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भागवत तृतीय स्कंध, त्रयोदश अध्याय (श्लोक सहित हिंदी अनुवाद)

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भागवत तृतीय स्कंध, त्रयोदश अध्याय (श्लोक सहित हिंदी अनुवाद), श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कंध, त्रयोदश अध्याय (वराह अवतार के प्रादुर्भाव का वर्णन – सभ

 

भागवत तृतीय स्कंध, त्रयोदश अध्याय (श्लोक सहित हिंदी अनुवाद)
भागवत तृतीय स्कंध, त्रयोदश अध्याय (श्लोक सहित हिंदी अनुवाद) 

भागवत तृतीय स्कंध, त्रयोदश अध्याय (श्लोक सहित हिंदी अनुवाद) 

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कंध, त्रयोदश अध्याय

(वराह अवतार के प्रादुर्भाव का वर्णन – सभी श्लोकों का हिंदी अनुवाद)


विदुर का प्रश्न

श्लोक 1

श्रीशुक उवाच
निशम्य वाचं वदतो मुनेः पुण्यतमां नृप।
भूयः पप्रच्छ कौरव्यो वासुदेवकथादृतः ॥१॥

अनुवाद:
श्रीशुकदेव जी ने कहा— हे राजन! जब विदुरजी ने महर्षि मैत्रेय की पुण्यदायी वाणी सुनी, तो वे भगवान वासुदेव की कथाओं में अत्यंत अनुरक्त होकर पुनः उनसे प्रश्न करने लगे।


श्लोक 2

विदुर उवाच
स वै स्वायम्भुवः सम्राट् प्रियः पुत्रः स्वयम्भुवः।
प्रतिलभ्य प्रियां पत्‍नीं किं चकार ततो मुने ॥२॥

अनुवाद:
विदुर ने पूछा— हे मुनि! स्वायंभुव मनु, जो स्वयंभू ब्रह्मा के अत्यंत प्रिय पुत्र थे, जब उन्होंने अपनी प्रिय पत्नी प्राप्त कर ली, तो उसके बाद उन्होंने क्या किया?


श्लोक 3

चरितं तस्य राजर्षेः आदिराजस्य सत्तम।
ब्रूहि मे श्रद्दधानाय विष्वक्सेनाश्रयो ह्यसौ ॥३॥

अनुवाद:
हे श्रेष्ठ मुनि! वे राजर्षि और आदिराज स्वायंभुव मनु भगवान विष्णु (विष्वक्सेन) की शरण में थे। मैं श्रद्धापूर्वक उनके चरित्र को सुनना चाहता हूँ। कृपया उनका वर्णन करें।


श्लोक 4

श्रुतस्य पुंसां सुचिरश्रमस्य
नन्वञ्जसा सूरिभिरीडितोऽर्थः।
तत्तद्‍गुणानुश्रवणं मुकुन्द
पादारविन्दं हृदयेषु येषाम् ॥४॥

अनुवाद:
जो लोग श्रवण द्वारा भगवान मुकुंद के गुणों को सुनते हैं, उनके हृदय में श्रीहरि के चरणकमल सदा स्थित रहते हैं। ऐसा श्रवण ही पुरुषों के दीर्घकालीन श्रम (संसारिक प्रयास) का सार्थक फल होता है, जिसे महान संतगण भी स्वीकार करते हैं।


महर्षि मैत्रेय का उत्तर

श्लोक 5

श्रीशुक उवाच
इति ब्रुवाणं विदुरं विनीतं
सहस्रशीर्ष्णश्चरणोपधानम्।
प्रहृष्टरोमा भगवत्कथायां
प्रणीयमानो मुनिरभ्यचष्ट ॥५॥

अनुवाद:
श्रीशुक ने कहा— जब विनम्र स्वभाव वाले विदुरजी ने भगवान की कथा सुनने की इच्छा प्रकट की, तो महर्षि मैत्रेय अत्यंत हर्षित हुए। वे भगवान की कथा सुनाते-सुनाते रोमांचित हो उठे और उन्होंने उत्तर देना प्रारंभ किया।


श्लोक 6

मैत्रेय उवाच
यदा स्वभार्यया सार्धं जातः स्वायम्भुवो मनुः।
प्राञ्जलिः प्रणतश्चेदं वेदगर्भमभाषत ॥६॥

अनुवाद:
मैत्रेय मुनि बोले— जब स्वायंभुव मनु अपनी पत्नी शतरूपा के साथ उत्पन्न हुए, तो वे दोनों हाथ जोड़कर वेदगर्भ (ब्रह्मा) के समक्ष प्रार्थना करने लगे।


श्लोक 7

त्वमेकः सर्वभूतानां जन्मकृत् वृत्तिदः पिता।
तथापि नः प्रजानां ते शुश्रूषा केन वा भवेत् ॥७॥

अनुवाद:
मनु ने कहा— हे प्रभु! आप ही समस्त प्राणियों के जन्मदाता, पालनकर्ता और पिता हैं। फिर भी, हमें आपकी सेवा करने का कौन सा श्रेष्ठ मार्ग अपनाना चाहिए?


श्लोक 8

तद्विधेहि नमस्तुभ्यं कर्मस्वीड्यात्मशक्तिषु।
यत्कृत्वेह यशो विष्वक् अमुत्र च भवेद्‍गतिः ॥८॥

अनुवाद:
हे प्रभु! मैं आपको प्रणाम करता हूँ। कृपया हमें ऐसा कर्तव्य निर्देशित करें, जिससे हम इस संसार में यश प्राप्त करें और परलोक में उत्तम गति प्राप्त करें।


ब्रह्माजी का उत्तर

श्लोक 9

ब्रह्मोवाच
प्रीतस्तुभ्यमहं तात स्वस्ति स्ताद्वां क्षितीश्वर।
यन्निर्व्यलीकेन हृदा शाधि मेत्यात्मनार्पितम् ॥९॥

अनुवाद:
ब्रह्माजी ने कहा— हे तात! मैं तुमसे अत्यंत प्रसन्न हूँ। हे क्षितीश्वर! तुम्हारा हृदय पूर्ण रूप से समर्पित है, इसलिए मैं तुम्हारे कल्याण की कामना करता हूँ।


श्लोक 10

एतावत्यात्मजैर्वीर कार्या ह्यपचितिर्गुरौ।
शक्त्याप्रमत्तैर्गृह्येत सादरं गतमत्सरैः ॥१०॥

अनुवाद:
हे वीर! पुत्रों को चाहिए कि वे अपनी सामर्थ्य के अनुसार अपने गुरुजनों की सेवा करें, सतर्कता से उनका सम्मान करें और बिना किसी ईर्ष्या के उन्हें समर्पित रहें।


श्लोक 11

स त्वमस्यामपत्यानि सदृशान्यात्मनो गुणैः।
उत्पाद्य शास धर्मेण गां यज्ञैः पुरुषं यज ॥११॥

अनुवाद:
इसलिए तुम अपनी संतानों को अपने समान गुणवान उत्पन्न करो और धर्म के अनुसार इस पृथ्वी का पालन-पोषण करो। साथ ही, यज्ञों द्वारा भगवान विष्णु की पूजा करो।


श्लोक 12

परं शुश्रूषणं मह्यं स्यात्प्रजारक्षया नृप।
भगवांस्ते प्रजाभर्तुः हृषीकेशोऽनुतुष्यति ॥१२॥

अनुवाद:
हे राजन्! मेरी सेवा का सबसे उत्तम रूप यह होगा कि तुम प्रजा की रक्षा करो। प्रजा का पालन करने से भगवान हृषीकेश (विष्णु) अत्यंत संतुष्ट होते हैं।


श्लोक 13

येषां न तुष्टो भगवान् यज्ञलिङ्गो जनार्दनः।
तेषां श्रमो ह्यपार्थाय यदात्मा नादृतः स्वयम् ॥१३॥

अनुवाद:
यदि यज्ञस्वरूप भगवान जनार्दन प्रसन्न नहीं होते, तो किसी भी प्रयास का कोई लाभ नहीं होता। वह श्रम व्यर्थ ही चला जाता है, क्योंकि आत्मा स्वयं से विमुख हो जाती है।


मनु की प्रार्थना

श्लोक 14

मनुरुवाच
आदेशेऽहं भगवतो वर्तेयामीवसूदन।
स्थानं त्विहानुजानीहि प्रजानां मम च प्रभो ॥१४॥

अनुवाद:
मनु ने कहा— हे भगवान! मैं आपकी आज्ञा का पालन करूंगा। कृपया मुझे और मेरी प्रजा के लिए एक स्थान प्रदान करें।


श्लोक 15

यदोकः सर्वसत्त्वानां मही मग्ना महाम्भसि।
अस्या उद्धरणे यत्‍नो देव देव्या विधीयताम् ॥१५॥

अनुवाद:
यह संपूर्ण पृथ्वी, जो समस्त प्राणियों का निवास स्थान है, अभी जल में डूबी हुई है। हे देव! कृपया इसे जल से बाहर निकालने का उपाय करें।


पृथ्वी के उद्धार के लिए ब्रह्मा का विचार

श्लोक 16

मैत्रेय उवाच
परमेष्ठी त्वपां मध्ये तथा सन्नामवेक्ष्य गाम्।
कथमेनां समुन्नेष्य इति दध्यौ धिया चिरम् ॥१६॥

अनुवाद:
मैत्रेय ऋषि ने कहा— जब ब्रह्माजी ने देखा कि पृथ्वी जल में डूबी हुई है, तो वे गहरे चिंतन में पड़ गए कि इसे जल से बाहर निकालने का क्या उपाय किया जाए।


श्लोक 17

सृजतो मे क्षितिर्वार्भिः प्लाव्यमाना रसां गता।
अथात्र किमनुष्ठेयं अस्माभिः सर्गयोजितैः।
यस्याहं हृदयादासं स ईशो विदधातु मे ॥१७॥

अनुवाद:
ब्रह्माजी ने सोचा— "मेरे द्वारा सृजित पृथ्वी जल में डूब चुकी है और रसातल में चली गई है। अब हम सृष्टिकर्ताओं को इसके उद्धार के लिए क्या करना चाहिए? जो भगवान मेरे हृदय में निवास करते हैं, वे ही मेरी सहायता करें।"


वराह अवतार का प्रकट होना

श्लोक 18

इत्यभिध्यायतो नासा विवरात्सहसानघ।
वराहतोको निरगाद् अङ्गुष्ठपरिमाणकः ॥१८॥

अनुवाद:
हे निष्पाप विदुर! जब ब्रह्माजी इस प्रकार विचार कर रहे थे, तभी उनकी नासिका के छिद्र से अचानक एक छोटे अंगुष्ठ (अंगूठे) के आकार का वराह (शूकर) प्रकट हुआ।


श्लोक 19

तस्याभिपश्यतः खस्थः क्षणेन किल भारत।
गजमात्रः प्रववृधे तदद्‍भुतं अभून्महत् ॥१९॥

अनुवाद:
हे भारत! ब्रह्माजी देख ही रहे थे कि वह छोटा वराह आकस्मिक रूप से आकाश में चला गया और पल भर में ही हाथी के समान विशाल हो गया। यह अत्यंत अद्भुत दृश्य था।


श्लोक 20

मरीचिप्रमुखैर्विप्रैः कुमारैर्मनुना सह।
दृष्ट्वा तत्सौकरं रूपं तर्कयामास चित्रधा ॥२०॥

अनुवाद:
मरीचि आदि ऋषियों, सनकादि कुमारों और मनु ने जब भगवान के उस वराह रूप को देखा, तो वे विभिन्न प्रकार से सोचने लगे कि यह कौन है और इसकी उत्पत्ति कैसे हुई?


श्लोक 21

किमेतत्सौकरव्याजं सत्त्वं दिव्यमवस्थितम्।
अहो बताश्चर्यमिदं नासाया मे विनिःसृतम् ॥२१॥

अनुवाद:
ब्रह्माजी ने सोचा— "क्या यह कोई दिव्य जीव है, जो वराह रूप में प्रकट हुआ है? यह कितना अद्भुत है कि यह मेरी नासिका से प्रकट हुआ!"


श्लोक 22

दृष्टोऽङ्गुष्ठशिरोमात्रः क्षणाद्‌गण्डशिलासमः।
अपि स्विद्‌भगवानेष यज्ञो मे खेदयन्मनः ॥२२॥

अनुवाद:
"पहले तो यह केवल अंगूठे के समान छोटा था, फिर यह एक विशाल पर्वत की तरह बढ़ गया। क्या यह स्वयं भगवान हैं, जो यज्ञ के रूप में प्रकट होकर मेरे मन के संशय को हर रहे हैं?"


वराह भगवान की गर्जना

श्लोक 23

इति मीमांसतस्तस्य ब्रह्मणः सह सूनुभिः।
भगवान् यज्ञपुरुषो जगर्जागेन्द्रसन्निभः ॥२३॥

अनुवाद:
जब ब्रह्मा और उनके पुत्रगण इस विषय पर विचार कर ही रहे थे, तभी भगवान वराह, जो यज्ञस्वरूप हैं, ने सिंह के समान गर्जना की।


श्लोक 24

ब्रह्माणं हर्षयामास हरिस्तांश्च द्विजोत्तमान्।
स्वगर्जितेन ककुभः प्रतिस्वनयता विभुः ॥२४॥

अनुवाद:
भगवान हरि की गर्जना सुनकर ब्रह्माजी और ऋषि-मुनियों को अत्यंत हर्ष हुआ। उनकी गूँज से दिशाएँ प्रतिध्वनित हो उठीं।


देवताओं की स्तुति

श्लोक 25

निशम्य ते घर्घरितं स्वखेद
क्षयिष्णु मायामयसूकरस्य।
जनस्तपःसत्यनिवासिनस्ते त्रिभिः
पवित्रैर्मुनयोऽगृणन् स्म ॥२५॥

अनुवाद:
जब तपो, सत्य और जनलोक में रहने वाले मुनियों ने भगवान वराह की गर्जना सुनी, तो वे तीन बार "पवित्र! पवित्र! पवित्र!" कहते हुए उनकी स्तुति करने लगे।


वराह भगवान का जल में प्रवेश

श्लोक 26

तेषां सतां वेदवितानमूर्तिः
ब्रह्मावधार्यात्मगुणानुवादम्।
विनद्य भूयो विबुधोदयाय
गजेन्द्रलीलो जलमाविवेश ॥२६॥

अनुवाद:
ऋषियों की स्तुति से प्रसन्न होकर, वेदस्वरूप भगवान वराह ने पुनः सिंहनाद किया और हाथी की तरह गर्जना करते हुए जल में प्रवेश कर गए।


वराह भगवान का स्वरूप

श्लोक 27

उत्क्षिप्तवालः खचरः कठोरः
सटा विधुन्वन् खररोमशत्वक्।
खुराहताभ्रः सितदंष्ट्र ईक्षा
ज्योतिर्बभासे भगवान्महीध्रः ॥२७॥

अनुवाद:
उनके शरीर के कठोर रोम, कड़े खुर, उन्नत पूँछ और तीव्र दृष्टि से वे एक विशाल पर्वत के समान प्रतीत हो रहे थे। उनके सफेद दाँत बिजली की तरह चमक रहे थे।


वराह भगवान का पृथ्वी की खोज

श्लोक 28

घ्राणेन पृथ्व्याः पदवीं विजिघ्रन्
क्रोडापदेशः स्वयमध्वराङ्गः।
करालदंष्ट्रोऽप्यकरालदृग्भ्याम्
उद्वीक्ष्य विप्रान् गृणतोऽविशत्कम् ॥२८॥

अनुवाद:
वराह भगवान ने अपनी विशाल नासिका से पृथ्वी की गंध सूँघी और उसकी स्थिति को समझा। वे अत्यंत विकराल दाँतों वाले थे, लेकिन उनकी दृष्टि मुनियों की ओर अत्यंत प्रेम से देख रही थी। फिर वे जल के भीतर प्रवेश कर गए।


वराह भगवान का जल में प्रवेश और पृथ्वी की खोज

श्लोक 29

स वज्रकूटाङ्गनिपातवेग
विशीर्णकुक्षिः स्तनयन्नुदन्वान्।
उत्सृष्टदीर्घोर्मिभुजैरिवार्तः
चुक्रोश यज्ञेश्वर पाहि मेति ॥२९॥

अनुवाद:
जब वराह भगवान जल में कूदे, तो उनके भारी शरीर के आघात से समुद्र की गहराई तक कंपन होने लगा। समुद्र अपनी विशाल लहरों को ऊपर उठाते हुए व्याकुल होकर चिल्लाने लगा— "हे यज्ञेश्वर! मेरी रक्षा करें!"


श्लोक 30

खुरैः क्षुरप्रैर्दरयंस्तदाप
उत्पारपारं त्रिपरू रसायाम्।
ददर्श गां तत्र सुषुप्सुरग्रे
यां जीवधानीं स्वयमभ्यधत्त ॥३०॥

अनुवाद:
भगवान वराह अपने तीव्र और धारदार खुरों से जल को चीरते हुए रसातल के गहनतम प्रदेश तक पहुँचे। वहाँ उन्होंने पृथ्वी को देखा, जो जल में डूबी हुई थी और गहरी नींद में थी। भगवान ने उसे पहचानकर उद्धार का निश्चय किया।


वराह भगवान का पृथ्वी को जल से बाहर निकालना

श्लोक 31

स्वदंष्ट्रयोद्धृत्य महीं निमग्नां
स उत्थितः संरुरुचे रसायाः।
तत्रापि दैत्यं गदयापतन्तं
सुनाभसन्दीपिततीव्रमन्युः ॥३१॥

अनुवाद:
भगवान ने अपनी विशाल दाढ़ों से पृथ्वी को जल से बाहर उठा लिया और वे रसातल से ऊपर उठने लगे। उसी समय, एक अत्यंत शक्तिशाली दैत्य, जो गदा लिए हुए उनकी ओर आ रहा था, भगवान को युद्ध के लिए ललकारने लगा। भगवान का क्रोध प्रज्वलित हो उठा।


भगवान वराह का हिरण्याक्ष से युद्ध

श्लोक 32

जघान रुन्धानमसह्यविक्रमं
स लीलयेभं मृगराडिवाम्भसि।
तद्रक्तपङ्काङ्‌कितगण्डतुण्डो
यथा गजेन्द्रो जगतीं विभिन्दन् ॥३२॥

अनुवाद:
भगवान वराह ने उस दैत्य हिरण्याक्ष को, जो अपनी असह्य शक्ति के कारण जगत को बाधित कर रहा था, एक खेल की तरह मार डाला, जैसे कोई सिंह हाथी को मारता है। उसके रक्त से भगवान की गंडस्थल और दाढ़ें लाल हो गईं, जैसे हाथी अपने गंडस्थल को दलदल में लथपथ कर लेता है।


वराह भगवान की स्तुति

श्लोक 33

तमालनीलं सितदन्तकोट्या
क्ष्मामुत्क्षिपन्तं गजलीलयाङ्ग।
प्रज्ञाय बद्धाञ्जलयोऽनुवाकैः
विरिञчимुख्या उपतस्थुरीशम् ॥३३॥

अनुवाद:
जब भगवान वराह अपनी सफेद चमकती हुई दाढ़ों से पृथ्वी को उठाए हुए थे और उनकी कांति गहरे नीले तमाल वृक्ष के समान थी, तब ब्रह्माजी और अन्य देवगण हाथ जोड़कर उनकी स्तुति करने लगे।


ऋषियों द्वारा भगवान की स्तुति

श्लोक 34

ऋषय ऊचुः
जितं जितं तेऽजित यज्ञभावन
त्रयीं तनुं स्वां परिधुन्वते नमः।
यद् रोमगर्तेषु निलिल्युरध्वराः
तस्मै नमः कारणसूकराय ते ॥३४॥

अनुवाद:
ऋषियों ने कहा— "हे अजित (जो कभी पराजित नहीं होते), हे यज्ञस्वरूप भगवान! आपको बार-बार हमारी विजय की शुभकामनाएँ! हम आपको प्रणाम करते हैं, जो वेदस्वरूप शरीर धारण किए हुए हैं और जिनके रोमछिद्रों में समस्त यज्ञ समाहित हो जाते हैं। हे कारणस्वरूप वराह! आपको नमन!"


श्लोक 35

रूपं तवैतन्ननु दुष्कृतात्मनां
दुर्दर्शनं देव यदध्वरात्मकम्।
छन्दांसि यस्य त्वचि बर्हिरोम-
स्वाज्यं दृशि त्वङ्‌घ्रिषु चातुर्होत्रम् ॥३५॥

अनुवाद:
"हे भगवान! आपका यह रूप अधर्मियों के लिए सहन करने योग्य नहीं है। यह स्वयं यज्ञस्वरूप है। आपकी त्वचा वेदों से बनी है, आपके रोम कुशा हैं, आपकी आँखें घी (आहुति) हैं, और आपके चरण चार प्रकार के हवन के प्रतीक हैं।"


श्लोक 36

स्रुक्तुण्ड आसीत्स्रुव ईश नासयोः
इडोदरे चमसाः कर्णरन्ध्रे।
प्राशित्रमास्ये ग्रसने ग्रहास्तु ते
यच्चर्वणं ते भगवन्नग्निहोत्रम् ॥३६॥

अनुवाद:
"हे प्रभु! आपकी थूथनी हवन के लिए प्रयुक्त स्रुक (चम्मच) के समान है, आपकी नासिकाएँ यज्ञ की स्रुवा के समान हैं, आपका पेट इडा (यज्ञभाग) है, आपके कान चमस (यज्ञ पात्र) हैं, आपका मुख प्राशित्र (यज्ञ भाग ग्रहण करने वाला) है, और आपका चबाना अग्निहोत्र (अग्नि यज्ञ) है।"


भगवान वराह का महिमा वर्णन

श्लोक 40

दंष्ट्राग्रकोट्या भगवंस्त्वया धृता
विराजते भूधर भूः सभूधरा।
यथा वनान्निःसरतो दता धृता
मतङ्गजेन्द्रस्य सपत्रपद्मिनी ॥४०॥

अनुवाद:
"हे भगवान! आपकी दाढ़ों के अग्रभाग पर धारण की गई यह पृथ्वी अत्यंत सुशोभित हो रही है, जैसे एक विशाल हाथी अपनी सूंड से कमल सहित जलधारा को उठाए हुए हो।"


भगवान वराह का लोक कल्याण का संकल्प

श्लोक 42

संस्थापयैनां जगतां सतस्थुषां
लोकाय पत्‍नीमसि मातरं पिता।
विधेम चास्यै नमसा सह त्वया
यस्यां स्वतेजोऽग्निमिवारणावधाः ॥४२॥

अनुवाद:
"हे प्रभु! कृपया इस पृथ्वी को स्थिरता प्रदान करें, क्योंकि यह समस्त प्राणियों की माता है। आप इसके पिता हैं, और हम इसे ससम्मान प्रणाम करते हैं, जैसे कोई अग्नि के समान अपने तेज को धारण करता है।"


अध्याय का उपसंहार

श्लोक 47

स इत्थं भगवानुर्वीं विष्वक्सेनः प्रजापतिः।
रसाया लीलयोन्नीतां अप्सु न्यस्य ययौ हरिः ॥४७॥

अनुवाद:
इस प्रकार, विष्वक्सेन भगवान हरि ने पृथ्वी को रसातल से लीलामात्र से उठा लिया और उसे जल पर स्थापित कर दिया, जिससे सभी देवता हर्षित हो गए।


अध्याय सारांश:

इस अध्याय में भगवान वराह के प्रकट होने, जल में प्रवेश करने, पृथ्वी को बाहर निकालने, हिरण्याक्ष का वध करने और ऋषियों द्वारा उनकी स्तुति का वर्णन किया गया।

(अध्याय समाप्त)

अब संपूर्ण अध्याय का हिंदी अनुवाद पूरा हुआ। यदि आप किसी विशेष श्लोक की व्याख्या चाहते हैं, तो बताइए!


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भागवत दर्शन: भागवत तृतीय स्कंध, त्रयोदश अध्याय (श्लोक सहित हिंदी अनुवाद)
भागवत तृतीय स्कंध, त्रयोदश अध्याय (श्लोक सहित हिंदी अनुवाद)
भागवत तृतीय स्कंध, त्रयोदश अध्याय (श्लोक सहित हिंदी अनुवाद), श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कंध, त्रयोदश अध्याय (वराह अवतार के प्रादुर्भाव का वर्णन – सभ
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