कविता: अपने मन की किससे कह दूँ? हिन्दी रचना, हिन्दी साहित्य, डॉ निशाकांत द्विवेदी, कवि, भागवत दर्शन सूरज कृष्ण शास्त्री।
कविता: अपने मन की किससे कह दूँ?
अपने मन की किससे कह दूँ?
अपने मन की किससे कह दूँ?
मन को हल्का कैसे कर दूँ?
अपने जो हैं, सोच एक सी,
दूजे से कह सकूँ न मन की,
भरे हिलोरें भीतर सरिता
आतुर बह जाने को त्वरिता,
टूटे न तटबंध कहीं ये
कैसे भीतर बाँध बना दूँ?
अपने मन की किससे कह दूँ?
मन को हल्का कैसे कर दूँ?
लहरों से लहरें टकरातीं
नयनों से कुछ कुछ छलकाती,
समझ सके न बाहर कोई
भीतर उसको और छिपाती,
अन्तर्द्वन्द्वों में पिसता मन
चंचलता कैसे झुठला दूँ?
अपने मन की किससे कह दूँ?
मन को हल्का कैसे कर दूँ?
बँधा पूर्व कर्मों से प्राणी
जन-जन की है यही कहानी,
मन ही मन में अपने मन की
गुनता रहता मानो प्राणी।
जगत् हंसाने हित दूजों को
कैसे निज अन्तस् दिखला दूँ?
अपने मन की किससे कह दूँ?
मन को हल्का कैसे कर दूँ?
कौन व्यथा को बाँध सका है?
नियति नटी को लाँघ सका है?
विधिना ने जो नियति लिखी है
कौन जो उसको मिटा सका है?
फिर भी क्षुद्र जीव के नाते
हृदय को कैसे बोध करा दूँ?
अपने मन की किससे कह दूँ?
मन को हल्का कैसे कर दूँ?
© डॉ निशा कान्त द्विवेदी 🙏
कविता का विश्लेषण
डॉ. निशा कान्त द्विवेदी द्वारा रचित यह कविता एक गहरे भावनात्मक संघर्ष को व्यक्त करती है। यह मन के भीतर उठती भावनाओं, द्वंद्वों और उनके अभिव्यक्ति की असमर्थता को दर्शाती है।
1. विषय-वस्तु और भावार्थ
कविता का मुख्य भाव व्यक्ति के अंतर्मन में उमड़ते विचारों और भावनाओं को व्यक्त करने की जिज्ञासा और असमर्थता के इर्द-गिर्द घूमता है। कवि प्रश्न करता है— "अपने मन की किससे कह दूँ? मन को हल्का कैसे कर दूँ?"। यह प्रश्न आत्मसंवाद, सामाजिक प्रतिबंधों और मानसिक द्वंद्व को दर्शाता है।
(क) मन की अभिव्यक्ति की कठिनाई
- अपने मन की बातें समान सोच वाले लोगों से ही साझा की जा सकती हैं, लेकिन हर कोई उस स्थिति में नहीं होता कि वे हमारी भावनाओं को समझ सकें।
- मन में उठती विचार-तरंगों को व्यक्त न कर पाने का बोझ और चिंता कवि को भीतर से व्याकुल करती है।
(ख) आंतरिक संघर्ष और नियंत्रण
- कविता में "भरे हिलोरें भीतर सरिता, आतुर बह जाने को त्वरिता" जैसे चित्रण से भावनाओं के ज्वार-भाटे को दर्शाया गया है, जिसे कवि रोकने का प्रयास कर रहा है।
- यह अभिव्यक्ति और संयम के बीच का संघर्ष है—अगर मन को खुलकर व्यक्त किया जाए, तो भावनाएँ अनियंत्रित न हो जाएँ?
(ग) समाज और व्यक्ति के बीच द्वंद्व
- "जगत हँसाने हित दूजों को, कैसे निज अन्तस् दिखला दूँ?"— कवि सामाजिक भूमिका निभाने के लिए खुद को बाध्य पाता है, लेकिन भीतर का दुःख वह प्रकट नहीं कर सकता।
- यह व्यक्तिगत पीड़ा और सामाजिक मुखौटे का विरोधाभास है।
2. भाषा और शिल्प सौंदर्य
- कविता में सरल, प्रवाहमयी और भावनाओं को स्पष्ट करने वाली भाषा का प्रयोग किया गया है।
- लहरों, नदी, तटबंध जैसे प्राकृतिक बिंबों के माध्यम से भावनाओं को दृश्य रूप दिया गया है।
- हर अंतरे में प्रश्नात्मक शैली का प्रयोग मन की उलझन को और स्पष्ट करता है।
3. दार्शनिक दृष्टिकोण
- कविता कर्म और नियति के सिद्धांत को भी छूती है—"बँधा पूर्व कर्मों से प्राणी, जन-जन की है यही कहानी"।
- व्यक्ति अपने भाग्य को बदलने में असमर्थ होता है, फिर भी वह मन में उथल-पुथल से गुजरता है।
- यह दर्शाता है कि मानव मन, चाहे जितना भी ज्ञानी हो, अपनी भावनाओं के प्रवाह को नियंत्रित करने में सदैव संघर्षरत रहता है।
4. निष्कर्ष
यह कविता मन की गहराइयों में छुपी पीड़ा, असमंजस और सामाजिक परिस्थितियों के द्वंद्व को बहुत ही प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करती है। कवि की शैली, प्रतीकात्मकता और प्रश्नात्मक प्रवृत्ति इसे और अधिक मार्मिक बनाती है।
यह प्रश्न "अपने मन की किससे कह दूँ?" केवल कवि का नहीं, बल्कि प्रत्येक व्यक्ति के भीतर कभी न कभी उठने वाला प्रश्न है। यही इस कविता की सबसे बड़ी विशेषता है—यह व्यक्ति के अनुभव से जुड़ती है और उसकी अनुभूतियों को अभिव्यक्त करती है।
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