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शरारत: जो मंहगी पड़ी! |
शरारत: जो मंहगी पड़ी!
द्वारका की समृद्धि और संकट
बहुत समय पहले की बात है, जब द्वारका नगरी अपने वैभव और समृद्धि के चरम पर थी। भगवान श्रीकृष्ण के राज्य में सुख, शांति और उल्लास का वातावरण था। यदुवंश का हर सदस्य ऐश्वर्य और आनंद से परिपूर्ण था। लेकिन एक घटना ने इस शांति को तहस-नहस कर दिया, और इसका कारण बनी एक मासूम-सी शरारत।
सांब की शरारत
भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र सांब अपने चंचल स्वभाव और हास्यपूर्ण शरारतों के लिए प्रसिद्ध थे। एक दिन उन्होंने अपने मित्रों के साथ मिलकर एक ऐसी शरारत रचने का निश्चय किया, जिससे ऋषि दुर्वासा को भ्रमित किया जा सके। ऋषि दुर्वासा, जिनका क्रोध और आशीर्वाद दोनों ही अत्यंत प्रभावशाली थे, अपनी कठोर तपस्या और सत्यप्रियता के लिए विख्यात थे। सांब और उनके मित्रों ने एक योजना बनाई। उन्होंने एक व्यक्ति को गर्भवती स्त्री का वेश धारण करवाया और ऋषि दुर्वासा के पास जाकर पूछा, "हे महर्षि! आप सर्वज्ञानी हैं, कृपया बताइए कि इस स्त्री के गर्भ में पुत्र होगा या पुत्री?"
ऋषि दुर्वासा का श्राप
यह सुनते ही ऋषि दुर्वासा का मुखमंडल क्रोध से तमतमा उठा। उनकी आंखें अंगारों के समान दहकने लगीं। उन्होंने सांब और उनके मित्रों की इस मूर्खतापूर्ण शरारत को पहचान लिया और क्रोधित होकर श्राप दिया, "हे अज्ञानी! तुमने अपने अज्ञान में यह अनर्थ कर दिया। तुम्हारे इस गर्भ से एक मूसल उत्पन्न होगा, जो सम्पूर्ण यदुवंश के विनाश का कारण बनेगा। तुम सब इस विनाश को रोक नहीं पाओगे।"
मूसल का प्रकोप
यह सुनकर सभी मित्र हंसने लगे, उन्हें लगा कि यह केवल ऋषि का क्रोधमात्र है। लेकिन विधि का विधान अटल था। कुछ समय बाद, सच में उस व्यक्ति के गर्भ से एक लोहे का मूसल निकला। यह देखकर समस्त यदुवंश भयभीत हो गया। इस संकट से उबरने के लिए राजा उग्रसेन ने आदेश दिया कि मूसल को तोड़कर समुद्र में प्रवाहित कर दिया जाए। सभी ने वैसा ही किया, लेकिन विधि ने अपना खेल रचा हुआ था। समुद्र में फेंका गया मूसल चूर्ण में बदलकर किनारे आ गया और वहां तीखी घास के रूप में अंकुरित हो गया।
यदुवंश का अंत
समय बीतता गया, और एक दिन यदुवंश के लोग समुद्र तट पर एकत्र हुए। वहां किसी कारणवश वाद-विवाद बढ़ गया और मदिरा के प्रभाव में वे आपस में ही लड़ पड़े। उन्होंने उसी तीखी घास को अपने हथियार बना लिया। देखते ही देखते, घास के नुकीले तिनकों से एक भयानक संग्राम छिड़ गया। यह वही श्रापित मूसल था, जिसने अब घास का रूप धारण कर लिया था।
संपूर्ण यदुवंश का संहार हो गया। द्वारका की वह समृद्ध नगरी वीरान होने लगी। भगवान श्रीकृष्ण ने इस महाविनाश को अपनी आंखों से देखा और समझ गए कि यह वही था, जो पूर्वनिर्धारित था। अंततः, उन्होंने स्वयं योगबल से इस संसार का त्याग कर दिया।
कथा से शिक्षा
यह कथा हमें सिखाती है कि कभी-कभी एक छोटी-सी शरारत भी बड़े विनाश का कारण बन सकती है। हमें अपने कार्यों के परिणामों को समझना चाहिए और हर स्थिति में मर्यादा एवं आदर का पालन करना चाहिए। किसी के ज्ञान, शक्ति या तपस्विता का उपहास करना स्वयं के लिए ही संकट खड़ा कर सकता है।
"स्वयं का सुधार ही संसार की सबसे बड़ी सेवा है।"
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