कथा: वृंदावन की रज का माहात्म्य, पौराणिक कथाओं में वृन्दावन के रज की कथा और माहात्म्य, भागवत दर्शन, सूरज कृष्ण शास्त्री।
कथा: वृंदावन की रज का माहात्म्य
त्याग का निर्णय
एक प्रसिद्ध आयुर्वैदिक संस्थान में जीवनभर सेवा करने के पश्चात, वैद्य जी सेवानिवृत्त हुए। अब वे अपने जीवन की दिशा बदलना चाहते थे। एक दिन उन्होंने अपनी पत्नी से गंभीर स्वर में कहा—
"आज तक मैं संसार में बँधा रहा, अब शेष जीवन ठाकुर जी के चरणों में बिताना चाहता हूँ। तुम मेरे साथ चलोगी, या अपने शेष दिन बच्चों के साथ व्यतीत करोगी?"
पत्नी ने शांत लेकिन दृढ़ स्वर में उत्तर दिया—
"चालीस वर्षों से साथ रहते हुए भी आप मेरे हृदय को नहीं समझ सके! मेरे लिए आपके साथ रहना ही धर्म है। मैं भी ठाकुर जी की शरण में चलूँगी।"
वैद्य जी ने प्रसन्न होकर कहा—
"तो फिर कल प्रातः ही हम वृंदावन के लिए प्रस्थान करेंगे।"
बच्चों से विदाई
अगली सुबह दोनों ने अपने बच्चों को बुलाया। सभी बच्चे चिंतित थे, क्योंकि माता-पिता अब वृद्ध थे, और घर छोड़कर जाने का विचार उनके लिए कठिन था।
वैद्य जी ने स्नेहपूर्वक कहा—
"प्यारे बच्चों! अब हमारे जीवन की संध्या आ गई है। हम जीवन के उस पार हैं, तुम इस पार हो। अब हमारा स्थान वृंदावन में है, प्रभु चरणों में। हमारी चिंता मत करना, क्योंकि असली साथी तो हर किसी के श्रीहरि ही हैं। संसार की दौड़-धूप में अपने जीवन को मत भूलना, और सदा धर्म के मार्ग पर चलना।"
बच्चे अश्रुपूर्ण नेत्रों से उन्हें विदा कर रहे थे। वे जानते थे कि यह विदाई संभवतः अंतिम होगी।
वृंदावन प्रवास
वृंदावन पहुँचने के पश्चात् वे एक मंदिर में श्री ठाकुर जी के दर्शन करने पहुँचे। ठाकुर जी के दर्शनमात्र से उनके हृदय में अपार शांति का अनुभव हुआ।
दैवयोग से वहाँ एक संत से भेंट हुई। उन्होंने वृद्ध दंपति की भक्ति से प्रभावित होकर उनके रहने और भोजन की व्यवस्था करवा दी। अब वे प्रतिदिन मंदिर जाते, ठाकुर जी का भजन करते, स्वामी जी के सत्संग में सम्मिलित होते और जो भी भोजन ठाकुर जी की कृपा से प्राप्त होता, उसे प्रेमपूर्वक स्वीकार कर प्रभु को भोग लगाकर ग्रहण करते।
धीरे-धीरे उनका आपस में बोलना-चालना भी कम हो गया। अब वे अधिकतर समय नाम-स्मरण में ही बिताने लगे।
ईश्वर की कृपा
कुछ महीनों बाद एक बार कड़ाके की सर्दी पड़ने लगी। लगातार तीन दिन तक कोई अन्न प्राप्त नहीं हुआ। शरीर दुर्बल हो चला था, लेकिन विश्वास अडिग था।
तीसरी रात्रि को ठंड असह्य होने लगी। भूख और थकान से वे दोनों दुर्बल होकर ठाकुर जी के समक्ष प्रार्थना कर रहे थे।
तभी अचानक दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी।
वैद्य जी ने धीरे से द्वार खोला। सामने एक किशोरी खड़ी थी, जिसने गुलाबी घाघरा और हरे रंग की चुनरी ओढ़ रखी थी। उसकी मुस्कान दिव्य थी।
वह बोली—
"स्वामी जी के यहाँ आज भंडारा था। उन्होंने आपके लिए प्रसाद भेजा है।"
इतना कहकर उसने एक टिफिन उनके हाथ में थमा दिया।
एक और चमत्कार
अभी वे इस कृपा को समझ भी नहीं पाए थे कि तभी एक किशोर भीतर आया। उसने ऊनी बिस्तर लाकर बिछाना प्रारंभ कर दिया।
पत्नी ने स्नेहपूर्वक कहा—
"ध्यान से, बेटा! यहाँ रोशनी की कोई व्यवस्था नहीं है, कहीं चोट न लग जाए।"
किशोर बिना कुछ बोले बाहर गया और कुछ ही क्षणों में मोमबत्तियाँ तथा दियासलाई लेकर लौट आया। उसने कमरे में प्रकाश कर दिया और दोनों चले गए।
वैद्य जी और उनकी पत्नी ने प्रेमपूर्वक प्रभु का स्मरण करते हुए प्रसाद ग्रहण किया और गर्म बिस्तर में विश्राम किया।
रहस्योद्घाटन
अगले दिन प्रातः वे स्वामी जी का टिफिन लौटाने पहुँचे और कृतज्ञता व्यक्त करते हुए बोले—
"स्वामी जी! आपका बहुत आभार! कल आपके द्वारा भेजे गए भोजन और गर्म बिस्तर से हमारी भूख और ठंड दोनों ही शांत हो गईं। ठाकुर जी की कृपा से हम कष्टों से मुक्त हो गए।"
स्वामी जी आश्चर्यचकित हो गए।
वे बोले—
"लेकिन मैंने तो कल कोई भंडारा नहीं कराया, न ही किसी को कोई प्रसाद या अन्य सामग्री देने भेजा था!"
यह सुनकर दोनों सन्न रह गए।
अब उनके हृदय में ग्लानि उत्पन्न हुई—
"हाय! प्रभु को हमारे कष्ट दूर करने स्वयं आना पड़ा! यह हमारी भक्ति की परीक्षा थी।"
वे समझ गए कि स्वयं बाँके बिहारी जी ने किशोर-किशोरी रूप में आकर उनकी सहायता की थी।
समर्पण का संदेश
इस घटना के पश्चात् उनकी भक्ति और दृढ़ हो गई। अब वे पूर्णतः ठाकुर जी के चरणों में समर्पित हो चुके थे।
उन्होंने अनुभव किया कि—
"जो स्वयं को पूर्णतः प्रभु चरणों में अर्पित करता है, उसकी प्रत्येक आवश्यकता का ध्यान स्वयं प्रभु रखते हैं। ईश्वर अपने भक्तों की सहायता के लिए सदा तत्पर रहते हैं, आवश्यकता केवल विश्वास और समर्पण की है!"
॥ जय श्री राधे ॥
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