शारदा देवी मंदिर, सतना (मध्य प्रदेश), स्थान एवं विशेष जानकारी स्थान: सतना, मध्य प्रदेश, निकटतम रेलवे स्टेशन: मैहर (6 किमी), निर्माण काल: 502 ईस्वी
शारदा देवी मंदिर, सतना (मध्य प्रदेश)
📍स्थान एवं विशेष जानकारी
- स्थान: सतना, मध्य प्रदेश
- निकटतम रेलवे स्टेशन: मैहर (6 किमी)
- निर्माण काल: 502 ईस्वी
- सीढ़ियों की संख्या: लगभग 1,063
🔷 मंदिर की अनूठी विशेषताएँ
1. आल्हा द्वारा प्रथम श्रृंगार
- मान्यता है कि वीर योद्धा आल्हा आज भी माँ शारदा का पहला श्रृंगार करते हैं।
- मंदिर के महंत पंडित देवी प्रसाद के अनुसार, जब ब्रह्म मुहूर्त में मंदिर के कपाट खोले जाते हैं, तो पूजा की हुई मिलती है।
- ऐसा कहा जाता है कि आल्हा स्वयं माँ के दर्शन हेतु आते हैं और प्रातःकालीन आरती भी करते हैं।
2. रहस्यमयी घंटियाँ एवं पूजा के स्वर
- संध्या आरती के बाद जब मंदिर के पट बंद कर दिए जाते हैं और सभी पुजारी नीचे चले आते हैं, तब मंदिर के भीतर से घंटियों और पूजा के मंत्रोच्चार की ध्वनि सुनाई देती है।
- इस रहस्य को जानने के लिए वैज्ञानिकों की टीम भी यहाँ आई, लेकिन यह गूढ़ रहस्य अब तक अनसुलझा बना हुआ है।
🔷 आल्हा और माँ शारदा देवी
1. माँ शारदा की खोज
- माना जाता है कि सबसे पहले आल्हा ने इस मंदिर की खोज की थी।
- उन्होंने यहाँ 12 वर्षों तक कठोर तपस्या कर माँ शारदा को प्रसन्न किया था।
2. अमरत्व का वरदान
- माँ शारदा ने आल्हा की भक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें अमरत्व का आशीर्वाद दिया था।
- कहा जाता है कि आल्हा और उनके भाई ऊदल ने अपनी जीभ माँ शारदा को समर्पित कर दी थी, जिसे माँ ने तत्काल पुनः लौटा दिया था।
🔷 ऐतिहासिक एवं धार्मिक महत्व
1. आदि शंकराचार्य द्वारा पूजा
- माँ शारदा की प्रथम पूजा आदिगुरु शंकराचार्य द्वारा की गई थी।
- यह स्थान प्राचीन धर्मग्रंथों में महेन्द्र पर्वत के रूप में वर्णित है।
2. मंदिर के रहस्यमयी शिलालेख
- माँ शारदा की प्रतिमा के नीचे ऐसे शिलालेख हैं, जिन्हें अब तक पढ़ा नहीं जा सका है।
- 9वीं और 10वीं शताब्दी के इन शिलालेखों का अध्ययन प्रसिद्ध इतिहासकार ए. कनिंघम ने किया था, लेकिन भाषा और लिपि के कारण वे रहस्य बने हुए हैं।
3. बलिप्रथा का अंत
- सन् 1922 में तत्कालीन महाराजा ब्रजनाथ सिंह जूदेव ने मंदिर में जीव बलि को प्रतिबंधित कर दिया था।
🔷 मंदिर का ऐतिहासिक संदर्भ
1. माँ शारदा की स्थापना
- सन् 539 ईसा पूर्व में नृपलदेव ने चैत्र कृष्ण पक्ष चतुर्दशी के दिन इस देवी की स्थापना की थी।
- तभी से त्रिकूट पर्वत पर पूजा-अर्चना प्रारंभ हुई।
2. जैन एवं हिन्दू प्रभाव
- सन् 1922 में जैन दर्शनार्थियों की प्रेरणा से मंदिर परिसर में कई सुधार किए गए।
🔷 मंदिर के चारों ओर प्राचीन धरोहरें
1. आल्हा-ऊदल के अखाड़े
- मंदिर के पीछे आल्हा और ऊदल के अखाड़े स्थित हैं।
- वहीं पर एक तालाब और मंदिर है, जिसमें आल्हा की विशाल प्रतिमा स्थित है और उनके हाथ में तलवार दी गई है।
2. अन्य प्रमुख मंदिर
- गोलामठ मंदिर – 950 ईसा पूर्व, चंदेल राजपूतों द्वारा निर्मित।
- रामेश्वरम मंदिर – जिसमें 108 शिवलिंग स्थापित हैं।
- हनुमान मंदिर – राजा अमान द्वारा स्थापित।
3. ऐतिहासिक स्थल
- बदेरा के जंगलों में बिखरे प्राचीन शिवलिंग और भग्नावशेष, बाणासुर की राजधानी होने का प्रमाण देते हैं।
🔷 वीर आल्हा और उनका इतिहास
1. वीर योद्धा आल्हा-ऊदल
- आल्हा और ऊदल, बुंदेलखंड के महोबा के वीर योद्धा थे।
- ये परमार वंश के सामंत थे और कालिंजर के राजा परमार के दरबार में रहते थे।
- कवि जगनिक ने इनके जीवन पर आधारित महाकाव्य "आल्हा खंड" की रचना की थी, जिसमें उनकी 52 लड़ाइयों का वर्णन है।
2. पृथ्वीराज चौहान से युद्ध
- आल्हा ने अपनी अंतिम लड़ाई दिल्ली के शासक पृथ्वीराज चौहान के विरुद्ध लड़ी।
- इस युद्ध में आल्हा को वैराग्य प्राप्त हुआ, और उन्होंने युद्ध करना छोड़कर संन्यास ले लिया।
- कहा जाता है कि उनके गुरु गोरखनाथ के आदेश पर उन्होंने पृथ्वीराज चौहान को जीवनदान दिया था।
3. मोहम्मद गौरी को चुनौती
- आल्हा ने विदेशी आक्रांता मोहम्मद गौरी को भी चुनौती दी थी और भारतीय गौरव की रक्षा की थी।
🔷 आल्हा की शारदा भक्ति
- माँ के आदेशानुसार आल्हा ने अपनी तलवार माँ शारदा को अर्पित कर दी थी।
- उन्होंने तलवार की नोक टेढ़ी कर दी थी, जिसे आज तक कोई सीधा नहीं कर पाया।
- मंदिर परिसर में आज भी आल्हा और पृथ्वीराज चौहान की जंग के प्रमाण मौजूद हैं।
🔷 निष्कर्ष
मैहर का शारदा देवी मंदिर केवल धार्मिक दृष्टि से ही महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति, इतिहास और वीरता का प्रतीक भी है। यहाँ की रहस्यमयी घटनाएँ, आल्हा की भक्ति, शिलालेखों के रहस्य, और मंदिर के पीछे की ऐतिहासिक घटनाएँ इसे और अधिक अद्भुत बनाती हैं। यह मंदिर न केवल श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र है, बल्कि भारतीय इतिहास और परंपरा को भी संजोए हुए है।
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