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करउँ सदा तिन्ह कै रखवारी। जिमि बालक राखइ महतारी॥

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करउँ सदा तिन्ह कै रखवारी। जिमि बालक राखइ महतारी॥रामचरितमानस की विशिष्ट चौपाइयों का विश्लेषण, भागवत दर्शन सूरज कृष्ण शास्त्री, अनन्याश्चिन्तयन्तो माम्।

करउँ सदा तिन्ह कै रखवारी। जिमि बालक राखइ महतारी॥
करउँ सदा तिन्ह कै रखवारी। जिमि बालक राखइ महतारी॥


करउँ सदा तिन्ह कै रखवारी। जिमि बालक राखइ महतारी॥

करउँ सदा तिन्ह कै रखवारी।

जिमि बालक राखइ महतारी॥

भगवान् श्रीराम कहते हैं, कि मैं अपने भक्त की वैसे ही रखवाली करता हूँ; जैसे एक माँ अपने नन्हे बच्चे का ध्यान रखती है ।

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते। 

तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।। 

एक माँ भी अपने नवजात शिशु को छोड़ने के बारे में कभी नहीं सोचती जो पूरी तरह से उस पर प्रतिबंध है। आत्मा के सर्वोच्च और शाश्वत माँ भगवान हैं। 

 भगवान उन मूर्तियों को मातृवत मूर्ति कहते हैं जो केवल उनकी प्रति समर्पित हैं। "प्रयुक्त" शब्द वहामि अहम् है, जिसका अर्थ है।

 मैं स्वयं अपने अनुयायियों के भरण-पोषण का भार वहन करता हूं,।

 ठीक वैसे ही एक  व्यक्ति अपनी पत्नी और  बच्चों के भरण-पोषण का भार वहन करता है। भगवान दो  वादा करते हैं।

 पहला है योग - वे अपने अनुयायियों को आध्यात्मिक संपत्तियां प्रदान करते हैं जो उनके पास नहीं हैं।

 दूसरा है क्षेम - वे उन आध्यात्मिक साम्राज्य की रक्षा करते हैं जो उनके अनुयायियों के पास पहले से ही हैं।

लेकिन इसके लिए उन्होंने जो शर्त रखी है, वह अनन्य दान है। 

इसे माँ और बच्चे के उदाहरण से भी समझा जा सकता है। नवजात शिशु पूरी तरह से अपनी मां पर निर्भर होता है, मां बच्चे के कल्याण का पूरा ध्यान रखती है। बच्चे को जब भी कुछ होता है, या विस्तर गीला करता है तो वह रोता है। माँ उसे साफ करती है, खिलाती है, नहलाती है, इत्यादि।

 लेकिन जब बच्चा पांच साल का हो जाता है, तो उसे  मां की जरूरत कुछ कम ही लगती है। उस सीमा मे माँ अपनी जिम्मेदारियाँ कम कर देती है। और जब बच्चा जवान हो जाता है और सारी जिम्मेदारियाँ सत्कर्मियाँ हो जाती है, तो माँ अपनी जिम्मेदारियाँ और भी काम कर जाती है।

 अब अगर पिता ने घर से पूछा, "हमारा बेटा कहां है?" ।

तो माँ कहती है, "वह स्कूल से घर नहीं लौटा है। वह अपने दोस्तों के साथ फिल्म देखेगा।" 

अब उनका निर्माण उनका प्रति अधिक तटस्थ हो गया है।

 लेकिन जब वह  पांच साल का बच्चा स्कूल से घर आया और दस मिनट की देरी से घर आया, तो मां-बाप दोनों चिंता में पड़ गए, "क्या हुआ? 

वह छोटा बच्चा है। चलो आशा करते हैं कि उसको कोई तकलीफ़ न हो। चलो स्कूल में फोन करके पता करते हैं।

इस तरह, जैसे-जैसे लड़का अधिक बड़ा होता है, उसकी माँ अपनी जिम्मेदारियाँ छोड़ती है।

 भगवान का नियम बिल्कुल आदर्श ही है। जब हम अपनी स्वतंत्र इच्छा से कार्य करते हैं, तो यह दिखता है कि हम अपने कार्य के कर्ता हैं, और हमारी शक्ति और योग्यता पर निर्भर हैं, तो भगवान अपनी कृपा नहीं करते। वे केवल हमारे कर्मों को देखते हैं और उनके परिणाम देते हैं। जब हम आंशिक रूप से उनके प्रति समर्पित होते हैं और आंशिक रूप से भौतिक सहारा लेते हैं, तो भगवान भी आंशिक रूप से हम पर अपनी कृपा करते हैं। और जब हम खुद को पूरी तरह से उनकी प्रति समर्पित कर देते हैं, *मामेकं शरणं वृज* भगवान अपनी पूरी कृपा करते हैं और पूरी जिम्मेदारी लेते हैं, जो हमारे पास है उसे सुरक्षित रखते हैं और जो हमारे पास नहीं है वह उसे पूरा करते हैं।

हम सब भाग्यशाली हैं क्योंकि हमारे जीवन में गीता के प्रति उत्सुकता उत्पन्न होना ही भाग्योदय की ओर बढ़ा हुआ प्रथम कदम है।

 हमें प्रत्येक काल में योगयुक्त बनें रहना चाहिए। हम जो भी कार्य करें, वह योगयुक्त हो जाए। भगवद्गीता एकमात्र  ऐसा ग्रन्थ है, जो रणभूमि में कही गई। 

अन्य सारे शास्त्र ऋषियों ने अपने-अपने आश्रम में लिखे, जो बहुत सुन्दर उपवनों या हिमालय की वादियों में बैठकर लिखे गए लेकिन रणभूमि में किसी धर्मग्रन्थ का प्राकट्य हो, यह अपने आप में एक अद्भुत घटना है।

रणभूमि तो हम सबके जीवन में प्रतिदिन ही है। जग और जीवन में प्रतिक्षण युद्ध चलता रहता है लेकिन उस युद्ध में कैसे आगे बढ़ना है, यह यदि समझना हो तो रणभूमि पर अर्जुन के निमित्त से जो भगवद्गीता स्वयं भगवान ने कही, जब इसे समझते हैं तो भौतिक जीवन तथा आधिभौतिक जीवन में, पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्र जीवन में हम किस प्रकार से व्यवहार करें, इसकी हमें कुंजी मिल जाती है।

 भगवद्गीता हर प्रसङ्ग में हमारा मार्गदर्शन करती है। यह एकमात्र ग्रन्थ है जो स्वयं भगवान ने अपनी वाणी से उद्धृत किया। भगवान की वाणी से प्रकट हुआ एक-एक अक्षर मन्त्र बन गया।

जब मैंने गीता जी को कण्ठस्थ करना प्रारम्भ किया तो मेरे कुछ ने कहा, आप इसे याद क्यों कर रहे हैं? 

गूगल में सर्च करिये, अर्थ सहित सब कुछ मिल जायेगा। मैंने उनसे से पूछा कि क्या तुम्हारी माँ या पत्नी तुम्हें दूध चीनी डालकर दे देती है या उसे मिलाती भी है। 

उन्होंने कहा कि वह मिला कर देती है, तभी मिठास आती है। मैंने उसे बताया कि भाई साहब , उसी प्रकार नित्य याद करने से, गीता जी की मिठास अनुभव होने लगती है। निरन्तर अध्ययन करने से यह समझ में आने लगता है कि इसके माध्यम से जीवन का तनाव दूर होता है तथा जीवन जीने का तरीका आता है।

 अर्जुन के हर प्रश्न पर भगवान ने वेद और उपनिषद रूपी गायों का दोहन किया और बछड़ा अर्जुन बना। 

इसलिए भगवद्गीता की स्तुति में कहा गया:–

सर्वोपनिषदो गावो, दोग्धा गोपालनन्दन।

पार्थो वत्स: सुधीर्भोक्ता, दुग्धं गीतामृतं महत्।।

 सारे उपनिषदों की गाय और दोहन करने वाला दोग्धा- गोपालनन्दन। उपनिषदों के अमृत का प्राशन करने वाला वत्स अर्जुन।।

देखा जाए तो भगवद्गीता में चार लोगों का संवाद है- 

प्रथम धृतराष्ट्र जिन्होंने एकमात्र श्लोक कहा, दूसरे सञ्जय, तीसरे अर्जुन , चौथे स्वयं भगवान श्रीकृष्ण। यहाँ प्रत्येक अध्याय को अलग-अलग नाम दिए गए। 

जैसे - प्रथम अध्याय अर्जुनविषादयोग, द्वितीय अध्याय साङ्ख्ययोग, तृतीय अध्याय कर्मयोग। 

इस प्रकार सभी प्रकार के योग बताते हुए बारहवें अध्याय में भक्तियोग बताया।

 बारहवें अध्याय में अर्जुन ने भगवान से  प्रश्न पूछे, जो हम सभी के मन में चलते हैं। अर्जुन के बहाने हमारे मन के प्रश्न भगवान से पूछे जा रहे हैं।

 बारहवें अध्याय का पठन सबसे पहले इसलिए किया जाता है क्योंकि यह सबसे छोटा, सबसे मीठा और सबसे सरल अध्याय है और अन्ततोगत्वा भक्ति के मार्ग पर हम सबको आना ही पड़ता है। 

ये त्वक्षरं निर्देशितमव्यक्तं प्युपासते।

सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम् ॥

सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र संबुद्धयः।

ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ॥

 श्रीभगवान कहते हैं कि ऐसा नहीं है कि केवल वे ही योगवेत्ता हैं। निराकार की उपासना भी उतनी ही श्रेष्ठ है। वे भी वहीं पहुँचने वाले हैं जो अपनी इन्द्रियों को वश में करके अचिन्त्य, सब जगह परिपूर्ण, अनिर्देश्य, कूटस्थ, अचल, ध्रुव, अक्षर और अव्यक्त की उपासना करते हैं।

वे प्राणिमात्र के हित में रत और सब जगह समबुद्धि वाले मनुष्य भी मुझे ही प्राप्त होते हैं। देह पर प्रकट होकर व्यवहार में प्रकट होने वाला, सभी प्राणियों में हितकारी होकर उसमें रत रहता है। शत्रु में भी भगवान का रूप देखता है, ऐसा व्यक्ति कुत्ते, बिल्ली और छिपकली आदि के प्रति भी समता का भाव रखता है। सर्वव्यापी में वह मेरा ही चिन्तन करता है।

केवल चर ही नहीं, बल्कि अचर में भी जैसे गोवर्धन पर्वत की पूजा, गङ्गा मैया की पूजा, सभी वृक्षों की पूजा, तुलसी विवाह के दिन तुलसी जी की पूजा, वट वृक्ष की पूजा, आँवला नवमी को आँवला वृक्ष की पूजा, नाग पञ्चमी के दिन नागों की पूजा, अर्थात सभी पञ्चभूतों की पूजा के लिये कहा गया है। 

सभी देवी-देवताओं के वाहन के रूप में पशुओं को जोड़ दिया गया, जैसे लक्ष्मी जी के साथ उल्लू, गणेश जी के साथ चूहा, दुर्गा जी के साथ सिंह आदि। अब जब देवी-देवताओं की पूजा करेंगे तो उनके वाहन की पूजा भी करनी पड़ेगी। 

अनिर्देश्य अर्थात् जिसे निर्देश करके बताया नहीं जा सकता, ध्रुव तारे जैसे अचल होना पड़ता है।

क्लेशोऽधिक्तत्रस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्।

अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते ॥

अव्यक्त, निराकार स्वरूप के प्रति आसक्त मन वाले को परमात्मा की प्राप्ति अतिशय अभिलाषा पूर्ण होती है क्योंकि जब तक शरीर द्वारा ग्रहण का भाव रहता है तब तक अव्यक्त परमात्मा की प्राप्ति दुखप्रद होती है।

ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि सन्न्यास्य मत्पराः।

अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते।। 

  श्रीभगवान कहते हैं कि निराकार की उपासना के मार्ग में कष्ट अधिक होता है; क्योंकि हम जिस देह में आए हैं, उसमें हम स्वयं को सगुण देख रहे हैं और हमें उसी की आदत हो गई है। हमें बचपन से ही सबको व्यक्त रूप में देखने की आदत है। मैंने सबका साकार रूप ही देखा है। निर्गुण निराकार रूप को समझना अत्यन्त कठिन है इसलिए यह तरीका बहुत कठिन लगता है।

अब सौंप दिया इस जीवन का, 

सब भार तुम्हारे हाथों में। 

जीत भी तेरी, हार भी तेरी, जो यह भाव रखता है, वह भवसागर से पार हो जाता है। जो यह सोच ले कि ईश्वर ही सब कुछ करेंगे, मुझे व्यर्थ हाथ-पैर मारने की आवश्यकता नहीं है, वही सच्चा भक्त है। भक्ति के लिए समर्पण बहुत आवश्यक है। 

छुअत सिला भइ नारि सुहाई।

पाहन तें न काठ कठिनाई॥

तरनिउ मुनि घरिनी होइ जाई।

बाट परइ मोरि नाव उड़ाई॥

जब भगवान गङ्गा पार करने के लिए केवट के पास पहुँचे तब केवट ने कहा कि आपके चरणों के स्पर्श से तो पत्थर भी महिला बन जाती है, यदि मेरी नाव को कुछ हो गया तो मैं अपना जीवन-यापन कैसे करूँगा?

पद  कमल  धोइ  चढ़ाइ  नाव  न  नाथ उतराई चहौं।

  मोहि राम राउरि आन दसरथ सपथ सब साची कहौं॥

बरु तीर मारहुँ लखनु पै जब लगि न पाय पखारिहौं।

तब लगि न तुलसीदास नाथ कृपाल पारु उतारिहौं॥

 पहले आपके पाँव रगड़-रगड़ कर धो कर साफ करूँगा, फिर ही नाव पर बैठियेगा। रामजी ने उसकी शर्त मान ली। केवट ने खूब रगड़-रगड़ कर प्रभु के पैर धोए। यह देखकर लक्ष्मण और सीता जी भी अचम्भित थे क्योंकि जिन शादी  वर पूजा के समय राजा जनक को भी अपने पैर नहीं पखारने दिए, आज एक केवट उन चरणों को रगड़-रगड़ कर धो रहा था। यह अद्भुत भक्त है। 

पिय हिय की सिय जान निहारी।

मनि मुदरी मन मुदित उतारी॥

जब भगवान नदी पार करने के बाद नाव से नीचे उतरे तो उन्हें लगा कि मुझे केवट को कुछ पारिश्रमिक देना चाहिए परन्तु वे संन्यासी थे, उनके पास कुछ नहीं था। उनकी अवस्था देखकर सीता मैया को समझ में आ गया और उन्होंने अपनी अंगूठी निकाल कर भगवान को दे दी। श्रीराम ने जब वह अंगूठी केवट को देनी चाही तो उसने लेने से मना कर दिया और बोला "क्या करते हैं? भगवान! मैं तो गीत गाते-गाते नाव चला रहा था। गङ्गा मैया भी उछल-उछल कर आपके चरण स्पर्श करने के लिए बहुत ऊपर आ रही थीं और मैं बार-बार उनसे प्रार्थना कर रहा था कि गङ्गा मैया कहीं मेरी नाव में मत आ जाना। यह तो मेरा परम सौभाग्य है। प्रभु मैंने आज आपको गङ्गा पार कराई, मैं इसका कोई पारिश्रमिक नहीं लूँगा क्योंकि मैं एक व्यवसायी हूँ।

 गङ्गा को पार करवाना मेरा व्यवसाय है, परन्तु जब मेरा समय आएगा तो आप मुझे भवसागर से पार करा देना। हम दोनों का एक ही व्यवसाय है और एक श्रमिक कभी किसी दूसरे श्रमिक से कुछ पारिश्रमिक नहीं लेता है।"

निर्गुण या सगुण की उपासना करने वाले स्वयं तैर कर भवसागर पार कर जाते हैं।

तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।

भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम् ।। 

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन! जो मुझमें अपना मन लगाए हुए हैं, वे शीघ्र ही जन्म-मृत्यु के सागर से पार हो जाते हैं। 

भगवान कहते हैं कि जो कर्मों को मेरे अर्पण करके और मेरे परायण होकर अनन्य योग से मेरा ही ध्यान करते हुए मेरी ही उपासना करते हैं, वे श्रेष्ठ हैं।

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