![भागवत तृतीय स्कंध, द्वादश अध्याय (श्लोक सहित हिंदी अनुवाद) भागवत तृतीय स्कंध, द्वादश अध्याय (श्लोक सहित हिंदी अनुवाद)](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjK3oKeYKuXyvTEJfghZLeSUqrg18ihlO6lhx8E6K-W-mQZAemhI8SfwlM8j7NziiXcme-n0F8eH2Z3jZFgq7pD9NW4zB8OVcNgE0zklekvHY3icAU8-mO7Iyd3K2jji_RLo-F3YqZCowaJ44d7yUO57-bOJ2SNZDTtqKcH3UAGghYFdFIo-4DGTY0kOx4/s16000-rw/file-1Vzv5yyHsHRPWCKZG7xNKi.webp) |
भागवत तृतीय स्कंध, द्वादश अध्याय (श्लोक सहित हिंदी अनुवाद) |
भागवत तृतीय स्कंध, द्वादश अध्याय (श्लोक सहित हिंदी अनुवाद)
श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कंध, द्वादश अध्याय
(श्लोक सहित हिंदी अनुवाद)
ब्रह्मा द्वारा सृष्टि का विस्तार
श्लोक 1
इति ते वर्णितः क्षत्तः कालाख्यः परमात्मनः।
महिमा वेदगर्भोऽथ यथा स्राक्षीन्निबोध मे ॥१॥
अनुवाद:
हे विदुर! मैंने तुम्हें काल (समय) का विस्तारपूर्वक वर्णन किया। अब सुनो, मैं तुम्हें वेदों के गर्भ से उत्पन्न ब्रह्मा द्वारा की गई सृष्टि का वर्णन करता हूँ।
श्लोक 2
ससर्जाग्रेऽन्धतामिस्रं अथ तामिस्रमादिकृत्।
महामोहं च मोहं च तमश्चाज्ञानवृत्तयः॥२॥
अनुवाद:
सृष्टि के आरंभ में ब्रह्मा ने सबसे पहले अंधकार (अन्धतमिस्र), तामिस्र (क्रोध), महामोह (अत्यधिक मोह), मोह (साधारण मोह) और तम (अज्ञान) की रचना की। ये सभी अज्ञान और भ्रम उत्पन्न करने वाले तत्व हैं।
श्लोक 3
दृष्ट्वा पापीयसीं सृष्टिं नात्मानं बह्वमन्यत।
भगवद्ध्यानपूतेन मनसान्यां ततोऽसृजत्॥३॥
अनुवाद:
जब ब्रह्मा ने देखा कि यह सृष्टि अज्ञान और पाप से भरी हुई है, तो वे इससे संतुष्ट नहीं हुए। फिर उन्होंने भगवान का ध्यान करके निर्मल चित्त से दूसरी सृष्टि की रचना की।
श्लोक 4
सनकं च सनन्दं च सनातनमथात्मभूः।
सनत्कुमारं च मुनीन्निष्क्रियानूर्ध्वरेतसः॥४॥
अनुवाद:
ब्रह्मा ने चार महान मुनियों— सनक, सनंदन, सनातन और सनत्कुमार— की रचना की। ये सभी निष्क्रिय (कर्मों से विरक्त), उर्ध्वरेता (ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले) और पूर्णत: आत्मसंयमी थे।
श्लोक 5
तान् बभाषे स्वभूः पुत्रान् प्रजाः सृजत पुत्रकाः।
तन्नैच्छन् मोक्षधर्माणो वासुदेवपरायणाः॥५॥
अनुवाद:
ब्रह्मा ने उन पुत्रों से कहा— "पुत्रो! सृष्टि का विस्तार करो।" लेकिन वे सभी मोक्ष धर्म के अनुयायी और वासुदेव के भक्त थे, इसलिए उन्होंने यह कार्य स्वीकार नहीं किया।
श्लोक 6
सोऽवध्यातः सुतैरेवं प्रत्याख्यातानुशासनैः।
क्रोधं दुर्विषहं जातं नियन्तुमुपचक्रमे ॥६॥
अनुवाद:
जब ब्रह्मा के पुत्रों ने उनकी आज्ञा का पालन करने से इनकार कर दिया, तो वे अत्यधिक क्रोधित हो गए। लेकिन उन्होंने अपने क्रोध को नियंत्रित करने का प्रयास किया।
श्लोक 7
धिया निगृह्यमाणोऽपि भ्रुवोर्मध्यात्प्रजापतेः।
सद्योऽजायत तन्मन्युः कुमारो नीललोहितः ॥ ७ ॥
अनुवाद:
यद्यपि ब्रह्मा ने अपने क्रोध को रोकने का प्रयास किया, फिर भी उनकी भ्रू (भौंह) के मध्य से एक तेजस्वी पुरुष प्रकट हुआ, जिसका रंग नीललोहित (नीला और लाल) था।
श्लोक 8
स वै रुरोद देवानां पूर्वजो भगवान्भवः।
नामानि कुरु मे धातः स्थानानि च जगद्गुरो॥८॥
अनुवाद:
वह पुरुष, जो समस्त देवताओं का अग्रज और स्वयं भगवान भव (रुद्र) थे, रोने लगे और बोले— "हे सृष्टिकर्ता ब्रह्मा! मेरे नाम और स्थान निर्धारित करें।"
श्लोक 9
इति तस्य वचः पाद्मो भगवान् परिपालयन्।
अभ्यधाद् भद्रया वाचा मारोदीस्तत्करोमि ते॥९॥
अनुवाद:
ब्रह्माजी ने उनकी बात सुनकर कहा— "हे रुद्र! रोओ मत। मैं तुम्हारे लिए उपयुक्त नाम और स्थान निर्धारित करता हूँ।"
श्लोक 10
यदरोदीः सुरश्रेष्ठ सोद्वेग इव बालकः।
ततस्त्वां अभिधास्यन्ति नाम्ना रुद्र इति प्रजाः॥१०॥
अनुवाद:
"हे श्रेष्ठ देव! क्योंकि तुम रोए (रुदन किया), इसलिए संसार में तुम्हें 'रुद्र' नाम से जाना जाएगा।"
श्लोक 11
हृदिन्द्रियाण्यसुर्व्योम वायुरग्निर्जलं मही।
सूर्यश्चन्द्रस्तपश्चैव स्थानान्यग्रे कृतानि मे ॥११॥
अनुवाद:
"तुम्हारे लिए ये स्थान निर्धारित किए गए हैं— हृदय, इंद्रियाँ, प्राण, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, सूर्य, चंद्रमा और तप।"
श्लोक 12
मन्युर्मनुर्महिनसो महाञ्छिव ऋतध्वजः।
उग्ररेता भवः कालो वामदेवो धृतव्रतः ॥१२॥
अनुवाद:
"तुम्हारे ये नाम भी होंगे— मन्यु, मनु, महिनस, महेश, शिव, ऋतध्वज, उग्ररेता, भव, काल, वामदेव और धृतव्रत।"
श्लोक 13
धीर्धृतिरसलोमा च नियुत्सर्पिरिलाम्बिका।
इरावती सुधा दीक्षा रुद्राण्यो रुद्र ते स्त्रियः ॥१३॥
अनुवाद:
"तुम्हारी पत्नियाँ होंगी— धी, धृति, रसला, लोमा, नियुत, सर्पि, इलाम्बिका, इरावती, सुधा और दीक्षा। ये सब रुद्राणियाँ कहलाएँगी।"
श्लोक 14
गृहाणैतानि नामानि स्थानानि च सयोषणः।
एभिः सृज प्रजा बह्वीः प्रजानामसि यत्पतिः ॥१४॥
अनुवाद:
"हे रुद्र! तुम इन नामों और स्थानों को ग्रहण करो। अपनी पत्नियों के साथ मिलकर तुम अनेक प्रकार की प्रजाओं की सृष्टि करो, क्योंकि तुम प्रजाओं के स्वामी हो।"
श्लोक 15
इत्यादिष्टः स्वगुरुणा भगवान् नीललोहितः।
सत्त्वाकृति स्वभावेन ससर्जात्मसमाः प्रजाः ॥१५॥
अनुवाद:
नीललोहित भगवान रुद्र ने अपने गुरु (ब्रह्मा) की आज्ञा पाकर अपने स्वभाव के अनुसार अपने समान गुणों वाली प्रजाओं की रचना की।
रुद्र द्वारा सृष्टि और ब्रह्मा की चिंता
श्लोक 16
रुद्राणां रुद्रसृष्टानां समन्ताद्ग्रसतां जगत्।
निशाम्या संख्यशो यूथान् प्रजापतिरशङ्कत ॥१६॥
अनुवाद:
रुद्रों द्वारा उत्पन्न अनेक भयावह जीव जब संपूर्ण जगत को निगलने लगे, तो प्रजापति (ब्रह्मा) को चिंता होने लगी कि ये अत्यधिक विनाश कर देंगे।
श्लोक 17
अलं प्रजाभिः सृष्टाभिरीदृशीभिः सुरोत्तम।
मया सह दहन्तीभिः दिशश्चक्षुर्भिरुल्बणैः ॥१७॥
अनुवाद:
ब्रह्मा ने रुद्र से कहा— "हे देवश्रेष्ठ! इतनी अधिक भयंकर और क्रूर प्रजा उत्पन्न करना उचित नहीं है। ये अपनी भयंकर दृष्टि से दिशाओं को भी जला रही हैं।"
श्लोक 18
तप आतिष्ठ भद्रं ते सर्वभूतसुखावहम्।
तपसैव यथा पूर्वं स्रष्टा विश्वमिदं भवान् ॥१८॥
अनुवाद:
"हे रुद्र! तुम्हारे लिए तप ही श्रेष्ठ है। यह सभी प्राणियों को सुख देने वाला है। पूर्वकाल में भी सृष्टिकर्ता ने तपस्या के द्वारा ही सृष्टि का निर्माण किया था।"
श्लोक 19
तपसैव परं ज्योतिः भगवन्तमधोक्षजम्।
सर्वभूतगुहावासं अञ्जसा विन्दते पुमान् ॥१९॥
अनुवाद:
"तपस्या के द्वारा ही मनुष्य परब्रह्म भगवान को प्राप्त कर सकता है, जो समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित हैं और जो इस दृश्य-जगत से परे हैं।"
श्लोक 20
एवमात्मभुवाऽऽदिष्टः परिक्रम्य गिरां पतिम्।
बाढमित्यमुमामन्त्र्य विवेश तपसे वनम् ॥२०॥
अनुवाद:
ब्रह्मा के आदेश को स्वीकार करके भगवान रुद्र ने उन्हें प्रणाम किया और "ऐसा ही होगा" कहकर अपनी पत्नी उमा से विदा ली तथा वन में तपस्या करने चले गए।
ब्रह्मा द्वारा दस प्रमुख ऋषियों की उत्पत्ति
श्लोक 21
अथाभिध्यायतः सर्गं दश पुत्राः प्रजज्ञिरे।
भगवच्छक्तियुक्तस्य लोकसन्तानहेतवः ॥२१॥
अनुवाद:
इसके बाद, ब्रह्मा ने सृष्टि के विस्तार के लिए गहन ध्यान किया। भगवान की शक्ति से प्रेरित होकर उनके दस पुत्र उत्पन्न हुए, जो लोकों की संतति के कारण बने।
श्लोक 22
मरीचिरत्र्यङ्गिरसौ पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः।
भृगुर्वसिष्ठो दक्षश्च दशमस्तत्र नारदः ॥२२॥
अनुवाद:
वे दस महर्षि थे— मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वसिष्ठ, दक्ष और दसवें नारद मुनि।
श्लोक 23
उत्सङ्गान्नारदो जज्ञे दक्षोऽङ्गुष्ठात्स्वयम्भुवः।
प्राणाद्वसिष्ठः सञ्जातो भृगुस्त्वचि करात्क्रतुः ॥२३॥
अनुवाद:
नारद ब्रह्मा की गोद से उत्पन्न हुए, दक्ष उनके अंगूठे से, वसिष्ठ उनके प्राण से, भृगु उनकी त्वचा से और क्रतु उनके हाथ से प्रकट हुए।
श्लोक 24
पुलहो नाभितो जज्ञे पुलस्त्यः कर्णयोः ऋषिः।
अङ्गिरा मुखतोऽक्ष्णोऽत्रिः मरीचिर्मनसोऽभवत्॥२४॥
अनुवाद:
पुलह उनकी नाभि से, पुलस्त्य उनके कानों से, अंगिरा उनके मुख से, अत्रि उनकी आँखों से और मरीचि उनके मन से उत्पन्न हुए।
धर्म और अधर्म की उत्पत्ति
श्लोक 25
धर्मः स्तनाद्दक्षिणतो यत्र नारायणः स्वयम्।
अधर्मः पृष्ठतो यस्मात् मृत्युर्लोकभयङ्करः ॥२५॥
अनुवाद:
धर्म ब्रह्मा के दाहिने स्तन से प्रकट हुए, जहाँ स्वयं नारायण निवास करते हैं। अधर्म उनकी पीठ से उत्पन्न हुआ, जिससे मृत्यु की उत्पत्ति हुई, जो संसार के लिए भयकारक है।
श्लोक 26
हृदिकामो भ्रुवः क्रोधो लोभश्चाधरदच्छदात्।
आस्याद्वाक्सिन्धवो मेढ्रान्निर्ऋतिः पायोरघाश्रयः॥२६॥
अनुवाद:
काम (वासना) ब्रह्मा के हृदय से उत्पन्न हुआ, क्रोध भौंहों से, लोभ निचले होंठ से, वाणी मुख से, सिंधव (अश्व) दाँतों से, और पापयुक्त निर्ऋति उनके गुदाद्वार से उत्पन्न हुआ।
श्लोक 27
छायायाः कर्दमो जज्ञे देवहूत्याः पतिः प्रभुः।
मनसो देहतश्चेदं जज्ञे विश्वकृतो जगत् ॥२७॥
अनुवाद:
कर्दम मुनि ब्रह्मा की छाया से उत्पन्न हुए और आगे जाकर देवहूति के पति बने। ब्रह्मा के मन से संपूर्ण सृष्टि उत्पन्न हुई।
ब्रह्मा की पुत्री वाणी (सरस्वती) की उत्पत्ति और मोह
श्लोक 28
वाचं दुहितरं तन्वीं स्वयम्भूर्हरतीं मनः।
अकामां चकमे क्षत्तः सकाम इति नः श्रुतम् ॥२८॥
अनुवाद:
ब्रह्मा की एक अत्यंत सुंदर कन्या (सरस्वती) उत्पन्न हुई, जिनका स्वरूप वाणी था। उन्हें देखकर ब्रह्मा ने मोहवश उन्हें प्राप्त करने की इच्छा की, यद्यपि वे स्वयं निर्मल थीं।
श्लोक 29
तमधर्मे कृतमतिं विलोक्य पितरं सुताः।
मरीचि मुख्या मुनयो विश्रम्भात् प्रत्यबोधयन् ॥२९॥
अनुवाद:
ब्रह्मा को अधर्मयुक्त विचारों में लिप्त देखकर मरीचि आदि ऋषियों ने अपने पिता को इस अनुचित विचार से रोकने का प्रयास किया।
श्लोक 30
नैतत्पूर्वैः कृतं त्वद्ये न करिष्यन्ति चापरे।
यस्त्वं दुहितरं गच्छेः अनिगृह्याङ्गजं प्रभुः ॥३०॥
अनुवाद:
"हे प्रभु! ऐसा कार्य न तो पहले किसी ने किया है और न ही भविष्य में कोई करेगा। आप अपनी ही पुत्री के प्रति आकर्षित होकर अधर्म में प्रवृत्त क्यों हो रहे हैं?"
श्लोक 31
तेजीयसामपि ह्येतन्न सुश्लोक्यं जगद्गुरो।
यद्वृत्तमनुतिष्ठन् वै लोकः क्षेमाय कल्पते ॥३१॥
अनुवाद:
"हे जगद्गुरु! यहाँ तक कि महान तेजस्वी पुरुषों के लिए भी यह उचित नहीं है। लोक को तो सद्गुणी पुरुषों का अनुसरण करना चाहिए, न कि अधर्म का।"
ब्रह्मा का आत्मसंयम और दिशाओं की उत्पत्ति
श्लोक 32
तस्मै नमो भगवते य इदं स्वेन रोचिषा।
आत्मस्थं व्यञ्जयामास स धर्मं पातुमर्हति ॥३२॥
अनुवाद:
हम उन भगवान को नमन करते हैं, जिन्होंने अपने तेजस्वी प्रकाश से यह संपूर्ण जगत प्रकाशित किया। वे ही धर्म की रक्षा करने के योग्य हैं।
श्लोक 33
स इत्थं गृणतः पुत्रान् पुरो दृष्ट्वा प्रजापतीन्।
प्रजापतिपतिस्तन्वंस्तत्याज व्रीडितस्तदा॥३३॥
अनुवाद:
अपने पुत्रों द्वारा इस प्रकार समझाए जाने पर प्रजापति ब्रह्मा लज्जित हो गए और उन्होंने अपने शरीर का त्याग कर दिया।
श्लोक 34
तां दिशो जगृहुर्घोरां नीहारं यद्विदुस्तमः ॥३४॥
अनुवाद:
उनके द्वारा त्यागे गए उस शरीर को दिशाओं ने ग्रहण किया, जिसे 'नीहार' (कोहरा) और 'तमस' (अंधकार) के रूप में जाना जाता है।
ब्रह्मा द्वारा वेदों की उत्पत्ति
श्लोक 35
कदाचिद् ध्यायतः स्रष्टुः वेदा आसंश्चतुर्मुखात्।
कथं स्रक्ष्याम्यहं लोकान् समवेतान् यथा पुरा ॥३५॥
अनुवाद:
एक बार ब्रह्मा गहन ध्यान कर रहे थे कि किस प्रकार वे पहले की तरह पुनः सृष्टि की रचना करें। तभी उनके चार मुखों से चारों वेद प्रकट हुए।
श्लोक 36
चातुर्होत्रं कर्मतन्त्रं उपवेदनयैः सह।
धर्मस्य पादाश्चत्वारः तथैवाश्रमवृत्तयः ॥३६॥
अनुवाद:
ब्रह्मा ने चारों वेदों से चार प्रकार के यज्ञ (हवन) और उनके अनुष्ठान के नियम उत्पन्न किए। उन्होंने धर्म के चार स्तंभ (सत्य, तप, दया, और शौच) तथा चार आश्रमों (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, और संन्यास) की व्यवस्था की।
विदुर का प्रश्न
श्लोक 37
स वै विश्वसृजामीशो वेदादीन्मुखतोऽसृजत्।
यद्यद्येनासृजद्देवस्तन्मे ब्रूहि तपोधन ॥३७॥
अनुवाद:
विदुर ने पूछा— "हे महर्षि मैत्रेय! ब्रह्मा जो समस्त विश्व के स्रष्टा हैं, उन्होंने अपने मुख से वेदों की उत्पत्ति की। कृपया बताइए कि उन्होंने और कौन-कौन से ग्रंथ और विद्याएँ किस अंग से प्रकट कीं?"
ब्रह्मा द्वारा वेदों और शास्त्रों की रचना
श्लोक 38
ऋग्यजुःसामाथर्वाख्यान् वेदान् पूर्वादिभिर्मुखैः।
शास्त्रमिज्यास्तुतिस्तोमं प्रायश्चित्तं व्यधात्क्रमात्॥३८॥
अनुवाद:
ब्रह्मा ने अपने चार मुखों से चार वेद उत्पन्न किए— ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, और अथर्ववेद। उन्होंने इनके साथ शास्त्र, यज्ञ, स्तुतियाँ, स्तोत्र, और प्रायश्चित्त विधान की भी रचना की।
श्लोक 39
आयुर्वेदं धनुर्वेदं गान्धर्वं वेदमात्मनः।
स्थापत्यं चासृजद्वेदं क्रमात् पूर्वादिभिर्मुखैः ॥३९॥
अनुवाद:
ब्रह्मा ने अपने विभिन्न अंगों से चार उपवेदों की भी उत्पत्ति की—
- आयुर्वेद (चिकित्सा विज्ञान)
- धनुर्वेद (युद्ध विज्ञान)
- गांधर्व वेद (संगीत और नृत्य कला)
- स्थापत्य वेद (वास्तुशास्त्र)
श्लोक 40
इतिहासपुराणानि पञ्चमं वेदमीश्वरः।
सर्वेभ्य एव वक्त्रेभ्यः ससृजे सर्वदर्शनः ॥४०॥
अनुवाद:
भगवान ब्रह्मा ने चार वेदों के अतिरिक्त इतिहास (रामायण और महाभारत) और पुराणों को 'पंचम वेद' के रूप में उत्पन्न किया, जो सभी ज्ञान के मूल स्रोत हैं।
श्लोक 41
षोडश्युक्थौ पूर्ववक्त्रात् पुरीष्यग्निष्टुतावथ।
आप्तोर्यामातिरात्रौ च वा जपेयं सगोसवम् ॥४१॥
अनुवाद:
ब्रह्मा ने यज्ञों के विभिन्न अंगों को भी उत्पन्न किया, जैसे— षोडशी, युक्त, पुरीष्य, अग्निष्टुत, आप्तोर्याम, अतिरात्र, और गोसव यज्ञ।
श्लोक 42
विद्या दानं तपः सत्यं धर्मस्येति पदानि च।
आश्रमांश्च यथासंख्यं असृजत्सह वृत्तिभिः ॥४२॥
अनुवाद:
उन्होंने धर्म के चार प्रमुख स्तंभ उत्पन्न किए—
- विद्या (ज्ञान)
- दान (परोपकार)
- तप (साधना)
- सत्य (सत्यता)
साथ ही, उन्होंने प्रत्येक आश्रम (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, और संन्यास) के लिए उचित आचरण और आजीविका का भी निर्धारण किया।
संन्यास आश्रम की विविध शाखाएँ
श्लोक 43
सावित्रं प्राजापत्यं च ब्राह्मं चाथ बृहत्तथा।
वार्ता सञ्चयशालीन शिलोञ्छ इति वै गृहे ॥४३॥
अनुवाद:
गृहस्थ आश्रम के चार प्रकार हैं—
- सावित्र (साधारण गृहस्थ जीवन)
- प्राजापत्य (पुत्रोत्पत्ति में संलग्न गृहस्थ)
- ब्राह्म (धार्मिक जीवन जीने वाले)
- बृहत्त (त्यागपूर्ण गृहस्थ)
श्लोक 44
वैखानसा वालखिल्यौदुम्बराः फेनपा वने।
न्यासे कुटीचकः पूर्वं बह्वोदो हंसनिष्क्रियौ ॥४४॥
अनुवाद:
संन्यासियों के चार प्रकार हैं—
- कुटीचक (गृह के पास तपस्या करने वाले)
- बह्वोद (ज्ञान प्राप्ति में संलग्न)
- हंस (स्वतंत्र रूप से घूमने वाले)
- निष्क्रिय (परम ध्यानमग्न)
प्रणव (ॐ) और सप्त छंदों की उत्पत्ति
श्लोक 45
तस्योष्णिगासील्लोमभ्यो गायत्री च त्वचो विभोः।
त्रिष्टुम्मांसात्स्नुतोऽनुष्टुब्जगत्यस्थ्नः प्रजापतेः ॥४५॥
अनुवाद:
ब्रह्मा के शरीर से सात छंद उत्पन्न हुए—
- उष्णिक (रोम से)
- गायत्री (त्वचा से)
- त्रिष्टुप (मांस से)
- अनुष्टुप (मज्जा से)
- जगती (अस्थियों से)
प्रणव (ॐ) और सप्त छंदों की उत्पत्ति (जारी)
श्लोक 46
मज्जायाः पङ्क्तिरुत्पन्ना बृहती प्राणतोऽभवत्।
स्पर्शस्तस्याभवज्जीवः स्वरो देह उदाहृत ॥४६॥
अनुवाद:
ब्रह्मा की मज्जा से पङ्क्ति छंद उत्पन्न हुआ और उनके प्राणों से बृहती छंद की उत्पत्ति हुई। उनके स्पर्श से जीवों की उत्पत्ति हुई, और उनके शरीर से स्वरों (ध्वनि तत्व) की उत्पत्ति हुई।
श्लोक 47
ऊष्माणमिन्द्रियाण्याहुः अन्तःस्था बलमात्मनः।
स्वराः सप्तविहारेण भवन्ति स्म प्रजापतेः ॥४७॥
अनुवाद:
ब्रह्मा के शरीर की ऊष्मा से इंद्रियों की उत्पत्ति हुई। उनकी आंतरिक शक्ति से आत्मबल प्रकट हुआ। उनसे सप्त स्वर (सा, रे, ग, म, प, ध, नि) विकसित हुए, जो प्रजा (जीवों) के लिए आधार बने।
श्लोक 48
शब्दब्रह्मात्मनस्तस्य व्यक्ताव्यक्तात्मनः परः।
ब्रह्मावभातिविततो नाना शक्त्युपबृंहितः ॥४८॥
अनुवाद:
ब्रह्मा के शब्दब्रह्म स्वरूप में, जो व्यक्त (साकार) और अव्यक्त (निर्विकार) दोनों हैं, अनेकों शक्तियों से समृद्ध होकर समस्त ब्रह्मांड में प्रकाशित हुआ।
ब्रह्मा द्वारा ऋषियों की उत्पत्ति
श्लोक 49
ततोऽपरामुपादाय ससर्गाय मनोदधे।
ऋषीणां भूरिवीर्याणां अपि सर्गमविस्तृतम् ॥४९॥
अनुवाद:
इसके बाद, ब्रह्मा ने अन्य उत्पत्तियों का सृजन किया और अत्यंत बलशाली ऋषियों की विस्तृत सृष्टि की।
श्लोक 50
ज्ञात्वा तद्धृदये भूयः चिन्तयामास कौरव।
अहो अद्भुतमेतन्मे व्यापृतस्यापि नित्यदा ॥५०॥
अनुवाद:
हे कौरव! ब्रह्मा ने अपने हृदय में विचार किया— "अहो! यह अत्यंत अद्भुत है कि मैं निरंतर सृष्टि निर्माण में लगा हूँ, फिर भी मेरी सृष्टि बढ़ नहीं रही।"
श्लोक 51
न ह्येधन्ते प्रजा नूनं दैवमत्र विघातकम्।
एवं युक्तकृतस्तस्य दैवं चावेक्षतस्तदा ॥५१॥
अनुवाद:
"निश्चित रूप से, मेरी उत्पन्न की गई प्रजा बढ़ नहीं रही है। संभवतः इसके पीछे कोई दैविक कारण है।" ऐसा सोचकर उन्होंने देवताओं की इच्छा को देखा।
ब्रह्मा का शरीर दो भागों में विभाजित हुआ
श्लोक 52
कस्य रूपमभूद्द्वेधा यत्कायमभिचक्षते।
ताभ्यां रूपविभागाभ्यां मिथुनं समपद्यत ॥५२॥
अनुवाद:
ब्रह्मा का शरीर दो भागों में विभक्त हो गया। ये दोनों रूप नर और नारी के रूप में प्रकट हुए, जिससे प्रथम मिथुन (युगल) का निर्माण हुआ।
श्लोक 53
यस्तु तत्र पुमान्सोऽभूत् मनुः स्वायम्भुवः स्वराट्।
स्त्री याऽऽसीच्छतरूपाख्या महिष्यस्य महात्मनः ॥५३॥
अनुवाद:
उस पुरुष स्वरूप को स्वायंभुव मनु कहा गया, जो एक महान सम्राट बने। स्त्री रूप शतरूपा के नाम से प्रसिद्ध हुई, जो मनु की पत्नी बनीं।
मनु और शतरूपा से मानव सृष्टि का विस्तार
श्लोक 54
तदा मिथुनधर्मेण प्रजा ह्येधाम्बभूविरे।
स चापि शतरूपा यां पञ्चापत्यान्यजीजनत् ॥५४॥
अनुवाद:
इस प्रकार, नर और नारी के संयोग से मानव सृष्टि का विस्तार प्रारंभ हुआ। स्वायंभुव मनु और शतरूपा से पाँच संतानें उत्पन्न हुईं।
श्लोक 55
प्रियव्रतोत्तानपादौ तिस्रः कन्याश्च भारत।
आकूतिर्देवहूतिश्च प्रसूतिरिति सत्तम ॥५५॥
अनुवाद:
हे भारत! मनु और शतरूपा के दो पुत्र हुए— प्रियव्रत और उत्तानपाद, और तीन कन्याएँ— आकूति, देवहूति और प्रसूति।
श्लोक 56
आकूतिं रुचये प्रादात् कर्दमाय तु मध्यमाम्।
दक्षायादात्प्रसूतिं च यत आपूरितं जगत् ॥५६॥
अनुवाद:
मनु ने अपनी कन्या आकूति का विवाह महर्षि रुचि से, देवहूति का विवाह महर्षि कर्दम से और प्रसूति का विवाह प्रजापति दक्ष से कर दिया। इन्हीं वंशों से आगे चलकर संपूर्ण सृष्टि विस्तारित हुई।
अध्याय सारांश:
इस अध्याय में ब्रह्मा द्वारा वेदों, उपवेदों, शास्त्रों, ऋषियों, प्रणव (ॐ) और मानव सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन किया गया।
- रुद्र की उत्पत्ति और उनके द्वारा सृष्टि के विनाशकारी रूप को देखकर ब्रह्मा ने उन्हें तपस्या करने के लिए कहा।
- दस प्रमुख ऋषियों (मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वसिष्ठ, दक्ष, और नारद) की उत्पत्ति हुई।
- चार वेदों, चार उपवेदों, इतिहास-पुराण, और शास्त्रों की उत्पत्ति हुई।
- ब्रह्मा ने धर्म, अधर्म, काम, क्रोध, लोभ, वाणी, तथा अन्य भावनाओं की सृष्टि की।
- मनु और शतरूपा की उत्पत्ति से मानव समाज का विकास प्रारंभ हुआ।
- मनु के पुत्र-पुत्रियों से आगे चलकर संपूर्ण सृष्टि की विस्तार हुआ।
(अध्याय समाप्त)
अब संपूर्ण अध्याय का हिंदी अनुवाद पूरा हुआ। यदि आप किसी विशेष श्लोक की व्याख्या या चित्रण चाहते हैं, तो बताइए!
COMMENTS