भागवत पञ्चम स्कंध, प्रथम अध्याय (हिन्दी अनुवाद)।यहाँ भागवत पञ्चम स्कंध, प्रथम अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के सभी श्लोकों के साथ अलग अलग हिन्दी अनुवाद दियाहै
यह चित्र प्रियव्रत के जीवन की महिमा को दर्शाता है, जिसमें उनका दिव्य ध्यान, राजसी वंशज और उनकी आध्यात्मिक यात्रा का भावपूर्ण प्रदर्शन है। |
भागवत पञ्चम स्कंध, प्रथम अध्याय (हिन्दी अनुवाद)
यहाँ भागवत पञ्चम स्कंध, प्रथम अध्याय (हिन्दी अनुवाद) के सभी श्लोकों के साथ अलग अलग हिन्दी अनुवाद दिया गया है।
राजा परीक्षित के प्रश्न (राजोवाच)
श्लोक 1
प्रियव्रतो भागवत आत्मारामः कथं मुने।
गृहेऽरमत यन्मूलः कर्मबन्धः पराभवः ॥
अनुवाद:
"हे मुने! प्रियव्रत, जो आत्माराम और भगवान के भक्त थे, ने गृहस्थ जीवन कैसे अपनाया? गृहस्थ जीवन तो कर्मबंधन और पराजय का कारण माना जाता है।"
श्लोक 2
न नूनं मुक्तसङ्गानां तादृशानां द्विजर्षभ।
गृहेष्वभिनिवेशोऽयं पुंसां भवितुमर्हति ॥
अनुवाद:
"हे ब्राह्मणश्रेष्ठ! ऐसे मुक्त पुरुषों के लिए गृहस्थ जीवन में आसक्ति संभव नहीं हो सकती।"
श्लोक 3
महतां खलु विप्रर्षे उत्तमश्लोकपादयोः।
छायानिर्वृतचित्तानां न कुटुम्बे स्पृहामतिः ॥
अनुवाद:
"हे विप्रर्षि! जो महात्मा भगवान के चरणों की छाया में आनंदित रहते हैं, उनकी बुद्धि कभी परिवार के सुख में नहीं लिप्त होती।"
श्लोक 4
संशयोऽयं महान्ब्रह्मन्दारागारसुतादिषु।
सक्तस्य यत्सिद्धिरभूत्कृष्णे च मतिरच्युता ॥
अनुवाद:
"यह बड़ा आश्चर्य है कि प्रियव्रत जैसे भक्त, जो परिवार और सांसारिक जीवन में लिप्त थे, फिर भी उन्होंने भगवान कृष्ण में अचल भक्ति और सिद्धि कैसे प्राप्त की।"
श्री शुकदेवजी का उत्तर (श्रीशुक उवाच)
श्लोक 5
बाढमुक्तं भगवत उत्तमश्लोकस्य श्रीमच्चरणारविन्दमकरन्दरस आवेशितचेतसो भागवतपरमहंसदयितकथां किञ्चिदन्तरायविहतां स्वां शिवतमां पदवीं न प्रायेण हिन्वन्ति ॥
अनुवाद:
"हे राजा! जो व्यक्ति भगवान उत्तमश्लोक के चरणकमलों के मधु का स्वाद चखकर उनमें लीन हो जाता है, वह भले ही सांसारिक कर्तव्यों में बाधित हो, फिर भी अपनी उच्चतम स्थिति को नहीं खोता।"
श्लोक 6
यर्हि वाव ह राजन्स राजपुत्रः प्रियव्रतः परमभागवतो नारदस्य चरणोपसेवयाञ्जसावगतपरमार्थसतत्त्वो ब्रह्मसत्रेण दीक्षिष्यमाणोऽवनितलपरिपालनायाम्नात प्रवरगुणगणैकान्तभाजनतया स्वपित्रोपामन्त्रितो भगवति वासुदेव एवाव्यवधानसमाधियोगेन समावेशित सकलकारकक्रियाकलापो नैवाभ्यनन्दद्यद्यपि तदप्रत्याम्नातव्यं तदधिकरण आत्मनोऽन्यस्मादसतोऽपि पराभवमन्वीक्षमाणः॥
अनुवाद:
"प्रियव्रत, जो नारद मुनि के चरणों की सेवा से परम सत्य को जान चुके थे और जो ब्रह्म-सत्र में दीक्षित होने वाले थे, उन्हें अपने पिता द्वारा पृथ्वी के शासन के लिए बुलाया गया। हालाँकि, वे शासन का कार्य नहीं स्वीकारना चाहते थे, क्योंकि वे इसे आत्मा के लिए हानिकारक समझते थे।"
श्लोक 7
अथ ह भगवानादिदेव एतस्य गुणविसर्गस्य परिबृंहणानुध्यानव्यवसितसकलजगदभिप्राय आत्मयोनिरखिलनिगमनिजगणपरिवेष्टितः स्वभवनादवततार॥
अनुवाद:
"तब भगवान ब्रह्मा, जो सभी गुणों और सृष्टि के नियंता हैं और वेदों के साथ अपने लोक से घिरे हुए हैं, प्रियव्रत को समझाने के लिए स्वयं अवतरित हुए।"
श्री शुकदेवजी का उत्तर (श्रीशुक उवाच)
श्लोक 8
स तत्र तत्र गगनतल उडुपतिरिव विमानावलिभिरनुपथममरपरिवृढैरभिपूज्यमानः पथि पथि च वरूथशः सिद्धगन्धर्वसाध्यचारणमुनिगणैरुपगीयमानो गन्धमादनद्रोणीमवभासयन्नुपससर्प॥
अनुवाद:
"भगवान ब्रह्मा अपने दिव्य विमान से पृथ्वी पर उतरे। आकाश में उनके मार्ग को देवता, सिद्ध, गंधर्व, साध्य, चारण और मुनि गाते हुए पूजित कर रहे थे। उनके वाहन की आभा गंधमादन पर्वत को प्रकाशित कर रही थी।"
श्लोक 9
तत्र ह वा एनं देवर्षिर्हंसयानेन पितरं भगवन्तं हिरण्यगर्भमुपलभमानः सहसैवोत्थायार्हणेन सह पितापुत्राभ्यामवहिताञ्जलिरुपतस्थे॥
अनुवाद:
"प्रियव्रत और उनके पिता मनु ने भगवान ब्रह्मा को हंस पर आते देखा। वे तुरंत उठे और भगवान ब्रह्मा की पूजा करके श्रद्धा और भक्ति के साथ हाथ जोड़कर उनके सामने खड़े हो गए।"
श्लोक 10
भगवानपि भारत तदुपनीतार्हणः सूक्तवाकेनातितरामुदितगुणगणावतारसुजयः प्रियव्रतमादिपुरुषस्तं सदयहासावलोक इति होवाच॥
अनुवाद:
"हे भारत (परीक्षित), भगवान ब्रह्मा ने प्रियव्रत के अर्पण किए गए उपहारों को स्वीकार किया और उन्हें अपने करुणामय हंसी और सौम्य दृष्टि से देखते हुए कहा।"
भगवान ब्रह्मा का उपदेश (भगवानुवाच)
श्लोक 11
निबोध तातेदमृतं ब्रवीमि
मासूयितुं देवमर्हस्यप्रमेयम्।
वयं भवस्ते तत एष महर्षिर्वहाम सर्वे विवशा यस्य दिष्टम्॥
अनुवाद:
"हे प्रिय पुत्र! मेरे अमृतमय वचनों को सुनो। भगवान, जो अप्रमेय हैं, उनकी आज्ञा पर चलने में किसी प्रकार का संकोच न करो। हम सभी, यहाँ तक कि मैं, तुम और यह महर्षि (नारद) भी उनकी आज्ञा का पालन करने के लिए विवश हैं।"
श्लोक 12
न तस्य कश्चित्तपसा विद्यया वा
न योगवीर्येण मनीषया वा।
नैवार्थधर्मैः परतः स्वतो वा
कृतं विहन्तुं तनुभृद्विभूयात्॥
अनुवाद:
"किसी भी तप, ज्ञान, योगबल, बुद्धि, धन, धर्म, या किसी अन्य साधन से भगवान की इच्छा को कोई टाल नहीं सकता। उनके बनाए नियमों का पालन सभी जीवधारियों के लिए अनिवार्य है।"
श्लोक 13
भवाय नाशाय च कर्म कर्तुं
शोकाय मोहाय सदा भयाय।
सुखाय दुःखाय च देहयोग-
मव्यक्तदिष्टं जनताङ्ग धत्ते॥
अनुवाद:
"जीवों को शरीर भगवान की अदृश्य इच्छा से मिलता है, जो उन्हें सृजन, संहार, शोक, मोह, भय, सुख, और दुःख का अनुभव कराने के लिए है।"
श्लोक 14
यद्वाचि तन्त्यां गुणकर्मदामभिः
सुदुस्तरैर्वत्स वयं सुयोजिताः।
सर्वे वहामो बलिमीश्वराय
प्रोता नसीव द्विपदे चतुष्पदः॥
अनुवाद:
"हे पुत्र! हम सब भगवान की इच्छा के धागों से बंधे हुए कठपुतलियों की भाँति हैं। चाहे वह दो पैर वाले हों या चार पैर वाले, सभी भगवान के लिए ही बलि अर्पित करते हैं।"
श्लोक 15
ईशाभिसृष्टं ह्यवरुन्ध्महेऽङ्ग
दुःखं सुखं वा गुणकर्मसङ्गात्।
आस्थाय तत्तद्यदयुङ्क्त नाथ-
श्चक्षुष्मतान्धा इव नीयमानाः॥
अनुवाद:
"हे पुत्र! भगवान की इच्छा से हमें सुख और दुःख मिलता है। हम गुणों और कर्मों के प्रभाव से बंधे हुए हैं, जैसे अंधों को नेत्रहीन द्वारा मार्ग दिखाया जाता है।"
भगवान ब्रह्मा का उपदेश (भगवानुवाच)
श्लोक 16
मुक्तोऽपि तावद्बिभृयात्स्वदेहमारब्धमश्नन्नभिमानशून्यः।
यथानुभूतं प्रतियातनिद्रः किं त्वन्यदेहाय गुणान्न वृङ्क्ते॥
अनुवाद:
"मुक्त पुरुष भी अपने प्रारब्ध कर्म के कारण देह को धारण करते हैं और इसके साथ आने वाले सुख-दुःख का अनुभव करते हैं। लेकिन वे अहंकाररहित होते हैं। वे किसी अन्य देह की कामना नहीं करते और गुणों में आसक्ति से बचते हैं।"
श्लोक 17
भयं प्रमत्तस्य वनेष्वपि स्या-
द्यतः स आस्ते सहषट्सपत्नः।
जितेन्द्रियस्यात्मरतेर्बुधस्य
गृहाश्रमः किं नु करोत्यवद्यम्॥
अनुवाद:
"जो प्रमत्त (असंयमी) होता है, वह वन में रहने पर भी भयभीत रहता है, क्योंकि वह अपने शत्रुओं (काम, क्रोध आदि) से नहीं बच सकता। लेकिन जो ज्ञानी और आत्मरति (आत्मा में स्थित) है, उसके लिए गृहस्थ आश्रम भी अवगुण का कारण नहीं बनता।"
श्लोक 18
यः षट्सपत्नान्विजिगीषमाणो
गृहेषु निर्विश्य यतेत पूर्वम्।
अत्येति दुर्गाश्रित ऊर्जितारी-
न्क्षीणेषु कामं विचरेद्विपश्चित्॥
अनुवाद:
"जो व्यक्ति अपने छह शत्रुओं (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर) को जीतने का प्रयास करता है और उनकी शक्ति को क्षीण कर देता है, वह ज्ञानी व्यक्ति गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी निर्भय विचरण करता है।"
श्लोक 19
त्वं त्वब्जनाभाङ्घ्रिसरोजकोश
दुर्गाश्रितो निर्जितषट्सपत्नः।
भुङ्क्ष्वेह भोगान्पुरुषातिदिष्टा-
न्विमुक्तसङ्गः प्रकृतिं भजस्व॥
अनुवाद:
"हे प्रियव्रत! तुम भगवान के चरण-कमलों की शरण में हो और अपने छह शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर चुके हो। इसलिए भगवान द्वारा प्रदान किए गए भोगों का आनंद लो और उनकी सेवा में लीन रहो।"
श्री शुकदेवजी का वर्णन (श्रीशुक उवाच)
श्लोक 20
इति समभिहितो महाभागवतो भगवतस्त्रिभुवनगुरोरनुशासनमात्मनो लघुतयावनत शिरोधरो बाढमिति सबहुमानमुवाह॥
अनुवाद:
"भगवान ब्रह्मा के इन वचनों को सुनकर महाभागवत प्रियव्रत ने विनम्रता से अपना मस्तक झुकाया और आदरपूर्वक 'बाधम' (ऐसा ही हो) कहा।"
श्लोक 21
भगवानपि मनुना यथावदुपकल्पितापचितिः प्रियव्रत नारदयोरविषममभिसमीक्षमाणयोरात्म-समवस्थानमवाङ्मनसं क्षयमव्यवहृतं प्रवर्तयन्नगमत्॥
अनुवाद:
"भगवान ब्रह्मा ने मनु द्वारा की गई पूजा स्वीकार की। उन्होंने देखा कि प्रियव्रत और नारद दोनों अपने स्थान पर संतुष्ट थे। तत्पश्चात, भगवान अपने लोक को लौट गए।"
श्लोक 22
मनुरपि परेणैवं प्रतिसन्धितमनोरथः सुरर्षिवरानुमतेनात्मजमखिलधरामण्डलस्थितिगुप्तय आस्थाप्य स्वयमतिविषमविषयविषजलाशयाशाया उपरराम॥
अनुवाद:
"भगवान ब्रह्मा की अनुमति से, मनु ने प्रियव्रत को समस्त पृथ्वी के संरक्षण का दायित्व सौंपा और स्वयं सांसारिक इच्छाओं और विषयोपभोग से निवृत्त हो गए।"
श्लोक 23
इति ह वाव स जगतीपतिरीश्वरेच्छयाधिनिवेशितकर्माधिकारोऽखिलजगद्बन्धध्वंसन परानुभावस्य भगवत आदिपुरुषस्याङ्घ्रियुगलानवरतध्यानानुभावेन परिरन्धितकषायाशयोऽवदातोऽपि मानवर्धनो महतां महीतलमनुशशास॥
अनुवाद:
"भगवान की इच्छा से प्रियव्रत ने पृथ्वी के राजा के रूप में अपने कर्तव्यों का पालन किया। वे भगवान के चरणों का लगातार ध्यान करते हुए कर्मबंधन से मुक्त रहे और पृथ्वी पर धर्मपूर्वक शासन किया।"
श्लोक 24
अथ च दुहितरं प्रजापतेर्विश्वकर्मण उपयेमे बर्हिष्मतीं नाम तस्यामु ह वाव आत्मजानात्मसमानशीलगुणकर्मरूपवीर्योदारान्दश भावयाम्बभूव कन्यां च यवीयसीमूर्जस्वतीं नाम॥
अनुवाद:
"प्रियव्रत ने विश्वकर्मा की पुत्री बर्हिष्मती से विवाह किया। उनसे दस पुत्र और एक कन्या (उर्जस्वती) उत्पन्न हुए, जो सभी गुण, कर्म और रूप में अद्वितीय थे।"
श्री शुकदेवजी का वर्णन (श्रीशुक उवाच)
श्लोक 25
आग्नीध्रेध्मजिह्वयज्ञबाहु-महावीर-हिरण्यरेतो-घृतपृष्ठ-सवन-मेधातिथि-वीतिहोत्र-कवय इति सर्व एवाग्निनामानः॥
अनुवाद:
"प्रियव्रत के दस पुत्रों के नाम इस प्रकार थे: आग्नीध्र, इध्मजिह्व, यज्ञबाहु, महावीर, हिरण्यरेता, घृतपृष्ठ, सवन, मेधातिथि, वीतिहोत्र, और कवी। ये सभी दिव्य गुणों से संपन्न थे।"
श्लोक 26
एतेषां कविर्महावीरः सवन इति त्रय आसन्नूर्ध्वरेतसस्त आत्मविद्यायामर्भभावादारभ्य कृतपरिचयाः पारमहंस्यमेवाश्रममभजन्॥
अनुवाद:
"इन दस पुत्रों में से तीन—कवी, महावीर और सवन—ऊर्ध्वरेता (सांसारिक इच्छाओं से मुक्त) थे। ये बचपन से ही आत्मज्ञान में पारंगत हो गए और पारमहंस आश्रम का पालन करने लगे।"
श्लोक 27
तस्मिन्नु ह वा उपशमशीलाः परमर्षयः सकलजीवनिकायावासस्य भगवतो वासुदेवस्य भीतानां शरणभूतस्य श्रीमच्चरणारविन्दाविरतस्मरणाविगलितपरमभक्तियोगानुभावेन परिभावितान्तर्हृदयाधिगते भगवति सर्वेषां भूतानामात्मभूते प्रत्यगात्मन्येवात्मनस्तादात्म्यमविशेषेण समीयुः॥
अनुवाद:
"वे तीनों (कवी, महावीर और सवन) आत्मसंयमित और महान ऋषि बन गए। वे भगवान वासुदेव के परम भक्त थे, जिनका स्मरण उन्हें अखंड भक्ति और आत्मज्ञान प्रदान करता था। उनके हृदय में भगवान का निवास था, और वे सभी प्राणियों के प्रति अद्वैतभाव से जुड़े हुए थे।"
श्लोक 28
अन्यस्यामपि जायायां त्रयः पुत्रा आसन्नुत्तमस्तामसो रैवत इति मन्वन्तराधिपतयः॥
अनुवाद:
"प्रियव्रत की दूसरी पत्नी से तीन पुत्र हुए—उत्तम, तामस, और रैवत। ये तीनों मन्वंतर के अधिपति बने।"
श्लोक 29
एवमुपशमायनेषु स्वतनयेष्वथ जगतीपतिर्जगतीमर्बुदान्येकादशपरिवत्सराणामव्याहताखिलपुरुषकारसारसम्भृतदोर्दण्डयुगलापीडितमौर्वीगुणस्तनितविरमित धर्मप्रतिपक्षो बर्हिष्मत्याश्चानुदिनमेधमानप्रमोदप्रसरणयौषिण्यव्रीडाप्रमुषित हासावलोक रुचिरक्ष्वेल्यादिभिः पराभूयमानविवेक इवानवबुध्यमान इव महामना बुभुजे॥
अनुवाद:
"प्रियव्रत ने 11 अरब वर्षों तक पृथ्वी पर शासन किया। वे धर्म का पालन करते हुए अपनी पत्नी बर्हिष्मती और पुत्रों के साथ शांति और सुख से रहते थे। उनके शासनकाल में प्रजा संतुष्ट और प्रसन्न थी।"
श्लोक 30
यावदवभासयति सुरगिरिमनुपरिक्रामन्भगवानादित्यो वसुधातलमर्धेनैव प्रतपत्यर्धेनावच्छादयति तदा हि भगवदुपासनोपचितातिपुरुष प्रभावस्तदनभिनन्दन्समजवेन रथेन ज्योतिर्मयेन रजनीमपि दिनं करिष्यामीति सप्त कृत्वस्तरणिमनुपर्यक्रामद्द्वितीय इव पतङ्गः॥
अनुवाद:
"प्रियव्रत ने अपने दिव्य रथ से सूर्यदेव के समान पृथ्वी का भ्रमण किया। उन्होंने रात्रि को भी दिन के समान प्रकाशित कर दिया। उनके तेजस्वी कार्यों ने उन्हें सूर्य के समान बना दिया।"
श्लोक 31
ये वा उ ह तद्रथचरणनेमिकृतपरिखातास्ते सप्त सिन्धव आसन्यत एव कृताः सप्त भुवो द्वीपाः॥
अनुवाद:
"प्रियव्रत के रथ के पहियों से बने गड्ढों ने पृथ्वी पर सात महासागरों को जन्म दिया। इसी के आधार पर पृथ्वी को सात द्वीपों में विभाजित किया गया।"
श्लोक 32
जम्बूप्लक्षशाल्मलिकुशक्रौञ्चशाकपुष्करसंज्ञास्तेषां परिमाणं पूर्वस्मात्पूर्वस्मादुत्तर उत्तरो यथासङ्ख्यं द्विगुणमानेन बहिः समन्तत उपकॢप्ताः॥
अनुवाद:
"पृथ्वी के सात द्वीपों के नाम इस प्रकार हैं: जम्बूद्वीप, प्लक्षद्वीप, शाल्मलिद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप, और पुष्करद्वीप। ये प्रत्येक द्वीप अपने पूर्ववर्ती से दुगुना आकार रखते हैं।"
श्लोक 33
दुहितरं चोर्जस्वतीं नामोशनसे प्रायच्छद्यस्यामासीद्देवयानी नाम काव्यसुता॥
अनुवाद:
"प्रियव्रत ने अपनी कन्या उर्जस्वती का विवाह शुक्राचार्य (उशनस) के साथ किया। उनसे देवयानी नामक पुत्री उत्पन्न हुई।"
श्लोक 34
नैवंविधः पुरुषकार उरुक्रमस्य पुंसां तदङ्घ्रिरजसा जितषड्गुणानाम्।
चित्रं विदूरविगतः सकृदाददीत यन्नामधेयमधुना स जहाति बन्धम्॥
अनुवाद:
"हे विदुर! जो लोग भगवान उरुक्रम (श्रीहरि) के चरणरज से अपने छह शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर लेते हैं, वे संसार से मुक्त हो जाते हैं। यह भगवान का अद्भुत प्रभाव है। उनके नाम का एक बार स्मरण करने से ही बंधन समाप्त हो जाता है।"
श्री शुकदेवजी का वर्णन (श्रीशुक उवाच)
श्लोक 35
स एवमपरिमितबलपराक्रम एकदा तु देवर्षिचरणानुशयनानुपतितगुणविसर्गसंसर्गेणानिर्वृतमिवात्मानं मन्यमान आत्मनिर्वेद इदमाह॥
अनुवाद:
"प्रियव्रत, जो अपार बल और पराक्रम के धनी थे, ने एक दिन अपने सांसारिक कार्यों और संपत्ति से उत्पन्न मोह को अनुभव किया। अपने मन में विरक्ति उत्पन्न होने पर, उन्होंने अपने आप से यह कहा।"
श्लोक 36
अहो असाध्वनुष्ठितं यदभिनिवेशितोऽहमिन्द्रियैरविद्यारचितविषमविषयान्धकूपे तदलमलममुष्या वनिताया विनोदमृगं मां धिग्धिगिति गर्हयांचकार॥
अनुवाद:
"प्रियव्रत ने सोचा, 'अहो! यह कितना अनुचित है कि मैं अपनी इंद्रियों के कारण अज्ञान के गहरे कुएँ में गिरा हुआ हूँ। इस स्त्री (सांसारिक मोह) का खिलौना बनकर मैंने अपना जीवन व्यर्थ किया। धिक्कार है मुझ पर!'"
श्लोक 37
परदेवताप्रसादाधिगतात्मप्रत्यवमर्शेनानुप्रवृत्तेभ्यः पुत्रेभ्य इमां यथादायं विभज्य भुक्तभोगां च महिषीं मृतकमिव सह महाविभूतिमपहाय स्वयं निहितनिर्वेदो हृदि गृहीतहरिविहारानुभावो भगवतो नारदस्य पदवीं पुनरेवानुससार॥
अनुवाद:
"भगवान की कृपा से प्राप्त आत्मज्ञान के प्रभाव से प्रियव्रत ने अपने पुत्रों को उनके हिस्से का राज्य देकर, अपनी पत्नी और भोगों को त्याग दिया। उन्होंने सांसारिक संपत्ति को मृत शरीर के समान त्यागकर, अपने हृदय में भगवान के चरणों का ध्यान किया और नारद मुनि के मार्ग का अनुसरण किया।"
प्रियव्रत के महान कार्यों की स्तुति
श्लोक 38
प्रियव्रतकृतं कर्म को नु कुर्याद्विनेश्वरम्।
यो नेमिनिम्नैरकरोच्छायां घ्नन्सप्त वारिधीन्॥
अनुवाद:
"प्रियव्रत के कार्य भगवान की इच्छा से प्रेरित थे। उन्होंने अपने रथ के पहियों से सात महासागरों का निर्माण किया। ऐसा अद्भुत कार्य अन्य कोई नहीं कर सकता।"
श्लोक 39
भूसंस्थानं कृतं येन सरिद्गिरिवनादिभिः।
सीमा च भूतनिर्वृत्यै द्वीपे द्वीपे विभागशः॥
अनुवाद:
"प्रियव्रत ने पृथ्वी को नदियों, पर्वतों, और वनों से विभाजित करके उसे सात द्वीपों और महासागरों में व्यवस्थित किया। यह विभाजन सभी प्राणियों की सुख-सुविधा के लिए किया गया।"
श्लोक 40
भौमं दिव्यं मानुषं च महित्वं कर्मयोगजम्।
यश्चक्रे निरयौपम्यं पुरुषानुजनप्रियः॥
अनुवाद:
"प्रियव्रत ने भौतिक, दिव्य, और मानवीय कार्यों को कर्मयोग के माध्यम से पूर्ण किया। उनके कार्यों की तुलना अन्य किसी से नहीं की जा सकती। वे समस्त प्रजा के प्रिय राजा थे।"
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पंचम स्कंधे प्रियव्रतविजये प्रथम अध्यायः।
"इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण के पंचम स्कंध के प्रियव्रत विजय का प्रथम अध्याय समाप्त होता है।"
यदि आप इस भागवत पञ्चम स्कंध, प्रथम अध्याय (हिन्दी अनुवाद) के किसी विशेष भाग की व्याख्या चाहते हैं तो कृपया बताएं। यहाँ भागवत पञ्चम स्कंध, प्रथम अध्याय (हिन्दी अनुवाद) के सभी श्लोकों के साथ अलग अलग हिन्दी अनुवाद दिया गया है।
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