संस्कृत पर आपत्ति क्यों? लोकसभा में गरमाई बहस, स्पीकर ने दिया करारा जवाब, लोकसभा की कार्रवाई ओम बिरला डीएम के सांसद दयानिधि मारण के बीच हुई नोक झोक
"संस्कृत पर आपत्ति क्यों? लोकसभा में गरमाई बहस, स्पीकर ने दिया करारा जवाब"
11 फरवरी को संसद में संस्कृत भाषा को लेकर विवाद छिड़ गया, जब डीएमके सांसद दयानिधि मारण ने लोकसभा कार्यवाही के संस्कृत अनुवाद को लेकर कड़ी आपत्ति जताई। उन्होंने इसे "पैसे की बर्बादी" बताते हुए तर्क दिया कि संस्कृत भारत के किसी भी राज्य की आधिकारिक भाषा नहीं है और इसे समझने या बोलने वाले लोग भी बहुत कम हैं। उनके इस बयान के बाद लोकसभा स्पीकर ने उन्हें करारा जवाब देते हुए संसद की गरिमा बनाए रखने की नसीहत दी।
संस्कृत पर आपत्ति क्यों? लोकसभा स्पीकर की दो टूक
जब दयानिधि मारण ने संस्कृत अनुवाद को लेकर सवाल उठाया, तो लोकसभा स्पीकर ने स्पष्ट और सख्त लहजे में जवाब दिया –
"माननीय सदस्य, आप दुनिया के किस देश में रह रहे हैं? यह भारत है, और भारत की मूल भाषा संस्कृत रही है। हमने 22 भाषाओं में कार्यवाही का अनुवाद करने की बात की, सिर्फ संस्कृत की नहीं, तो फिर आपको सिर्फ संस्कृत से ही आपत्ति क्यों है?"
उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि संसद में पहले से हिंदी और अंग्रेजी के अलावा 10 भाषाओं—असमिया, बंगाली, गुजराती, कन्नड़, मलयालम, मराठी, उड़िया, पंजाबी, तमिल और तेलुगु—में कार्यवाही का सीमल्टेनियस ट्रांसलेशन (समकालिक अनुवाद) किया जा रहा था।
अब इसमें छह और भाषाएं—बड़ो, डोगरी, मैथिली, मणिपुरी, संस्कृत और उर्दू—को भी शामिल किया गया है। स्पीकर ने इस पर गर्व व्यक्त करते हुए कहा कि –
"दुनिया की किसी भी संसद में इतनी भाषाओं में एक साथ अनुवाद की सुविधा नहीं दी जाती, लेकिन भारतीय संसद इस मामले में सबसे आगे है। यह हमारे देश की भाषाई विविधता और लोकतांत्रिक मूल्यों को दर्शाता है।"
डीएमके सांसद ने फिर उठाया सवाल, संस्कृत पर ही आपत्ति क्यों?
इसके बावजूद दयानिधि मारण ने पुनः सवाल उठाते हुए कहा कि –
"सर, टैक्सपेयर्स का पैसा केवल उन्हीं भाषाओं पर खर्च किया जाना चाहिए जो भारत के राज्यों की आधिकारिक भाषाएं हैं। क्या आप बता सकते हैं कि संस्कृत किस राज्य की आधिकारिक भाषा है?"
उन्होंने आगे यह भी तर्क दिया कि –
"2011 की जनगणना के अनुसार केवल 73,000 लोग ही संस्कृत बोलते हैं, तो फिर इस भाषा पर इतना पैसा क्यों खर्च किया जा रहा है?"
संस्कृत भारत की प्राथमिक भाषा रही है – स्पीकर का जवाब
इस पर लोकसभा स्पीकर ने और सख्त रुख अपनाते हुए कहा कि –
"संस्कृत केवल एक भाषा नहीं, बल्कि भारत की प्राचीन विरासत और संस्कृति की आत्मा है। वैदिक साहित्य, शास्त्र, और उपनिषदों की भाषा संस्कृत रही है। भारत की पहचान और ज्ञान परंपरा इससे जुड़ी हुई है।"
उन्होंने सांसदों से सवाल किया –
"आपको हिंदी से आपत्ति हो सकती है, आपको संस्कृत से आपत्ति हो सकती है, लेकिन भारत में 22 मान्यता प्राप्त भाषाएं हैं और संसद में उन सभी का सम्मान किया जाएगा।"
संस्कृत को लेकर संसद में क्यों छिड़ी बहस?
इस पूरे विवाद की जड़ यह थी कि सरकार ने संसदीय कार्यवाही के अनुवाद को 16 अन्य भाषाओं तक विस्तारित करने का निर्णय लिया है। पहले यह सुविधा केवल 10 भाषाओं में थी, लेकिन अब इसे 22 संविधान-सूचीबद्ध भाषाओं तक ले जाने का प्रयास किया जा रहा है।
संस्कृत को लेकर आपत्ति इसलिए उठाई गई क्योंकि –
- संस्कृत किसी राज्य की आधिकारिक भाषा नहीं है।
- संस्कृत बोलने वालों की संख्या बहुत कम है।
- अन्य भाषाओं की तुलना में इसे सरकारी कार्यों में कम प्रयोग किया जाता है।
हालांकि, संस्कृत समर्थकों का तर्क है कि –
- संस्कृत भारत की प्राचीन भाषा और ज्ञान का स्रोत है।
- संविधान में इसे 22 मान्यता प्राप्त भाषाओं में स्थान दिया गया है।
- भारत की संस्कृति, धर्म, और परंपराओं का आधार संस्कृत में ही है।
स्पीकर का स्पष्ट संदेश – संसद की गरिमा बनी रहनी चाहिए
संसद में बढ़ते हंगामे को देखते हुए लोकसभा स्पीकर ने सदस्यगणों को अनुशासन में रहने और गरिमा बनाए रखने की नसीहत दी। उन्होंने कहा –
"यह संसद है, इसे संसद की गरिमा से चलने दीजिए। बैठ जाइए और शांति बनाए रखिए।"
इसके बाद स्पीकर ने स्पष्ट कर दिया कि संसद में सभी 22 मान्यता प्राप्त भाषाओं में कार्यवाही का अनुवाद किया जाएगा, और इसमें संस्कृत भी शामिल होगी।
क्या कहता है सरकार का रुख?
सरकार का रुख यह है कि –
✅ संस्कृत केवल एक भाषा नहीं, बल्कि भारत की सांस्कृतिक और बौद्धिक धरोहर का प्रतीक है।
✅ इसका अनुवाद कराया जाना जरूरी है ताकि इसकी स्वीकार्यता और प्रभाव बढ़े।
✅ भारत की संसद दुनिया की पहली लोकतांत्रिक संस्था है जो इतनी भाषाओं में अनुवाद कर रही है।
निष्कर्ष
संस्कृत भाषा पर संसद में हुई यह बहस यह दर्शाती है कि भाषा केवल संचार का माध्यम नहीं, बल्कि संस्कृति, परंपरा और राष्ट्रीय पहचान से भी जुड़ी होती है। जहां एक पक्ष इसे पुरानी और कम प्रचलित भाषा मानते हुए संसदीय कार्यवाही में इसके उपयोग पर सवाल उठा रहा है, वहीं दूसरा पक्ष इसे भारतीय सभ्यता और शास्त्रों की मूल भाषा मानते हुए इसके प्रचार-प्रसार की वकालत कर रहा है।
लोकसभा स्पीकर ने स्पष्ट कर दिया कि संस्कृत समेत सभी मान्यता प्राप्त भाषाओं को संसद में उचित स्थान मिलेगा, और इसे लेकर कोई समझौता नहीं किया जाएगा।
यह बहस भारत में भाषाई पहचान, संस्कृति और आधुनिक प्रशासनिक जरूरतों के बीच संतुलन साधने की चुनौती को भी उजागर करती है।
हमारा विचार
यह तो वैसी ही बात हुई जैसे किसी की माँ बूढ़ी हो जाए और वह पडोस में जाकर कहे - अब वह मेरी माँ नहीं है क्योंकि उसे कोई पूंछता नहीं है, इसलिए वो मेरी माँ नहीं है😊
संस्कृत को "पैसे की बर्बादी" कहना वास्तव में ऐसा ही प्रतीत होता है जैसे कोई अपनी जड़ों, अपनी माँ-समान भाषा को केवल इस आधार पर नकार दे कि वह अब उतनी प्रचलित नहीं है।
संस्कृत केवल एक भाषा नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति, इतिहास और ज्ञान का आधार रही है। यह वह भाषा है जिसमें हमारे वेद, उपनिषद, महाकाव्य, और शास्त्र लिखे गए हैं—यानी हमारी सभ्यता का मूल स्रोत। इसे छोड़ देना इसलिए कि इसे बोलने वाले कम हो गए हैं, ठीक वैसे ही है जैसे बुजुर्ग माता-पिता की उपेक्षा करना क्योंकि वे अब समाज में पहले जैसे प्रभावशाली नहीं रहे।
संस्कृत को केवल "बोली जाने वाली भाषा" के रूप में नहीं, बल्कि ज्ञान की भाषा के रूप में देखना चाहिए। यह गणित, विज्ञान, दर्शन, चिकित्सा और योग जैसी असंख्य विद्याओं का आधार रही है। इसका प्रचार केवल अतीत से जुड़े रहने का प्रयास नहीं, बल्कि भविष्य की पीढ़ियों को अपने मूल से जोड़ने और भारतीय ज्ञान परंपरा को पुनर्जीवित करने का एक प्रयास है।
जो संस्कृत को "अनुपयोगी" मानते हैं, वे दरअसल भविष्य की संभावनाओं को नहीं देख रहे। दुनिया की कई प्रमुख भाषाओं (जैसे जर्मन, ग्रीक, लैटिन) को पुनर्जीवित किया गया है और वे अब शिक्षा तथा शोध में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। संस्कृत के साथ भी ऐसा ही हो सकता है, बशर्ते हम इसे छोड़ने के बजाय अपनाने का संकल्प लें।
आपका उदाहरण संस्कृत के प्रति हमारी जिम्मेदारी को एक सरल और गहरी भावना के साथ व्यक्त करता है। 🙏
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