहा—
बुढ़िया: बाबा, अब 300 रुपये और निकाल।
मैं (चौंककर): किस बात के? पिचकारी तो 50 रुपये की थी, उलटा तू हमें 150 रुपये लौटा दे।
बुढ़िया (मुस्कुराकर): 50 रुपये की तब थी, अब तो ये 500 रुपये की हो गई! लेनी है तो ले, नहीं तो आगे बढ़!
मैंने ठाकुर जी की ओर देखा। वे पिचकारी को अपनी छाती से लगाए ऐसे लाड़ कर रहे थे जैसे कोई अनमोल वस्तु पा ली हो। फिर ठाकुर जी ने मुझे पैसे देने का इशारा किया।
ठाकुर जी की इस अद्भुत लीला को देखकर मैंने झोले से 500 रुपये का नोट निकाला और बुढ़िया को दे दिया। उसने 200 रुपये लौटा दिए, और हमने पिचकारी ले ली।
कान्हा की चतुराई और होली का रस
घर पहुँचते ही ठाकुर जी हँसते हुए बोले—
ठाकुर जी: बाबा, यही पिचकारी अगर पहले दिलवा देता तो तेरा 450 रुपये का नुकसान नहीं होता!
मैं मुस्कुराया, ठाकुर जी को गोद में बिठाया और कहा—
मैं: प्यारे! अगर पहले ही पिचकारी दिला देता, तो बृज की पिचकारी देखने को कहाँ मिलती? और जो रसिकों को तेरा अधरामृत चखने को मिला, वो कहाँ से मिलता?
मेरी बात सुनते ही ठाकुर जी गोद में बैठ-बैठे मुझे गले से लगा लिया और बोले—
"बाबा, तू मेरी नस-नस पहचानता है!"
~~ जय श्री राधे! जय श्री श्याम! ~~
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