संस्कृत श्लोक: "राष्ट्रस्य चित्तं कृपणस्य वित्तं" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद, सुभाषितानि, सुविचार, संस्कृत श्लोक, भागवत दर्शन, सूरज कृष्ण शास्त्री।
![]() |
संस्कृत श्लोक: "राष्ट्रस्य चित्तं कृपणस्य वित्तं" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद |
संस्कृत श्लोक: "राष्ट्रस्य चित्तं कृपणस्य वित्तं" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद
श्लोकः
शब्दार्थ (प्रत्येक शब्द का अर्थ):
-
राष्ट्रस्य (राष्ट्रस्य) → राष्ट्र (देश/जनता) का
-
चित्तं (चित्तम्) → मन, सोच, विचार
-
कृपणस्य (कृपणस्य) → कृपण (कंजूस) व्यक्ति का
-
वित्तं (वित्तम्) → धन, संपत्ति
-
मनोरथा: (मनोरथाः) → इच्छाएँ, कामनाएँ, योजनाएँ
-
दुर्जनमानुषाणाम् (दुर्जन-मानुषाणाम्) → दुष्ट मनुष्यों (बुरे लोगों) की
-
स्त्रियाश्चरित्रं (स्त्रियाः चरित्रम्) → स्त्री का स्वभाव (व्यवहार, चरित्र)
-
पुरुषस्य (पुरुषस्य) → पुरुष (व्यक्ति) का
-
भाग्यं (भाग्यम्) → भाग्य, भविष्य
-
देव: (देवः) → देवता (ईश्वर)
-
न (न) → नहीं
-
जानाति (जानाति) → जानता है
-
कुत: (कुतः) → कहाँ से? कैसे?
-
मनुष्य: (मनुष्यः) → मनुष्य (साधारण व्यक्ति)
सम्पूर्ण अर्थ:
"राष्ट्र की जनता की सोच, कृपण व्यक्ति की संपत्ति, दुष्टों की योजनाएँ, स्त्री का स्वभाव और पुरुष का भाग्य—इन पाँचों को स्वयं देवता भी नहीं जान सकते, तो फिर मनुष्य कैसे जान सकता है?"
हिंदी अनुवाद एवं विस्तृत व्याख्या:
अनुवाद:
राज्य की जनता की सोच, कृपण व्यक्ति की वास्तविक संपत्ति, दुष्ट मनुष्यों के मनोरथ, स्त्री का स्वभाव और पुरुष का भाग्य—इन पाँच चीजों को स्वयं देवता भी नहीं जान सकते, तो फिर मनुष्य कैसे जान सकता है?
व्याख्या:
यह श्लोक संसार की अनिश्चितताओं और जटिलताओं को इंगित करता है। इसमें पाँच ऐसी चीज़ों का उल्लेख किया गया है जिन्हें जान पाना असंभव है, भले ही व्यक्ति कितना ही ज्ञानी क्यों न हो।
1. राष्ट्रस्य चित्तं (जनता की सोच / राष्ट्र का मन)
- किसी भी राष्ट्र या समाज में लोगों की मानसिकता समय, परिस्थितियों और बाहरी प्रभावों के अनुसार बदलती रहती है।
- किसी समय जनता किसी नेता, विचारधारा या शासन प्रणाली का समर्थन कर सकती है, लेकिन कुछ समय बाद वे उसी के विरोध में भी आ सकते हैं।
- इतिहास गवाह है कि कई राजा, नेता और सरकारें जनता के मन को ठीक से नहीं समझ पाए, और अचानक उन्हें सत्ता से हटना पड़ा।
- लोकतंत्र में भी हम देखते हैं कि चुनावों में जनता का मत अप्रत्याशित रूप से बदल सकता है।
2. कृपणस्य वित्तं (कृपण व्यक्ति की संपत्ति)
- जो व्यक्ति अत्यधिक कृपण (कंजूस) होता है, वह अपनी संपत्ति को गुप्त रखता है।
- ऐसे लोग अपनी वास्तविक स्थिति को छिपाकर रखते हैं, बाहर से गरीब दिखते हैं, लेकिन अंदर ही अंदर अपार धन संचित कर सकते हैं।
- अतः यह अनुमान लगाना कठिन होता है कि उनके पास वास्तव में कितना धन है।
3. दुर्जनमानुषाणां मनोरथा: (दुष्ट मनुष्यों की इच्छाएँ)
- दुष्ट व्यक्ति (दुर्जन) अपनी वास्तविक मानसिकता को प्रकट नहीं करते।
- उनके मन में क्या योजनाएँ चल रही हैं, वे कब किसे धोखा देंगे, इसका अनुमान लगाना कठिन होता है।
- दुष्ट लोग मीठी-मीठी बातें कर सकते हैं, लेकिन भीतर से कुछ और ही सोच रहे होते हैं।
उदाहरण:
- महाभारत में शकुनि ने दुर्योधन को पांडवों के विरुद्ध उकसाने के लिए कूटनीतिक योजनाएँ बनाई थीं, लेकिन किसी को पहले से अंदाजा नहीं था कि उसका उद्देश्य कौरवों को ही विनाश की ओर ले जाना है।
- चाणक्य नीति में भी कहा गया है कि "दुष्ट व्यक्ति की संगति सर्प से भी अधिक घातक होती है।"
4. स्त्रियाश्चरित्रं (स्त्री का स्वभाव / व्यवहार)
- यह श्लोक स्त्री के चरित्र को लेकर नहीं, बल्कि उसके मनोभाव और स्वभाव की जटिलता को दर्शाता है।
- स्त्री अत्यंत भावनात्मक और संवेदनशील होती है, इसलिए उसके मनोभाव परिस्थिति और समय के अनुसार बदल सकते हैं।
- कोई स्त्री कब प्रसन्न होगी, कब क्रोधित होगी, किस बात से प्रभावित होगी—इसका पूर्वानुमान लगाना कठिन होता है।
उदाहरण:
- रामायण में कैकेयी का उदाहरण लें—जो एक समय भगवान राम से अत्यंत प्रेम करती थीं, लेकिन अचानक मंथरा के बहकावे में आकर उनका व्यवहार बदल गया और उन्होंने राम के वनवास की मांग कर दी।
- महाभारत में द्रौपदी ने कौरवों के अपमानजनक व्यवहार के बाद प्रतिशोध की प्रतिज्ञा ली, जिससे महायुद्ध की नींव पड़ी।
5. पुरुषस्य भाग्यं (पुरुष का भाग्य / भविष्य)
- किसी व्यक्ति का भविष्य क्या होगा, यह निश्चित रूप से कोई नहीं कह सकता।
- भाग्य कर्मों, समय और संयोगों का मिश्रण होता है, और इसमें अप्रत्याशित परिवर्तन हो सकते हैं।
- कोई गरीब अचानक राजा बन सकता है, और कोई राजा अचानक दरिद्र हो सकता है।
उदाहरण:
- राजा हरिश्चंद्र को राजसी वैभव से गिरकर घोर कष्ट झेलने पड़े, लेकिन अंततः सत्य के कारण उनका भाग्य पुनः जागृत हुआ।
- कर्ण जन्म से क्षत्रिय था, लेकिन परिस्थितियाँ उसे सूतपुत्र बना देती हैं, और अंततः वह वीरगति को प्राप्त होता है।
मुख्य शिक्षा:
- संसार अनिश्चितताओं से भरा है। कई चीज़ों को जान पाना असंभव है, इसलिए अत्यधिक चिंता करने की आवश्यकता नहीं।
- धैर्य और विवेक से कार्य करें। यदि हम जनता के विचार, धन, दुष्टों की मंशा, स्त्रियों या पुरुषों के व्यवहार और भविष्य के बारे में अधिक चिंता करेंगे, तो जीवन में शांति नहीं रहेगी।
- सही कर्म करते रहें, भाग्य की चिंता न करें। यदि हम अपने कर्तव्य का पालन करते हैं, तो परिस्थितियाँ स्वतः ही अनुकूल बनती जाती हैं।
निष्कर्ष:
इस श्लोक का उद्देश्य जीवन में आने वाली अनिश्चितताओं को स्वीकार करना और सही दृष्टिकोण अपनाना है। कई चीज़ों को जानने की हमारी क्षमता सीमित होती है, इसलिए इन पर अधिक नियंत्रण पाने का प्रयास व्यर्थ है। हमें अपने कर्तव्यों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए और परिणामों की चिंता किए बिना जीवन जीना चाहिए।
"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।" – श्रीमद्भगवद्गीता (2.47)
आपके विचार आमंत्रित हैं! यदि इस श्लोक पर और गहराई से चर्चा करनी हो, तो कृपया बताइए। 🙏📖
COMMENTS