संस्कृत श्लोक: "उत्तमस्यापि वर्णस्य नीचोऽपि गृहमागतः" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद, सुभाषितानि,सुविचार,संस्कृत श्लोक, भागवत दर्शन, सूरज कृष्ण शास्त्री।
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संस्कृत श्लोक: "उत्तमस्यापि वर्णस्य नीचोऽपि गृहमागतः" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद |
श्लोक
पदच्छेद एवं शब्दार्थ
- उत्तमस्य – श्रेष्ठ (उच्च)
- अपि – भी
- वर्णस्य – वर्ण (जाति, समुदाय) के
- नीचः – निम्न (नीचे वर्ग का)
- अपि – भी
- गृहमागतः – घर में आया हुआ
- पूजनीयः – सम्मान के योग्य
- यथायोग्यम् – उचित रीति से
- सर्वदेवमयः – सभी देवताओं से युक्त
- अतिथिः – अतिथि (बिन बुलाया आगंतुक)
हिंदी अनुवाद:
उच्च वर्ण (जाति या समुदाय) का व्यक्ति हो या निम्न वर्ण का, यदि वह किसी के घर अतिथि के रूप में आता है, तो उसका यथोचित सम्मान करना चाहिए, क्योंकि अतिथि सभी देवताओं का प्रतिनिधि होता है।
श्लोक का भावार्थ
इस श्लोक में एक अत्यंत महत्वपूर्ण सांस्कृतिक एवं नैतिक मूल्य को प्रतिपादित किया गया है। यहाँ कहा गया है कि यदि कोई निम्न वर्ग का व्यक्ति भी किसी उच्च वर्ग के व्यक्ति के घर अतिथि रूप में आता है, तो उसे यथायोग्य सम्मान देना चाहिए। यह इसलिए आवश्यक है क्योंकि अतिथि को सभी देवताओं का प्रतिनिधि माना जाता है। भारतीय संस्कृति में "अतिथि देवो भव" की परंपरा रही है, जिसका अर्थ है कि अतिथि का सम्मान करना देवताओं का सम्मान करने के समान है।
शिक्षा एवं आधुनिक परिप्रेक्ष्य में व्याख्या
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जाति-पाति से ऊपर उठकर मानवीयता का संदेश
- यह श्लोक वर्ण व्यवस्था की रूढ़ियों से ऊपर उठकर सामाजिक समरसता का संदेश देता है। किसी व्यक्ति की सामाजिक स्थिति उसकी गरिमा और सम्मान का निर्धारण नहीं कर सकती। सभी मनुष्य समान हैं और अतिथि के रूप में उनका सत्कार करना हमारा कर्तव्य है।
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अतिथि सम्मान – भारतीय संस्कृति की पहचान
- भारतीय परंपरा में "अतिथि देवो भव" का सिद्धांत प्राचीन काल से चला आ रहा है। चाहे कोई भी व्यक्ति हो, यदि वह अतिथि बनकर आता है, तो उसकी सेवा करना धर्म माना जाता है।
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आधुनिक संदर्भ में सहिष्णुता और समानता
- आज के दौर में यह श्लोक सामाजिक समानता, मानवाधिकार और सहिष्णुता को प्रोत्साहित करता है। भेदभाव और ऊँच-नीच की मानसिकता को त्यागकर हम एक समतामूलक समाज का निर्माण कर सकते हैं।
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संपर्क और वैश्वीकरण के दौर में प्रासंगिकता
- आज जब विश्व एक "ग्लोबल विलेज" बन चुका है, तो विभिन्न जाति, धर्म और संस्कृतियों के लोगों का आदान-प्रदान बढ़ा है। ऐसे में अतिथि का आदर करना न केवल हमारी संस्कृति का हिस्सा है, बल्कि सामाजिक सौहार्द को बनाए रखने के लिए भी आवश्यक है।
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नैतिकता और नेतृत्व गुणों का विकास
- एक अच्छे समाज या संगठन का नेतृत्व वही कर सकता है जो सभी को समान दृष्टि से देखे और सबके साथ न्याय करे। यह श्लोक सिखाता है कि दूसरों का सम्मान करना एक महान गुण है और यह व्यक्ति के चरित्र को दर्शाता है।
निष्कर्ष
इस श्लोक का संदेश आज भी अत्यंत प्रासंगिक है। यह हमें यह सिखाता है कि हमें सामाजिक भेदभाव से ऊपर उठकर प्रत्येक अतिथि का उचित सम्मान करना चाहिए। यह न केवल हमारी संस्कृति की महानता को दर्शाता है, बल्कि मानवीयता, सहिष्णुता और समानता के आदर्शों को भी स्थापित करता है।
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