भागवत तृतीय स्कंध, एकादश अध्याय (श्लोक सहित हिंदी अनुवाद), श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कंध, एकादश अध्याय (श्लोक सहित हिंदी अनुवाद), चरमः सद्विशेषाणां
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भागवत तृतीय स्कंध, एकादश अध्याय (श्लोक सहित हिंदी अनुवाद) |
भागवत तृतीय स्कंध, एकादश अध्याय (श्लोक सहित हिंदी अनुवाद)
श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कंध, एकादश अध्याय
(श्लोक सहित हिंदी अनुवाद)
मैत्रेय उवाच
श्लोक 1
चरमः सद्विशेषाणां अनेकोऽसंयुतः सदा ।
परमाणुः स विज्ञेयो नृणामैक्य भ्रमो यतः ॥ १ ॥
अनुवाद:
सभी भौतिक वस्तुओं के मूल में जो सूक्ष्मतम कण है, वह परमाणु कहलाता है। यह सदा एकल रहता है और अविभाज्य है। मनुष्यों की एकता (अखण्डता) की जो धारणा है, वह वास्तव में परमाणुओं के समुच्चय का भ्रम मात्र है।
श्लोक 2
सत एव पदा र्थस्य स्वरूपावस्थितस्य यत् ।
कैवल्यं परममहान् अविशेषो निरन्तरः ॥ २ ॥
अनुवाद:
जो तत्व (सत्यस्वरूप) अपने वास्तविक स्वरूप में स्थित रहता है, वही परम कैवल्य कहलाता है। वह महानतम होता है, उसमें कोई भेद नहीं होता और वह सदा अखण्ड रूप में विद्यमान रहता है।
श्लोक 3
एवं कालोऽप्यनुमितः सौक्ष्म्ये स्थौल्ये च सत्तम ।
संस्थानभुक्त्या भगवानव्यक्तो व्यक्तभुग्विभुः ॥ ३ ॥
अनुवाद:
हे श्रेष्ठ विदुर! इसी प्रकार, काल (समय) को भी उसकी सूक्ष्मता और स्थूलता के आधार पर अनुमानित किया जाता है। भगवान अव्यक्त रूप में स्थित रहते हैं, किंतु वे समस्त व्यक्त (प्रकट) जगत का अनुभव करने वाले हैं।
श्लोक 4
स कालः परमाणुर्वै यो भुङ्क्ते परमाणुताम् ।
सतोऽविशेषभुग्यस्तु स कालः परमो महान् ॥ ४ ॥
अनुवाद:
काल को परमाणु के रूप में भी समझा जाता है, क्योंकि वह प्रत्येक परमाणु के अस्तित्व को प्रभावित करता है। वह सत (अस्तित्व) का अनुभव करने वाला होता है और परम महान माना जाता है।
श्लोक 5
अणुर्द्वौ परमाणू स्यात् त्रसरेणुस्त्रयः स्मृतः ।
जालार्करश्म्यवगतः खमेवानुपतन्नगात् ॥ ५ ॥
अनुवाद:
दो परमाणुओं से एक अणु बनता है और तीन अणुओं के समूह को त्रसरेणु कहा जाता है। जब सूर्य की किरणें किसी छिद्र से गुजरती हैं, तब जो सूक्ष्म कण आकाश में गिरते हुए दिखाई देते हैं, वे त्रसरेणु कहलाते हैं।
श्लोक 6
त्रसरेणुत्रिकं भुङ्क्ते यः कालः स त्रुटिः स्मृतः ।
शतभागस्तु वेधः स्यात् तैस्त्रिभिस्तु लवः स्मृतः ॥ ६ ॥
अनुवाद:
जो समय तीन त्रसरेणुओं के गिरने में लगता है, उसे 'त्रुटि' कहा जाता है। सौ त्रुटियों का एक 'वेध' होता है और तीन वेधों से एक 'लव' बनता है।
श्लोक 7
निमेषस्त्रिलवो ज्ञेय आम्नातस्ते त्रयः क्षणः ।
क्षणान् पञ्च विदुः काष्ठां लघु ता दश पञ्च च ॥ ७ ॥
अनुवाद:
तीन लव एक 'निमेष' के बराबर होते हैं। तीन निमेषों को एक 'क्षण' कहा जाता है। पाँच क्षण मिलकर एक 'काष्ठा' बनते हैं और पंद्रह काष्ठाएँ मिलकर एक 'लघु' बनती हैं।
श्लोक 8
लघूनि वै समाम्नाता दश पञ्च च नाडिका ।
ते द्वे मुहूर्तः प्रहरः षड्यामः सप्त वा नृणाम् ॥ ८ ॥
अनुवाद:
पंद्रह लघुओं से एक 'नाड़ी' बनती है। दो नाड़ियाँ मिलकर एक 'मुहूर्त' बनती हैं। तीन मुहूर्त मिलकर एक प्रहर होता है, और छह या सात प्रहर मिलकर एक 'याम' (रात्रि का भाग) बनता है।
श्लोक 9
द्वादशा र्धपलोन्मानं चतुर्भि श्चतुरङ्गु लैः ।
स्वर्णमाषैः कृतच्छिद्रं यावत् प्रस्थजलप्लुतम् ॥ ९ ॥
अनुवाद:
बारह अर्ध-फल के बराबर वजन को चार अंगुलियों की चौड़ाई से मापा जाता है। यह समय उसी तरह मापा जाता है, जैसे एक सुवर्ण माषा के छिद्र से जल गिरने में जितना समय लगता है।
श्लोक 10
यामा श्चत्वार श्चत्वारो मर्त्यानामहनी उभे ।
पक्षः पञ्चदशाहानि शुक्लः कृष्णश्च मानद ॥ १० ॥
अनुवाद:
चार याम दिन के चार भागों को बनाते हैं और चार याम रात के चार भागों को। इस प्रकार मनुष्यों के लिए दिन और रात बनते हैं। पंद्रह दिनों का समूह 'पक्ष' कहलाता है, जो शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष में विभाजित होता है।
श्लोक 11
तयोः समुच्चयो मासः पितॄणां तदहर्निशम् ।
द्वौ तावृतुः षडयनं दक्षिणं चोत्तरं दिवि ॥ ११ ॥
अनुवाद:
दो पक्ष मिलकर एक मास बनाते हैं। पितरों के लिए एक मास एक दिन और एक रात के समान होता है। दो मास मिलकर एक ऋतु बनाते हैं, और छह मास मिलकर एक 'अयन' बनता है, जो उत्तरायण और दक्षिणायन कहलाते हैं।
श्लोक 12
अयने चाहनी प्राहुः वत्सरो द्वादश स्मृतः ।
संवत्सरशतं नॄणां परमायुर्निरूपितम् ॥ १२ ॥
अनुवाद:
दो अयन मिलकर एक वर्ष बनता है, जिसे 'वत्सर' कहा जाता है। मनुष्यों की अधिकतम आयु सौ वर्षों की मानी गई है।
श्लोक 13
ग्रह र्क्षताराचक्रस्थः परमाण्वादिना जगत् ।
संवत्सरावसानेन पर्येत्यनिमिषो विभुः ॥ १३ ॥
अनुवाद:
सूर्य, चंद्रमा, ग्रह और नक्षत्र अपनी गति से चलते हुए एक वर्ष के अंत तक पूरे ब्रह्मांड की परिक्रमा कर लेते हैं। यह अनंत गति कालचक्र का ही स्वरूप है।
कालचक्र एवं युगों की गणना
श्लोक 14
संवत्सरः परिवत्सर इडावत्सर एव च ।
अनुवत्सरो वत्सरश्च विदुरैवं प्रभाष्यते ॥ १४ ॥
अनुवाद:
हे विदुर! एक वर्ष को विभिन्न नामों से जाना जाता है— संवत्सर, परिवत्सर, इडावत्सर, अनुवत्सर और वत्सर।
श्लोक 15
यः सृज्यशक्तिमुरुधोच्छ्वसयन् स्वशक्त्या ।
पुंसोऽभ्रमाय दिवि धावति भूतभेदः ।
कालाख्यया गुणमयं क्रतुभिर्वितन्वन् ।
तस्मै बलिं हरत वत्सरपञ्चकाय ॥ १५ ॥
अनुवाद:
जो भगवान अपनी शक्ति से सृष्टि उत्पन्न करते हैं और काल की गति से प्राणियों में भिन्नता लाते हैं, वही कालस्वरूप पुरुष हैं। वे दिव्य भूतों के रूप में संसार में गति करते हैं। काल को ही गुणमय समझकर यज्ञों द्वारा संतुष्ट किया जाता है। इसी कारण पाँच प्रकार के वत्सरों को बलि (अर्पण) दी जाती है।
काल की गति और प्राणियों की आयु
श्लोक 16
पितृदेवमनुष्याणां आयुः परमिदं स्मृतम् ।
परेषां गतिमाचक्ष्व ये स्युः कल्पाद्बहिर्विदः ॥ १६ ॥
अनुवाद:
पितरों, देवताओं और मनुष्यों की आयु निश्चित मानी गई है। अब कृपया उन प्राणियों की गति का वर्णन करें जो कल्प के अंत से परे स्थित होते हैं।
श्लोक 17
भगवान् वेद कालस्य गतिं भगवतो ननु ।
विश्वं विचक्षते धीरा योगराद्धेन चक्षुषा ॥ १७ ॥
अनुवाद:
भगवान स्वयं काल की गति को जानते हैं, क्योंकि वे ही उसका निर्माण करते हैं। जो ध्यानीजन हैं, वे योगबल से दिव्य दृष्टि प्राप्त करके इस विश्व को भलीभांति देख सकते हैं।
युगों का वर्णन
श्लोक 18
कृतं त्रेता द्वापरं च कलि श्चेति चतुर्युगम् ।
दिव्यैर्द्वादशभिर्वर्षैः सावधानं निरूपितम् ॥ १८ ॥
अनुवाद:
चार युग होते हैं— कृत (सत्ययुग), त्रेता, द्वापर और कलियुग। इन चारों युगों की अवधि दिव्य वर्षों के अनुसार बारह हजार वर्ष निर्धारित की गई है।
श्लोक 19
चत्वारि त्रीणि द्वे चैकं कृतादिषु यथाक्रमम् ।
सङ्ख्यातानि सहस्राणि द्विगुणानि शतानि च ॥ १९ ॥
अनुवाद:
कृतयुग (सत्ययुग) की अवधि 4000 दिव्य वर्ष होती है, त्रेतायुग की 3000 वर्ष, द्वापरयुग की 2000 वर्ष और कलियुग की 1000 वर्ष। इसके अतिरिक्त प्रत्येक युग के पूर्व और उत्तर में संधिकाल भी होता है, जो युग की अवधि का दसवां भाग होता है।
श्लोक 20
संध्यांशयोरन्तरेण यः कालः शतसङ्ख्ययोः ।
तमेवाहुर्युगं तज्ज्ञा यत्र धर्मो विधीयते ॥ २० ॥
अनुवाद:
युगों के संधिकाल को मिलाकर जब एक सौ गुना समय व्यतीत होता है, तब उसे पूर्ण युगचक्र कहा जाता है। इस काल में धर्म का विस्तार एवं परिवर्तन होता है।
युगधर्म और ब्रह्मा का दिन
श्लोक 21
धर्मश्चतुष्पान्मनुजान् कृते समनुवर्तते ।
स एवान्येष्वधर्मेण व्येति पादेन वर्धता ॥ २१ ॥
अनुवाद:
सत्ययुग (कृतयुग) में धर्म के चारों चरण स्थिर रहते हैं। त्रेतायुग में धर्म का एक पाद (चरण) घट जाता है, द्वापर में दो चरण और कलियुग में तीन चरण नष्ट हो जाते हैं, जिससे अधर्म बढ़ जाता है।
श्लोक 22
त्रिलोक्या युगसाहस्रं बहिराब्रह्मणो दिनम् ।
तावत्येव निशा तात यन्निमीलति वि श्वसृक् ॥ २२ ॥
अनुवाद:
हे विदुर! जब एक हजार युग बीत जाते हैं, तब ब्रह्मा का एक दिन समाप्त होता है। इसी प्रकार, इतने ही समय की उनकी रात होती है, जिसमें संपूर्ण सृष्टि लीन हो जाती है।
श्लोक 23
निशावसान आरब्धो लोककल्पोऽनुवर्तते ।
यावद्दिनं भगवतो मनून् भुञ्जं श्चतुर्दश ॥ २३ ॥
अनुवाद:
रात्रि समाप्त होने के बाद ब्रह्मा पुनः सृष्टि की रचना करते हैं। उनके एक दिन में 14 मन्वंतर होते हैं, जिनमें 14 मनु राज करते हैं।
श्लोक 24
स्वं स्वं कालं मनुर्भुङ्क्ते साधिकां ह्येकसप्ततिम् ।
मन्वन्तरेषु मनवः तद् वंश्या ऋषयः सुराः ।
भवन्ति चैव युगपत् सुरेशाश्चानु ये च तान् ॥ २४ ॥
अनुवाद:
प्रत्येक मनु अपनी अवधि तक (लगभग 71 युगचक्र) राज्य करता है। हर मन्वंतर में मनु के वंशज, ऋषिगण, देवता, और इंद्र आदि उत्पन्न होते हैं।
श्लोक 25
एष दैनन्दिनः सर्गो ब्राह्मस्त्रैलोक्यवर्तनः ।
तिर्यङ्नृपितृदेवानां सम्भवो यत्र कर्मभिः ॥ २५ ॥
अनुवाद:
यह ब्रह्मा का प्रतिदिन होने वाला सर्ग (सृष्टि चक्र) है, जिसमें त्रिलोक (भूलोक, स्वर्गलोक और पाताललोक) की व्यवस्था बनी रहती है। इसमें तिर्यक (पशु), मनुष्य, पितर और देवताओं का जन्म कर्मों के अनुसार होता है।
भगवान का मन्वंतर अवतरण और ब्रह्मा का कालचक्र
श्लोक 26
मन्वन्तरेषु भगवान् बिभ्रत्सत्त्वं स्वमूर्तिभिः ।
मन्वादिभिरिदं विश्वं अवत्युदितपौरुषः ॥ २६ ॥
अनुवाद:
प्रत्येक मन्वंतर में भगवान सत्त्वगुण धारण करके अपनी विभिन्न मूर्तियों में प्रकट होते हैं और मनु, देवता तथा अन्य पौरुष शक्तियों द्वारा इस विश्व की रक्षा करते हैं।
श्लोक 27
तमोमात्रामुपादाय प्रतिसंरुद्धविक्रमः ।
कालेनानुगताशेष आस्ते तूष्णीं दिनात्यये ॥ २७ ॥
अनुवाद:
ब्रह्मा का दिन समाप्त होने पर संपूर्ण विश्व तमोगुण (अंधकार) में लीन हो जाता है। सभी शक्तियाँ उनके भीतर समा जाती हैं और वे काल के अधीन मौन स्थिति में स्थित रहते हैं।
श्लोक 28
तमेवान्वपि धीयन्ते लोका भूरादयस्त्रयः ।
निशायां अनुवृत्तायां निर्मुक्तशशिभास्करम् ॥ २८ ॥
अनुवाद:
जैसे-जैसे ब्रह्मा की रात्रि आगे बढ़ती है, तीनों लोक— भूर्लोक, भुवर्लोक और स्वर्लोक— उनमें ही विलीन हो जाते हैं। उस समय चंद्रमा और सूर्य का प्रकाश भी समाप्त हो जाता है।
श्लोक 29
त्रिलोक्या दह्यमानायां शक्त्या सङ्कर्षणाग्निना ।
यान्त्यूष्मणा महर्लोकाज्जनं भृग्वादयोऽर्दिताः ॥ २९ ॥
अनुवाद:
जब त्रिलोकी भगवान संकर्षण की अग्निशक्ति से जलने लगती है, तब महर्लोक के निवासी जैसे भृगु आदि ऋषि अपने स्थान से उठकर जनलोक की ओर चले जाते हैं।
श्लोक 30
तावत् त्रिभुवनं सद्यः कल्पान्तैधितसिन्धवः ।
प्लावयन्त्युत्कटाटोप चण्डवातेरितोर्मयः ॥ ३० ॥
अनुवाद:
कल्प के अंत में जब समुद्र की विशाल लहरें तीव्र वायु के झोंकों से विकराल रूप धारण कर लेती हैं, तब संपूर्ण त्रिलोकी जल में डूब जाती है।
श्लोक 31
अन्तः स तस्मिन् सलिल आस्तेऽनन्तासनो हरिः ।
योगनिद्रानिमीलाक्षः स्तूयमानो जनालयैः ॥ ३१ ॥
अनुवाद:
उस जल के भीतर अनंत शय्या पर भगवान हरि (विष्णु) विराजमान होते हैं। वे योगनिद्रा में स्थित होते हैं और दिव्य आत्माएँ उनकी स्तुति करती हैं।
ब्रह्मा का जीवनकाल और द्वितीय परार्ध
श्लोक 32
एवंविधैरहोरात्रैः कालगत्योपलक्षितैः ।
अपक्षितमिवास्यापि परमायुर्वयःशतम् ॥ ३२ ॥
अनुवाद:
इसी प्रकार, ब्रह्मा के अहोरात्र (एक दिन और एक रात्रि) की गणना से उनके सौ दिव्य वर्षों का काल निर्धारित किया जाता है, जो उनके परम जीवनकाल के बराबर होता है।
श्लोक 33
यदर्धमायुषस्तस्य परार्धमभिधीयते ।
पूर्वः परार्धोऽपक्रान्तो ह्यपरोऽद्य प्रवर्तते ॥ ३३ ॥
अनुवाद:
ब्रह्मा के सौ दिव्य वर्षों का आधा भाग "परार्ध" कहलाता है। उनके जीवन का पहला परार्ध बीत चुका है, और अब दूसरा परार्ध चल रहा है।
ब्रह्मा के पूर्व एवं वर्तमान कल्प
श्लोक 34
पूर्वस्यादौ परार्धस्य ब्राह्मो नाम महानभूत् ।
कल्पो यत्राभवद्ब्रह्मा शब्दब्रह्मेति यं विदुः ॥ ३४ ॥
अनुवाद:
ब्रह्मा के पहले परार्ध के प्रारंभ में "ब्राह्म कल्प" नामक एक महान काल बीता था। इसमें ब्रह्मा प्रकट हुए और वेदों (शब्दब्रह्म) की सृष्टि हुई।
श्लोक 35
तस्यैव चान्ते कल्पोऽभूद् यं पाद्ममभिचक्षते ।
यद्धरेर्नाभिसरस आसीत् लोकसरोरुहम् ॥ ३५ ॥
अनुवाद:
उसी परार्ध के अंत में "पाद्म कल्प" आया, जिसमें भगवान विष्णु की नाभि से उत्पन्न दिव्य कमल पर ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई।
श्लोक 36
अयं तु कथितः कल्पो द्वितीयस्यापि भारत ।
वाराह इति विख्यातो यत्रासीत् शूकरो हरिः ॥ ३६ ॥
अनुवाद:
हे भारतवंशी विदुर! वर्तमान में जो कल्प चल रहा है, वह "वाराह कल्प" कहलाता है। इसमें भगवान हरि ने वाराह (वराह अवतार) के रूप में प्रकट होकर पृथ्वी का उद्धार किया था।
काल का अंतिम सत्य
श्लोक 37
कालोऽयं द्विपरार्धाख्यो निमेष उपचर्यते ।
अव्याकृतस्यानन्तस्य अनादेर्जगदात्मनः ॥ ३७ ॥
अनुवाद:
जो काल "द्विपरार्ध" के रूप में व्याख्यायित किया जाता है, वह केवल एक निमेष के समान प्रतीत होता है। वह अनंत, अव्यक्त और स्वयं भगवान के आत्मस्वरूप के समान है।
श्लोक 38
कालोऽयं परमाण्वादिः द्विपरार्धान्त ईश्वरः ।
नैवेशितुं प्रभुर्भूम्न ईश्वरो धाममानिनाम् ॥ ३८ ॥
अनुवाद:
यह काल परमाणु से लेकर द्विपरार्ध (ब्रह्मा का सम्पूर्ण जीवनकाल) तक फैला हुआ है। यह स्वयं ईश्वर के नियंत्रण में रहता है, किंतु कोई भी अन्य जीव इसकी संपूर्णता को जानने में असमर्थ है।
ब्रह्मांड की सीमा और उसका कारण
श्लोक 39
विकारैः सहितो युक्तैः विशेषादिभिरावृतः ।
आण्डकोशो बहिरयं पञ्चाशत्कोटिविस्तृतः ॥ ३९ ॥
अनुवाद:
यह ब्रह्मांड अनेक विकारों से युक्त और विशेषताओं से आच्छादित है। इसकी सीमा पचास करोड़ योजन (अत्यंत विशाल) तक विस्तारित है।
श्लोक 40
दशोत्तराधिकैर्यत्र प्रविष्टः परमाणुवत् ।
लक्ष्यतेऽन्तर्गताश्चान्ये कोटिशो ह्यण्डराशयः ॥ ४० ॥
अनुवाद:
इस विशाल ब्रह्मांड में भगवान विष्णु सूक्ष्मतम परमाणु के रूप में भी स्थित हैं। इसके भीतर असंख्य अन्य ब्रह्मांड भी स्थित हैं, जिनकी गणना नहीं की जा सकती।
श्लोक 41
तदाहुरक्षरं ब्रह्म सर्वकारणकारणम् ।
विष्णोर्धाम परं साक्षात्पुरुषस्य महात्मनः ॥ ४१ ॥
अनुवाद:
विद्वानजन उस "अक्षर ब्रह्म" को ही समस्त कारणों का कारण मानते हैं। वही भगवान विष्णु का परम धाम है और वही पुरुषोत्तम परमात्मा का वास्तविक स्वरूप है।
(अध्याय समाप्त)
इस अध्याय में कालचक्र, युगों का विस्तार, ब्रह्मा के दिन-रात की गणना, सृष्टि की उत्पत्ति और भगवान विष्णु के दिव्य स्वरूप का विस्तार से वर्णन किया गया। यदि आपको किसी विशेष श्लोक की व्याख्या चाहिए, तो बताइए!
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