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भागवत द्वादश स्कन्ध, प्रथम अध्याय(हिन्दी अनुवाद)

Here is the image depicting the sages and kings from the Bhagavata Purana, capturing the serene and divine atmosphere of King Parikshit list...

भागवत प्रथम स्कन्ध, अष्टम अध्याय(हिन्दी अनुवाद)

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यहाँ पर भागवत प्रथम स्कन्ध, अष्टम अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के सभी श्लोकोॆ का हिन्दी अनुवाद दिया गया है।कुन्ती स्तुति।कुन्ती द्वारा की गई भगवान की स्तुति

भागवत प्रथम स्कन्ध, अष्टम अध्याय(हिन्दी अनुवाद)

 यहाँ पर भागवत प्रथम स्कन्ध, अष्टम अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के सभी श्लोकोॆ का हिन्दी अनुवाद दिया गया है। जोकि भागवत प्रथम स्कन्ध, अष्टम अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के अलग अलग श्लोकों के साथ प्रत्येक श्लोक के अर्थ दिये गये हैं।

भागवत प्रथम स्कन्ध, अष्टम अध्याय(हिन्दी अनुवाद)

यह चित्र कुंती माता को भगवान श्रीकृष्ण के प्रति अपने भावपूर्ण प्रार्थना करते हुए दर्शाता है। भगवान श्रीकृष्ण, करुणामय मुस्कान के साथ, उनकी प्रार्थना सुनते हुए खड़े हैं। चित्र में हस्तिनापुर के महल का पृष्ठभूमि में भव्य दृश्य है, जो इस आध्यात्मिक और शांति भरे क्षण को सजीव करता है।


भागवत प्रथम स्कन्ध, अष्टम अध्याय(हिन्दी अनुवाद)

श्रीमद्भागवत महापुराण, प्रथम स्कंध, अष्टम अध्याय का हिन्दी अनुवाद


श्लोक 1:

सूत उवाच
अथ ते सम्परेतानां स्वानामुदकमिच्छताम् ।
दातुं सकृष्णा गङ्गायां पुरस्कृत्य ययुः स्त्रियः ॥। १ ॥

अनुवाद:
सूतजी बोले: जब उनके स्वजन युद्ध में मारे गए, तो पांडव अपनी पत्नियों और भगवान श्रीकृष्ण के साथ गंगा तट पर उनका तर्पण करने गए।


श्लोक 2:

ते निनीयोदकं सर्वे विलप्य च भृशं पुनः ।
आप्लुता हरिपादाब्जः अजःपूतसरिज्जले ॥। २ ॥

अनुवाद:
वे सभी गंगा के पवित्र जल में स्नान करके भगवान श्रीकृष्ण के चरण कमलों को स्मरण करते हुए तर्पण करने लगे।


श्लोक 3:

तत्रासीनं कुरुपतिं धृतराष्ट्रं सहानुजम् ।
गान्धारीं पुत्रशोकार्तां पृथां कृष्णां च माधवः ॥। ३ ॥

अनुवाद:
गंगा तट पर धृतराष्ट्र अपने भाई विदुर के साथ बैठे थे। गांधारी अपने पुत्रों के शोक से पीड़ित थीं। पृथा (कुंती) और भगवान श्रीकृष्ण भी वहाँ उपस्थित थे।


श्लोक 4:

सांत्वयामास मुनिभिः हतबंधून् शुचार्पितान् ।
भूतेषु कालस्य गतिं दर्शयन् अप्रतिक्रियाम् ॥। ४ ॥

अनुवाद:
भगवान श्रीकृष्ण और मुनियों ने शोक संतप्त पांडवों को सांत्वना दी। उन्होंने उन्हें समझाया कि यह संसार काल के अधीन है, और इसकी गति को बदला नहीं जा सकता।


श्लोक 5:

साधयित्वाजातशत्रोः स्वं राज्यं कितवैर्हृतम् ।
घातयित्वासतो राज्ञः कचस्पर्शक्षतायुषः ॥। ५ ॥

अनुवाद:
भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को उनके द्वारा खोए हुए राज्य को पुनः प्राप्त कराया और पापी कौरवों का अंत किया, जो छल और कपट से राज्य पर अधिकार जमाए हुए थे।


श्लोक 6:

याजयित्वाश्वमेधैस्तं त्रिभिरुत्तमकल्पकैः ।
तद्यशः पावनं दिक्षु शतमन्योरिवातनोत् ॥। ६ ॥

अनुवाद:
युधिष्ठिर ने तीन महान अश्वमेध यज्ञ किए। उनके यश ने इंद्र के समान चारों दिशाओं को पवित्र कर दिया।


श्लोक 7:

आमंत्र्य पाण्डुपुत्रांश्च शैनेयोद्धवसंयुतः ।
द्वैपायनादिभिर्विप्रैः पूजितैः प्रतिपूजितः ॥। ७ ॥

अनुवाद:
भगवान श्रीकृष्ण ने पांडवों से विदा ली। वे सात्यकि और उद्धव के साथ द्वारका लौटने लगे। वहाँ उपस्थित ऋषियों, जैसे व्यास आदि ने उनकी पूजा की और भगवान ने उन्हें सम्मानित किया।


श्लोक 8:

गन्तुं कृतमतिर्ब्रह्मन् द्वारकां रथमास्थितः ।
उपलेभेऽभिधावन्तीं उत्तरां भयविह्वलाम् ॥। ८ ॥

अनुवाद:
भगवान श्रीकृष्ण द्वारका लौटने के लिए रथ पर सवार हुए। उसी समय उन्होंने उत्तर को भयभीत अवस्था में उनकी ओर आते देखा।


श्लोक 9:

उत्तरोवाच
पाहि पाहि महायोगिन् देवदेव जगत्पते ।
नान्यं त्वदभयं पश्ये यत्र मृत्युः परस्परम् ॥

अनुवाद:
उत्तर ने कहा: हे महायोगी, हे देवताओं के देवता, हे जगत्पति! कृपया मुझे बचाइए, मुझे आपकी शरण में सुरक्षा के अलावा और कहीं से आशा नहीं है, क्योंकि मृत्यु मेरे समीप आ रही है।


श्लोक 10:

अभिद्रवति मामीश शरस्तप्तायसो विभो ।
कामं दहतु मां नाथ मा मे गर्भो निपात्यताम् ॥

अनुवाद:
हे प्रभु! एक प्रज्वलित लोहे का बाण मेरी ओर आ रहा है। हे नाथ! मुझे जलाकर भस्म कर दे, परंतु कृपया मेरे गर्भ में पल रहे शिशु को नष्ट न होने दें।


श्लोक 11:

सूत उवाच
उपधार्य वचस्तस्या भगवान् भक्तवत्सलः ।
अपाण्डवमिदं कर्तुं द्रौणेरस्त्रमबुध्यत ॥

अनुवाद:
सूतजी बोले: भगवान श्रीकृष्ण, जो अपने भक्तों के प्रति अत्यंत कृपालु हैं, उत्तर के वचनों को सुनकर समझ गए कि द्रोणपुत्र ने पांडवों के वंश को समाप्त करने के लिए ब्रह्मास्त्र छोड़ा है।


श्लोक 12:

तर्ह्येवाथ मुनिश्रेष्ठ पाण्डवाः पञ्च सायकान् ।
आत्मनोऽभिमुखान् दीप्तान् आलक्ष्यास्त्राण्युपाददुः ॥

अनुवाद:
हे मुनिश्रेष्ठ! उसी समय पांडवों ने देखा कि पाँच प्रज्वलित बाण उनकी ओर आ रहे हैं। उन्होंने तुरंत उनके प्रतिकार के लिए अपनी रक्षा का उपाय किया।


श्लोक 13:

व्यसनं वीक्ष्य तत्तेषां अनन्यविषयात्मनाम् ।
सुदर्शनेन स्वास्त्रेण स्वानां रक्षां व्यधाद्विभुः ॥

अनुवाद:
भगवान ने देखा कि उनके भक्त पांडव, जो केवल उन्हीं पर निर्भर हैं, संकट में हैं। उन्होंने अपने सुदर्शन चक्र के द्वारा उनकी रक्षा की।


श्लोक 14:

अन्तःस्थः सर्वभूतानां आत्मा योगेश्वरो हरिः ।
स्वमाययाऽऽवृणोद्‍गर्भं वैराट्याः कुरुतन्तवे ॥

अनुवाद:
योगेश्वर भगवान हरि, जो सभी प्राणियों के हृदय में स्थित हैं, अपनी माया से उत्तर के गर्भ में स्थित पांडव वंश के रक्षक शिशु को ढककर उसकी रक्षा करने लगे।


श्लोक 15:

यद्यप्यस्त्रं ब्रह्मशिरः त्वमोघं चाप्रतिक्रियम् ।
वैष्णवं तेज आसाद्य समशाम्यद् भृगूद्वह ॥

अनुवाद:
हे भृगुकुल में जन्मे मुनि! यद्यपि ब्रह्मास्त्र अत्यंत शक्तिशाली और अचूक होता है, लेकिन वैष्णव तेज (भगवान की शक्ति) के संपर्क में आकर वह शांत हो गया।


श्लोक 16:

मा मंस्था ह्येतदाश्चर्यं सर्वाश्चर्यमयेऽच्युते ।
य इदं मायया देव्या सृजत्यवति हन्त्यजः ॥

अनुवाद:
इस घटना को कोई आश्चर्य मत मानो, क्योंकि अच्युत (भगवान) सबसे आश्चर्यजनक हैं। वे अपनी योगमाया से सृष्टि की रचना, पालन और संहार करते हैं।


श्लोक 17:

ब्रह्मतेजोविनिर्मुक्तैः आत्मजैः सह कृष्णया ।
प्रयाणाभिमुखं कृष्णं इदमाह पृथा सती ॥

अनुवाद:
जब भगवान श्रीकृष्ण प्रस्थान करने लगे, तब कुंती (पृथा) ने, जो अपने पुत्रों के साथ उपस्थित थीं, उनके प्रति विनम्र भाव से यह प्रार्थना की।


श्लोक 18:

कुन्त्युवाच
नमस्ये पुरुषं त्वाऽऽद्यं ईश्वरं प्रकृतेः परम् ।
अलक्ष्यं सर्वभूतानां अन्तर्बहिरवस्थितम् ॥

अनुवाद:
कुंती ने कहा: मैं आदिपुरुष, ईश्वर, और प्रकृति से परे भगवान को नमस्कार करती हूँ। आप सभी प्राणियों के भीतर और बाहर विद्यमान हैं, फिर भी अदृश्य हैं।


श्लोक 19:

मायाजवनिकाच्छन्नं अज्ञाधोक्षजमव्ययम् ।
न लक्ष्यसे मूढदृशा नटो नाट्यधरो यथा ॥

अनुवाद:
आप अपनी माया की आड़ से ढके हुए हैं। अज्ञानी व्यक्ति आपको नहीं देख पाते, जैसे एक अभिनेता मंच पर छिपा हुआ होता है।


श्लोक 20:

तथा परमहंसानां मुनीनां अमलात्मनाम् ।
भक्तियोगविधानार्थं कथं पश्येम हि स्त्रियः ॥

अनुवाद:
जो परमहंस और पवित्र आत्मा हैं, वे भी भक्तियोग के द्वारा ही आपको देख सकते हैं। तो हम स्त्रियाँ, जिनका मन अशुद्ध है, आपको कैसे देख सकती हैं?


श्लोक 21:

कृष्णाय वासुदेवाय देवकीनंदनाय च ।
नंदगोपकुमाराय गोविंदाय नमो नमः ॥

अनुवाद:
श्रीकृष्ण, वासुदेव, देवकीनंदन, नंदगोप के पुत्र, और गोविंद को मैं बार-बार प्रणाम करती हूँ।


श्लोक 22:

नमः पङ्कजनाभाय नमः पङ्कजमालिने ।
नमः पङ्कजनेत्राय नमस्ते पङ्कजाङ्घ्रये ॥

अनुवाद:
मैं उन भगवान को नमस्कार करती हूँ, जिनकी नाभि, माला, नेत्र और चरणकमल के समान सुंदर हैं।


श्लोक 23:

यथा हृषीकेश खलेन देवकी
कंसेन रुद्धातिचिरं शुचार्पिता ।
विमोचिताहं च सहात्मजा विभो
त्वयैव नाथेन मुहुर्विपद्‍गणात् ॥

अनुवाद:
हे हृषीकेश! जिस प्रकार कंस ने देवकी को बंदी बनाकर लंबे समय तक दुख दिया, वैसे ही आपने बार-बार हमें विपत्तियों से मुक्त किया है।


श्लोक 24:

विषान्महाग्नेः पुरुषाददर्शनाद्
असत्सभाया वनवासकृच्छ्रतः ।
मृधे मृधेऽनेकमहारथास्त्रतो
द्रौण्यस्त्रतश्चास्म हरेऽभिरक्षिताः ॥

अनुवाद:
आपने हमें विषपान, महाग्नि, नरभक्षी राक्षस, दुर्योधन की सभा, वनवास की कठिनाइयों, युद्धों में महारथियों के अस्त्र और अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से बचाया।


श्लोक 25:

विपदः सन्तु ताः शश्वत् तत्र तत्र जगद्‍गुरो ।
भवतो दर्शनं यत्स्याद् अपुनर्भवदर्शनम् ॥

अनुवाद:
हे जगद्गुरु! हमें बार-बार विपत्तियाँ आती रहें, क्योंकि उन्हीं के कारण आपका दर्शन होता है और फिर जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति मिलती है।


श्लोक 26:

जन्मैश्वर्यश्रुतश्रीभिः एधमानमदः पुमान् ।
नैवार्हत्यभिधातुं वै त्वां अकिञ्चनगोचरम् ॥

अनुवाद:
धन, ऐश्वर्य, उच्च शिक्षा और सुंदरता के कारण व्यक्ति अभिमान से भर जाता है। ऐसे अभिमानी लोग आपकी भक्ति नहीं कर सकते, क्योंकि आप केवल अकिंचन (निर्लिप्त) भक्तों के लिए सुलभ हैं।


श्लोक 27:

नमोऽकिञ्चनवित्ताय निवृत्तगुणवृत्तये ।
आत्मारामाय शान्ताय कैवल्यपतये नमः ॥

अनुवाद:
मैं उन भगवान को नमस्कार करती हूँ, जो निर्धनों के धन हैं, जिनकी सभी गुणों से परे स्थिति है, जो आत्माराम और शांति के स्वरूप हैं, और जो मोक्ष के स्वामी हैं।


श्लोक 28:

मन्ये त्वां कालमीशानं अनादिनिधनं विभुम् ।
समं चरन्तं सर्वत्र भूतानां यन्मिथः कलिः ॥

अनुवाद:
हे ईश्वर! मैं आपको काल, अनादि-अनंत, और सर्वव्यापक मानती हूँ। आप सभी प्राणियों के साथ समान रूप से व्यवहार करते हैं, भले ही उनमें मतभेद क्यों न हो।


श्लोक 29:

न वेद कश्चिद् भगवंश्चिकीर्षितं
तवेहमानस्य नृणां विडम्बनम् ।
न यस्य कश्चिद् दयितोऽस्ति कर्हिचिद्
द्वेष्यश्च यस्मिन्विषमा मतिर्नृणाम् ॥

अनुवाद:
हे भगवन! आपकी इच्छाओं और कार्यों को कोई नहीं जान सकता। इस संसार में, आपका आचरण कभी-कभी मनुष्यों को रहस्यमय और विडंबनापूर्ण लगता है। आपके लिए न तो कोई प्रिय है और न कोई द्वेष्य। यह विषमता केवल मनुष्यों की ही सोच है।


श्लोक 30:

जन्म कर्म च विश्वात्मन् अजस्याकर्तुरात्मनः ।
तिर्यङ् नृषिषु यादःसु तद् अत्यन्तविडम्बनम् ॥

अनुवाद:
हे विश्वात्मन्! आपका जन्म और कर्म, जो अज (अजन्मा) और अकर्मा हैं, तिर्यक् (पशुओं), मनुष्यों, ऋषियों, और यादवों के रूप में प्रकट होता है। यह अत्यधिक अद्भुत और रहस्यमय है।


श्लोक 31:

गोप्याददे त्वयि कृतागसि दाम तावद्
या ते दशाश्रुकलिल अञ्जन संभ्रमाक्षम् ।
वक्त्रं निनीय भयभावनया स्थितस्य
सा मां विमोहयति भीरपि यद्‌बिभेति ॥

अनुवाद:
जब आप बालक के रूप में गोपियों (माता यशोदा) द्वारा पकड़े गए और उन्होंने आपको सजा देने के लिए बांधने का प्रयास किया, तब भयभीत होकर आप उनके सामने रोने लगे। यह दृश्य, जिसे देखकर मृत्यु भी डरती है, मुझे विमोहित कर देता है।


श्लोक 32:

केचिद् आहुः अजं जातं पुण्यश्लोकस्य कीर्तये ।
यदोः प्रियस्य अन्ववाये मलयस्येव चन्दनम् ॥

अनुवाद:
कुछ लोग कहते हैं कि आप पुण्यश्लोक (अच्छे कर्मों के प्रतीक) की कीर्ति के लिए अवतरित हुए हैं, जैसे चंदन का वृक्ष मलय पर्वत पर उगता है और उसे महिमामंडित करता है।


श्लोक 33:

अपरे वसुदेवस्य देवक्यां याचितोऽभ्यगात् ।
अजस्त्वमस्य क्षेमाय वधाय च सुरद्विषाम् ॥

अनुवाद:
दूसरे कहते हैं कि वसुदेव और देवकी की प्रार्थना पर आप अवतरित हुए, ताकि भक्तों का कल्याण हो और देवताओं के शत्रुओं का विनाश हो।


श्लोक 34:

भारावतारणायान्ये भुवो नाव इवोदधौ ।
सीदन्त्या भूरिभारेण जातो ह्यात्मभुवार्थितः ॥

अनुवाद:
कुछ अन्य लोग कहते हैं कि आप पृथ्वी के भार को उतारने के लिए अवतरित हुए, जैसे समुद्र में डूबी नाव को बचाने के लिए। आप ब्रह्मा की प्रार्थना पर प्रकट हुए।


श्लोक 35:

भवेऽस्मिन् क्लिश्यमानानां अविद्याकामकर्मभिः ।
श्रवण स्मरणार्हाणि करिष्यम् इति केचन ॥

अनुवाद:
और कुछ कहते हैं कि आपने अविद्या, वासना, और पाप कर्मों से पीड़ित लोगों को आपकी कथा सुनने, स्मरण करने और आराधना करने योग्य बनाने के लिए अवतार लिया।


श्लोक 36:

श्रृण्वन्ति गायन्ति गृणन्त्यभीक्ष्णशः
स्मरन्ति नन्दन्ति तवेहितं जनाः ।
त एव पश्यन्त्यचिरेण तावकं
भवप्रवाहोपरमं पदाम्बुजम् ॥

अनुवाद:
जो लोग आपकी लीलाओं को सुनते, गाते, और स्मरण करते हैं, वे शीघ्र ही आपके चरण कमलों का साक्षात्कार कर लेते हैं, जो संसार के बंधनों से मुक्ति दिलाने वाले हैं।


श्लोक 37:

अप्यद्य नस्त्वं स्वकृतेहित प्रभो
जिहाससि स्वित् सुहृदोऽनुजीविनः ।
येषां न चान्यत् भवतः पदाम्बुजात्
परायणं राजसु योजितांहसाम् ॥

अनुवाद:
हे प्रभु! क्या आप हमें छोड़ने का विचार कर रहे हैं? हम आपके भक्त हैं और आपके बिना हमारा कोई और आश्रय नहीं है। पापों से पीड़ित राजा भी आपके चरणों का ही आश्रय लेते हैं।


श्लोक 38:

के वयं नामरूपाभ्यां यदुभिः सह पाण्डवाः ।
भवतोऽदर्शनं यर्हि हृषीकाणां इव ईशितुः ॥

अनुवाद:
हम पांडव और यादव क्या हैं, हमारे नाम और रूप का महत्व क्या है? यदि आपके दिव्य दर्शन न हों, तो यह स्थिति वैसी ही होगी जैसे शरीर के बिना इंद्रियां व्यर्थ हैं।


श्लोक 39:

नेयं शोभिष्यते तत्र यथेदानीं गदाधर ।
त्वत्पदैः अङ्‌किता भाति स्वलक्षणविलक्षितैः ॥

अनुवाद:
हे गदाधर! पृथ्वी पर जब आपके चरण कमलों की छाप नहीं होगी, तब यह वैसी सुंदर नहीं लगेगी जैसी अब लग रही है। आपकी उपस्थिति ही इसे विशेष बनाती है।


श्लोक 40:

इमे जनपदाः स्वृद्धाः सुपक्वौषधिवीरुधः ।
वनाद्रि नदी उदन्वन्तो ह्येधन्ते तव वीक्षितैः ॥

अनुवाद:
आपकी कृपा दृष्टि से ये जनपद समृद्ध हो गए हैं। फसलें, जड़ी-बूटियाँ, पेड़, पहाड़, नदियाँ और समुद्र सभी पूर्णतः फल-फूल रहे हैं।


श्लोक 41:

अथ विश्वेश विश्वात्मन् विश्वमूर्ते स्वकेषु मे ।
स्नेहपाशं इमं छिन्धि दृढं पाण्डुषु वृष्णिषु ॥

अनुवाद:
हे विश्वेश्वर, हे विश्वात्मन्, हे विश्वमूर्ति! कृपया पांडवों और वृष्णियों के प्रति मेरे इस स्नेहबंधन को काट दीजिए, ताकि मैं केवल आपसे बंधी रहूँ।


श्लोक 42:

त्वयि मेऽनन्यविषया मतिर्मधुपतेऽसकृत् ।
रतिं उद्वहतात् अद्धा गङ्गेवौघं उदन्वति ॥

अनुवाद:
हे मधुपति! मेरी बुद्धि बार-बार आप में ही स्थित हो। जैसे गंगा का प्रवाह समुद्र की ओर बढ़ता है, वैसे ही मेरी भक्ति आपमें दृढ़ होती रहे।


श्लोक 43:

श्रीकृष्ण कृष्णसख वृष्णि ऋषभावनिध्रुग्
राजन्यवंशदहन अनपवर्ग वीर्य ।
गोविन्द गोद्विजसुरार्तिहरावतार
योगेश्वराखिलगुरो भगवन् नमस्ते ॥

अनुवाद:
हे श्रीकृष्ण! हे वृष्णि वंश के रक्षक और पांडवों के मित्र! हे राजाओं के अभिमान को नष्ट करने वाले और पवित्रता के अवतार! गोविंद, ब्राह्मणों और देवताओं की पीड़ा हरने वाले योगेश्वर, सबके गुरु, आपको मेरा प्रणाम।


श्लोक 44:

सूत उवाच
पृथयेत्थं कलपदैः परिणूताखिलोदयः ।
मन्दं जहास वैकुण्ठो मोहयन्निव मायया ॥

अनुवाद:
सूतजी बोले: कुंती ने इस प्रकार सुंदर और प्रभावशाली वाणी से भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति की। वैकुंठपति श्रीकृष्ण माया से उन्हें मोहित करते हुए मंद-मंद मुस्कराए।


श्लोक 45:

तां बाढं इति उपामंत्र्य प्रविश्य गजसाह्वयम् ।
स्त्रियश्च स्वपुरं यास्यन् प्रेम्णा राज्ञा निवारितः ॥

अनुवाद:
श्रीकृष्ण ने "ऐसा ही होगा" कहकर कुंती को आश्वस्त किया और फिर हस्तिनापुर नगर में प्रवेश किया। जब वे द्वारका लौटने लगे, तो प्रेम से युधिष्ठिर ने उन्हें रोक लिया।


श्लोक 46:

व्यासाद्यैरीश्वरेहा ज्ञैः कृष्णेनाद्‍भुतकर्मणा ।
प्रबोधितोऽपि इतिहासैः नाबुध्यत शुचार्पितः ॥

अनुवाद:
महर्षि व्यास और अन्य ऋषियों ने भगवान श्रीकृष्ण के अद्भुत कर्मों का स्मरण कराते हुए युधिष्ठिर को समझाया, लेकिन वे अपने स्वजनों के विनाश के शोक से उबर नहीं सके।


श्लोक 47:

आह राजा धर्मसुतः चिन्तयन् सुहृदां वधम् ।
प्राकृतेनात्मना विप्राः स्नेहमोहवशं गतः ॥

अनुवाद:
धर्मराज युधिष्ठिर अपने प्रियजनों के वध के बारे में सोचते हुए अत्यधिक शोक और मोह में पड़ गए और प्राकृत बुद्धि से सोचने लगे।


श्लोक 48:

अहो मे पश्यताज्ञानं हृदि रूढं दुरात्मनः ।
पारक्यस्यैव देहस्य बह्व्यो मेऽक्षौहिणीर्हताः ॥

अनुवाद:
युधिष्ठिर ने कहा: अहा! मेरे हृदय में कितना अज्ञान है। मैं इस शरीर, जो वास्तव में पराया है, के लिए इतना आसक्त हो गया हूँ कि इसके कारण मैंने अनेकों अक्षौहिणी सेनाओं का विनाश कर दिया।


श्लोक 49:

बालद्विजसुहृन् मित्र पितृभ्रातृगुरु द्रुहः ।
न मे स्यात् निरयात् मोक्षो ह्यपि वर्ष अयुत आयुतैः ॥

अनुवाद:
मैंने बालकों, ब्राह्मणों, मित्रों, पिता, भाइयों, और गुरुओं का अनिष्ट किया है। मुझे इस पाप से लाखों वर्षों तक भी नरक से मुक्ति नहीं मिलेगी।


श्लोक 50:

नैनो राज्ञः प्रजाभर्तुः धर्मयुद्धे वधो द्विषाम् ।
इति मे न तु बोधाय कल्पते शासनं वचः ॥

अनुवाद:
यद्यपि राजा के रूप में प्रजा की रक्षा करना मेरा धर्म है और धर्मयुद्ध में शत्रुओं का वध उचित है, फिर भी मुझे अपने किए गए कार्यों का ज्ञान और शांति नहीं मिल रही है।


श्लोक 51:

स्त्रीणां मत् हतबंधूनां द्रोहो योऽसौ इहोत्थितः ।
कर्मभिः गृहमेधीयैः नाहं कल्पो व्यपोहितुम् ॥

अनुवाद:
मैं उन स्त्रियों के प्रति पापी हूँ, जिनके परिजन इस युद्ध में मारे गए हैं। मैं अपने गृहस्थ जीवन के धार्मिक कार्यों से इस पाप को मिटा नहीं सकता।


श्लोक 52:

यथा पङ्केन पङ्काम्भः सुरया वा सुराकृतम् ।
भूतहत्यां तथैवैकां न यज्ञैः मार्ष्टुमर्हति ॥

अनुवाद:
जैसे गंदे पानी से कीचड़ को साफ नहीं किया जा सकता और शराब से शराब का निवारण नहीं हो सकता, वैसे ही भूतों की हत्या (जीवों के विनाश) को यज्ञों के द्वारा समाप्त नहीं किया जा सकता।


इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे कुन्तीस्तुतिर्युधिष्ठिरानुतापो नाम अष्टमोऽध्यायः ॥

(इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण के प्रथम स्कंध के "कुंती स्तुति और युधिष्ठिर का पश्चाताप" नामक अष्टम अध्याय का समापन हुआ।)



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भागवत दर्शन: भागवत प्रथम स्कन्ध, अष्टम अध्याय(हिन्दी अनुवाद)
भागवत प्रथम स्कन्ध, अष्टम अध्याय(हिन्दी अनुवाद)
यहाँ पर भागवत प्रथम स्कन्ध, अष्टम अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के सभी श्लोकोॆ का हिन्दी अनुवाद दिया गया है।कुन्ती स्तुति।कुन्ती द्वारा की गई भगवान की स्तुति
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भागवत दर्शन
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