भागवत दशम स्कन्ध,प्रथम अध्याय(हिन्दी अनुवाद) यहाँ पर भागवत दशम स्कन्ध,प्रथम अध्याय(हिन्दी अनुवाद)के सम्पूर्ण श्लोकों का अलग अलग हिन्दी अनुवाद दिया है।
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भागवत दशम स्कन्ध, प्रथम अध्याय(हिन्दी अनुवाद)
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श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कंध, प्रथम अध्याय का हिन्दी अनुवाद
श्रीराजोवाच (राजा परीक्षित का प्रश्न)
श्लोक 1
कथितो वंशविस्तारो भवता सोमसूर्ययोः।
राज्ञां च उभयवंश्यानां चरितं परमाद्भुतम्॥
अनुवाद:
"आपने सोम और सूर्य वंश का विस्तारपूर्वक वर्णन किया और उनके राजाओं की अद्भुत कथाएँ भी बताईं।"
श्लोक 2
यदोश्च धर्मशीलस्य नितरां मुनिसत्तम।
तत्रांशेन अवतीर्णस्य विष्णोर्वीर्याणि शंस नः॥
अनुवाद:
"हे मुनिसत्तम! धर्मशील यदु के वंश में अंशावतार विष्णु के पराक्रम और लीलाओं का वर्णन करें।"
श्लोक 3
अवतीर्य यदोर्वंशे भगवान् भूतभावनः।
कृतवान् यानि विश्वात्मा तानि नो वद विस्तरात्॥
अनुवाद:
"भगवान भूतभावन ने यदु वंश में अवतार लेकर जो कार्य किए, उनकी विस्तृत कथा सुनाइए।"
श्लोक 4
निवृत्ततर्षैः उपगीयमानाद्
भवौषधात् श्रोत्रमनोऽभिरामात्।
क उत्तमश्लोकगुणानुवादात्
पुमान् विरज्येत विना पशुघ्नात्॥
अनुवाद:
"जो लोग सांसारिक तृष्णा से मुक्त हो चुके हैं, वे भगवान की गुणकथाओं का गान करते हैं, जो भव रोग का औषध है। ऐसी हरिकथा को सुनने से कौन विमुख रह सकता है, सिवाय उन लोगों के, जो पशुओं के वध में रत हैं?"
श्लोक 5
पितामहा मे समरेऽमरञ्जयैः
देवव्रताद्यातिरथैस्तिमिङ्गिलैः।
दुरत्ययं कौरवसैन्यसागरं
कृत्वातरन् वत्सपदं स्म यत्प्लवाः॥
अनुवाद:
"मेरे पितामह पांडवों ने महाभारत के युद्ध में अमर विजयी महायोद्धाओं द्वारा बनाए गए कौरवों के सागर जैसे सेना को, श्रीकृष्ण की कृपा से, वत्स के पैरों के चिन्ह के समान सरलता से पार कर लिया।"
श्लोक 6
द्रौण्यस्त्रविप्लुष्टमिदं मदङ्गं
सन्तानबीजं कुरुपाण्डवानाम्।
जुगोप कुक्षिं गत आत्तचक्रो
मातुश्च मे यः शरणं गतायाः॥
अनुवाद:
"अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से जलने वाले मेरे शरीर को, जो पांडवों और कौरवों की संतान का बीज था, भगवान कृष्ण ने चक्र से रक्षा की।"
श्लोक 7
वीर्याणि तस्याखिलदेहभाजां
अन्तर्बहिः पूरुषकालरूपैः।
प्रयच्छतो मृत्युमुतामृतं च
मायामनुष्यस्य वदस्व विद्वन्॥
अनुवाद:
"हे विद्वान्! उस भगवान के वे पराक्रम बताइए, जो सभी प्राणियों को भीतर और बाहर, पुरुष और काल रूप में मृत्यु और अमृत प्रदान करते हैं।"
श्लोक 8
रोहिण्यास्तनयः प्रोक्तो रामः संकर्षणस्त्वया।
देवक्या गर्भसंबंधः कुतो देहान्तरं विना॥
अनुवाद:
"आपने कहा कि रोहिणी के पुत्र बलराम संकर्षण कहलाते हैं। तो फिर बलराम और देवकी के गर्भ का क्या संबंध है?"
श्लोक 9
कस्मात् मुकुन्दो भगवान् पितुर्गेहाद् व्रजं गतः।
क्व वासं ज्ञातिभिः सार्धं कृतवान् सात्वतां पतिः॥
अनुवाद:
"भगवान मुकुंद अपने पिता के घर से व्रज क्यों गए? सात्वतों के स्वामी श्रीकृष्ण ने वहाँ अपने कुटुंबियों के साथ कहाँ निवास किया?"
श्लोक 10
व्रजे वसन् किं अकरोत् मधुपुर्यां च केशवः।
भ्रातरं चावधीत् कंसं मातुः अद्धा अतदर्हणम्॥
अनुवाद:
"व्रज में रहते हुए श्रीकृष्ण ने क्या किया? और मधुपुरी में केशव ने कंस को कैसे मारा, जो उनकी माता का अनादर कर रहा था?"
श्लोक 11
देहं मानुषमाश्रित्य कति वर्षाणि वृष्णिभिः।
यदुपुर्यां सहावात्सीत् पत्न्यः कत्यभवन् प्रभोः॥
अनुवाद:
"मानव रूप में श्रीकृष्ण ने यदुपुरी में वृष्णियों के साथ कितने वर्ष बिताए? और प्रभु की कितनी पत्नियाँ थीं?"
श्लोक 12
एतत् अन्यच्च सर्वं मे मुने कृष्णविचेष्टितम्।
वक्तुमर्हसि सर्वज्ञ श्रद्दधानाय विस्तृतम्॥
अनुवाद:
"हे मुनि! कृपया श्रीकृष्ण की इन सभी लीलाओं का विस्तृत वर्णन कीजिए। मैं श्रद्धा सहित सुनने के लिए उत्सुक हूँ।"
श्लोक 13
नैषातिदुःसहा क्षुन्मां त्यक्तोदं अपि बाधते।
पिबन्तं त्वन्मुखाम्भोज अच्युतं हरिकथामृतम्॥
अनुवाद:
"हे ऋषि! मेरी प्यास ऐसी है जिसे कोई अन्य बात शांत नहीं कर सकती। जब मैं आपके मुखारविंद से भगवान अच्युत की हरिकथा अमृत का पान करता हूँ, तब भी मेरी तृष्णा नहीं मिटती।"
श्लोक 14
सूत उवाच
एवं निशम्य भृगुनन्दन साधुवादं
वैयासकिः स भगवान् अथ विष्णुरातम्।
प्रत्यर्च्य कृष्णचरितं कलिकल्मषघ्नं
व्याहर्तुमारभत भागवतप्रधानः॥
अनुवाद:
"सूतजी कहते हैं: इस प्रकार राजा परीक्षित की साधुवाणी सुनकर, भृगुनंदन (श्री शुकदेव जी), जो भागवत शास्त्र के सर्वोत्तम ज्ञाता हैं, उन्होंने राजा को भगवान श्रीकृष्ण की कथा सुनानी शुरू की, जो कलियुग के पापों को नष्ट करती है।"
श्लोक 15
श्रीशुक उवाच
सम्यग्व्यवसिता बुद्धिः तव राजर्षिसत्तम।
वासुदेवकथायां ते यज्जाता नैष्ठिकी रतिः॥
अनुवाद:
"श्री शुकदेव जी कहते हैं: हे राजर्षि श्रेष्ठ! आपकी बुद्धि बहुत अच्छी तरह स्थित है, क्योंकि आपको भगवान वासुदेव की कथाओं में गहरी और स्थायी रुचि प्राप्त हो गई है।"
श्लोक 16
वासुदेवकथाप्रश्नः पुरुषान् त्रीन् पुनाति हि।
वक्तारं पृच्छकं श्रोतॄन् तत्पादसलिलं यथा॥
अनुवाद:
"भगवान वासुदेव की कथा के प्रश्न से तीनों को पवित्रता प्राप्त होती है—कथा सुनाने वाला, प्रश्न पूछने वाला और उसे सुनने वाला, जैसे भगवान के चरणोदक से संसार शुद्ध हो जाता है।"
श्लोक 17
भूमिः दृप्तनृपव्याज दैत्यानीकशतायुतैः।
आक्रान्ता भूरिभारेण ब्रह्माणं शरणं ययौ॥
अनुवाद:
"जब पृथ्वी अनेक अभिमानी राजाओं और दैत्यों की विशाल सेनाओं के भार से आक्रांत हो गई, तो वह ब्रह्मा जी की शरण में गई।"
श्लोक 18
गौर्भूत्वा अश्रुमुखी खिन्ना क्रन्दन्ती करुणं विभोः।
उपस्थितान्तिके तस्मै व्यसनं स्वं अवोचत॥
अनुवाद:
"पृथ्वी ने गौ के रूप में, अश्रुपूर्ण और दुःखी मुख के साथ, भगवान ब्रह्मा के पास जाकर अपनी विपत्ति सुनाई।"
श्लोक 19
ब्रह्मा तद् उपधार्याथ सह देवैस्तया सह।
जगाम स-त्रिनयनः तीरं क्षीरपयोनिधेः॥
अनुवाद:
"ब्रह्मा ने पृथ्वी की बात सुनने के बाद, देवताओं और पृथ्वी के साथ क्षीरसागर के तट पर भगवान विष्णु की शरण में जाने का निर्णय लिया।"
श्लोक 20
तत्र गत्वा जगन्नाथं देवदेवं वृषाकपिम्।
पुरुषं पुरुषसूक्तेन उपतस्थे समाहितः॥
अनुवाद:
"क्षीरसागर के तट पर पहुँचकर, ब्रह्मा ने देवताओं के साथ भगवान विष्णु की स्तुति पुरुषसूक्त से की।"
श्लोक 21
गिरं समाधौ गगने समीरितां
निशम्य वेधास्त्रिदशानुवाच ह।
गां पौरुषीं मे श्रृणुतामराः पुनः
विधीयतां आशु तथैव मा चिरम्॥
अनुवाद:
"ब्रह्मा ने ध्यानस्थ होकर आकाश में गूँजती हुई दिव्य वाणी को सुना, जो भगवान विष्णु ने की थी। ब्रह्मा ने देवताओं को वह वाणी सुनाई और उन्हें शीघ्र कार्यान्वित करने का निर्देश दिया।"
श्लोक 22
पुरैव पुंसा अवधृतो धराज्वरो
भवद्भिः अंशैः यदुषूपजन्यताम्।
स यावद् उर्व्या भरं इश्वरेश्वरः
स्वकालशक्त्या क्षपयन् चरेद् भुवि॥
अनुवाद:
"भगवान ने कहा: पहले ही तय कर लिया गया है कि पृथ्वी का भार उतारने के लिए आप सब यदु वंश में जन्म लें। मैं स्वयं अपनी कालशक्ति से पृथ्वी को भारमुक्त करने के लिए प्रकट होऊँगा।"
श्लोक 23
वासुदेवगृहे साक्षाद् भगवान् पुरुषः परः।
जनिष्यते तत्प्रियार्थं संभवन्तु सुरस्त्रियः॥
अनुवाद:
"भगवान ने कहा: मैं वासुदेव के घर में स्वयं प्रकट होऊँगा। आप देवताओं की पत्नियाँ भी मानव रूप में जन्म लें।"
श्लोक 24
वासुदेवकलानन्तः सहस्रवदनः स्वराट्।
अग्रतो भविता देवो हरेः प्रियचिकीर्षया॥
अनुवाद:
"भगवान विष्णु के अनंत शक्ति-संपन्न सहस्र मुख वाले स्वराट रूप में, देवताओं के लिए प्रिय कार्य करने के उद्देश्य से अग्रसर होंगे।"
श्लोक 25
विष्णोर्माया भगवती यया सम्मोहितं जगत्।
आदिष्टा प्रभुणांशेन कार्यार्थे संभविष्यति॥
अनुवाद:
"विष्णु की वह मायाशक्ति, जो पूरे संसार को मोहित करती है, अपने कार्य के लिए भगवान के आदेश से अवतार लेगी।"
श्लोक 26
श्रीशुक उवाच
इत्यादिश्यामरगणान् प्रजापतिपतिः विभुः।
आश्वास्य च महीं गीर्भिः स्वधाम परमं ययौ॥
अनुवाद:
"श्री शुकदेव जी ने कहा: इस प्रकार, प्रजापतियों के स्वामी ब्रह्मा ने देवताओं को आदेश दिया और पृथ्वी को सांत्वना देकर अपने परमधाम लौट गए।"
श्लोक 27
शूरसेनो यदुपतिः मथुरां आवसन् पुरीम्।
माथुरान् शूरसेनांश्च विषयान् बुभुजे पुरा॥
अनुवाद:
"शूरसेन, जो यदु वंश के प्रमुख थे, मथुरा नगरी में निवास करते थे और मथुरा सहित शूरसेन प्रदेश का शासन करते थे।"
श्लोक 28
राजधानी ततः साभूत् सर्वयादव भूभुजाम्।
मथुरा भगवान् यत्र नित्यं सन्निहितो हरिः॥
अनुवाद:
"मथुरा सभी यादवों की राजधानी बन गई। यह वह स्थान है जहाँ भगवान हरि सदा निवास करते हैं।"
श्लोक 29
तस्यां तु कर्हिचित् शौरिः वसुदेवः कृतोद्वहः।
देवक्या सूर्यया सार्धं प्रयाणे रथमारुहत्॥
अनुवाद:
"मथुरा में, वसुदेव ने विवाह किया। देवकी के साथ विवाह के बाद, वे रथ पर सवार होकर विदा हुए।"
श्लोक 30
उग्रसेनसुतः कंसः स्वसुः प्रियचिकीर्षया।
रश्मीन् हयानां जग्राह रौक्मै रथशतैर्वृतः॥
अनुवाद:
"देवकी का भाई कंस, अपनी बहन को प्रसन्न करने के लिए, रथ के घोड़ों की लगाम पकड़कर स्वयं रथ चला रहा था। उसके पीछे सुनहरे रथों की लंबी कतार थी।"
श्लोक 31-32
चतुःशतं पारिबर्हं गजानां हेममालिनाम्।
अश्वानां अयुतं सार्धं रथानां च त्रिषट्शतम्॥
दासीनां सुकुमारीणां द्वे शते समलंकृते।
दुहित्रे देवकः प्रादात् याने दुहितृवत्सलः॥
अनुवाद:
"देवकी के पिता देवक ने अपनी पुत्री को 400 स्वर्ण मालाओं से सजे हाथी, 10,000 से अधिक घोड़े, 360 रथ और 200 सजी-धजी दासियाँ उपहार में दीं।"
श्लोक 33
शंखतूर्यमृदंगाश्च नेदुः दुन्दुभयः समम्।
प्रयाणप्रक्रमे तावत् वरवध्वोः सुमंगलम्॥
अनुवाद:
"देवकी और वसुदेव के प्रस्थान के समय, शंख, मृदंग, तूर्य और दुंदुभियों की मंगलध्वनि से वातावरण गूँज उठा।"
श्लोक 34
पथि प्रग्रहिणं कंसं आभाष्य आह अशरीरवाक्।
अस्यास्त्वां अष्टमो गर्भो हन्ता यां वहसे अबुध॥
अनुवाद:
"रास्ते में, आकाशवाणी हुई जिसने कंस को संबोधित करते हुए कहा: 'अरे मूर्ख! इस (देवकी) का आठवाँ गर्भ तुम्हारी मृत्यु का कारण बनेगा।'"
श्लोक 35
इत्युक्तः स खलः पापो भोजानां कुलपांसनः।
भगिनीं हन्तुमारब्धः खड्गपाणिः कचेऽग्रहीत्॥
अनुवाद:
"यह सुनकर, दुष्ट और पापी कंस, जो भोज वंश के कलंक था, अपनी बहन को मारने के लिए तलवार लेकर उसके बाल पकड़ने के लिए आगे बढ़ा।"
श्लोक 36
तं जुगुप्सितकर्माणं नृशंसं निरपत्रपम्।
वसुदेवो महाभाग उवाच परिसान्त्वयन्॥
अनुवाद:
"जब वसुदेव ने कंस को अपनी बहन देवकी के साथ निर्दयता और निर्लज्जता से व्यवहार करते देखा, तो उन्होंने उसे सांत्वना देते हुए समझाना शुरू किया।"
श्लोक 37
वसुदेव उवाच
श्लाघनीयगुणः शूरैः भवान् भोज-यशस्करः।
स कथं भगिनीं हन्यात् स्त्रियं उद्वाहपर्वणि॥
अनुवाद:
"वसुदेव ने कहा: 'हे कंस! आप अपने गुणों और शौर्य के कारण प्रशंसा के पात्र हैं। ऐसे में, आप कैसे अपनी ही बहन को, वह भी विवाह जैसे शुभ अवसर पर, मार सकते हैं?'"
श्लोक 38
मृत्युर्जन्मवतां वीर देहेन सह जायते।
अद्य वाब्दशतान्ते वा मृत्युर्वै प्राणिनां ध्रुवः॥
अनुवाद:
"हे वीर! जो जन्म लेता है, उसकी मृत्यु निश्चित है। चाहे आज हो या सौ वर्षों बाद, मृत्यु से कोई नहीं बच सकता।"
श्लोक 39
देहे पञ्चत्वमापन्ने देही कर्मानुगोऽवशः।
देहान्तरं अनुप्राप्य प्राक्तनं त्यजते वपुः॥
अनुवाद:
"जब शरीर पंचतत्व में विलीन हो जाता है, तब आत्मा अपने कर्मों के अनुसार नए शरीर को प्राप्त करती है और पुराने शरीर को त्याग देती है।"
श्लोक 40
व्रजन् तिष्ठन् पदैकेन यथैवैकेन गच्छति।
यथा तृणजलूकैवं देही कर्मगतिं गतः॥
अनुवाद:
"जिस प्रकार टिड्डा (जलूक) एक स्थान से दूसरे स्थान पर धीरे-धीरे बढ़ता है, उसी प्रकार जीवात्मा भी कर्म के आधार पर नए शरीर की ओर बढ़ती है।"
श्लोक 41
स्वप्ने यथा पश्यति देहमीदृशं
मनोरथेन अभिनिविष्टचेतनः।
दृष्टश्रुताभ्यां मनसानुचिन्तयन्
प्रपद्यते तत् किमपि ह्यपस्मृतिः॥
अनुवाद:
"जैसे स्वप्न में व्यक्ति अपने इच्छानुसार शरीर देखता है, वैसे ही जीवात्मा अपने कर्मों और विचारों के अनुसार नए शरीर को धारण करती है, लेकिन वह अपने पिछले जन्म को भूल जाती है।"
श्लोक 42
यतो यतो धावति दैवचोदितं
मनो विकारात्मकमाप पञ्चसु।
गुणेषु मायारचितेषु देह्यसौ
प्रपद्यमानः सह तेन जायते॥
अनुवाद:
"दैव (भगवान) के निर्देश से मन, जो विकारयुक्त होता है, मायाजनित गुणों में उलझकर पांचों इंद्रियों के साथ नए शरीर को प्राप्त करता है।"
श्लोक 43
ज्योतिर्यथैव उदकपार्थिवेष्वदः
समीरवेगानुगतं विभाव्यते।
एवं स्वमायारचितेष्वसौ पुमान्
गुणेषु रागानुगतो विमुह्यति॥
अनुवाद:
"जैसे ज्योति (रोशनी) वायु के वेग से जल, पृथ्वी आदि में विभिन्न रूपों में दिखाई देती है, वैसे ही आत्मा माया द्वारा रचित गुणों में फँसकर मोहित हो जाती है।"
श्लोक 44
तस्मात् न कस्यचिद् द्रोहं आचरेत् स तथाविधः।
आत्मनः क्षेममन्विच्छन् द्रोग्धुर्वै परतो भयम्॥
अनुवाद:
"इसलिए किसी के प्रति द्रोह या द्वेष नहीं करना चाहिए। जो ऐसा करता है, उसे दूसरों के साथ-साथ स्वयं के लिए भी भय का सामना करना पड़ता है।"
श्लोक 45
एषा तव अनुजा बाला कृपणा पुत्रिकोपमा।
हन्तुं नार्हसि कल्याणीं इमां त्वं दीनवत्सलः॥
अनुवाद:
"यह तुम्हारी छोटी बहन है, जो पुत्री के समान मासूम और कृपण है। हे दीनों के रक्षक! इसे मारने का पाप मत करो।"
श्लोक 46
श्रीशुक उवाच
एवं स सामभिर्भेदैः बोध्यमानोऽपि दारुणः।
न न्यवर्तत कौरव्य पुरुषादान् अनुव्रतः॥
अनुवाद:
"श्री शुकदेव जी कहते हैं: हे कौरव्य! वसुदेव द्वारा बार-बार सांत्वना और समझाने पर भी वह निर्दयी और निष्ठुर कंस अपनी नृशंसता से पीछे नहीं हटा।"
श्लोक 47
निर्बन्धं तस्य तं ज्ञात्वा विचिन्त्यानकदुन्दुभिः।
प्राप्तं कालं प्रतिव्योढुं इदं तत्रान्वपद्यत्॥
अनुवाद:
"वसुदेव ने कंस के इस अटल निर्णय को देखकर और समय की परिस्थिति को समझते हुए, एक उपाय पर विचार किया।"
श्लोक 48
मृत्युर्बुद्धिमतापोह्यो यावद्बुद्धिबलोदयम्।
यद्यसौ न निवर्तेत नापराधोऽस्ति देहिनः॥
अनुवाद:
"मृत्यु का सामना बुद्धिमानी से तब तक टाला जा सकता है, जब तक बुद्धि और शक्ति का विकास न हो। यदि मृत्यु अटल है, तो उसमें किसी का दोष नहीं होता।"
श्लोक 49
प्रदाय मृत्यवे पुत्रान् मोचये कृपणां इमाम्।
सुता मे यदि जायेरन् मृत्युर्वा न म्रियेत चेत्॥
अनुवाद:
"मैं अपने पुत्रों को कंस को सौंप दूँगा ताकि इस निर्दोष देवकी को बचा सकूँ। यदि मेरे पुत्र जीवित रहेंगे, तो यह अच्छा है, और यदि मृत्यु होगी, तो वह निश्चित है।"
श्लोक 50
विपर्ययो वा किं न स्याद् गतिर्धातुः दुरत्यया।
उपस्थितो निवर्तेत निवृत्तः पुनरापतेत॥
अनुवाद:
"धर्म की गति (नियम) अपरिवर्तनीय है। जो घटना निश्चित है, वह कभी-कभी टल सकती है, लेकिन फिर भी वह अंततः घटित होगी।"
श्लोक 51
अग्नेर्यथा दारुवियोगयोगयोः
अदृष्टतोऽन्यन्न निमित्तमस्ति।
एवं हि जन्तोरपि दुर्विभाव्यः
शरीर संयोगवियोगहेतुः॥
अनुवाद:
"जिस प्रकार लकड़ी और आग के मिलन या अलग होने का कोई अन्य कारण नहीं होता, उसी प्रकार जीव के शरीर के संयोग और वियोग का कारण भी समझना कठिन है।"
श्लोक 52
एवं विमृश्य तं पापं यावद् आत्मनिदर्शनम्।
पूजयामास वै शौरिः बहुमानपुरःसरम्॥
अनुवाद:
"इस प्रकार सोच-विचार कर वसुदेव ने, अपने विवेक के अनुसार, उस पापी कंस का सम्मानपूर्वक अभिनंदन किया।"
श्लोक 53
प्रसन्न वदनाम्भोजो नृशंसं निरपत्रपम्।
मनसा दूयमानेन विहसन् इदमब्रवीत्॥
अनुवाद:
"यद्यपि वसुदेव का मन भीतर-ही-भीतर पीड़ा से भर गया था, फिर भी उन्होंने शांत और प्रसन्न मुख से उस नृशंस और निर्लज्ज कंस को संबोधित किया।"
श्लोक 54
वसुदेव उवाच
न ह्यस्यास्ते भयं सौम्य यद् वाक् आहाशरीरिणी।
पुत्रान् समर्पयिष्येऽस्या यतस्ते भयमुत्थितम्॥
अनुवाद:
"वसुदेव ने कहा: 'हे कंस! आकाशवाणी ने जो कहा है, उसमें कोई संदेह नहीं है। मैं तुम्हें उन पुत्रों को सौंप दूँगा जिनसे तुम्हें भय है।'"
श्लोक 55
श्रीशुक उवाच
स्वसुर्वधात् निववृते कंसः तद्वाक्यसारवित्।
वसुदेवोऽपि तं प्रीतः प्रशस्य प्राविशद् गृहम्॥
अनुवाद:
"श्री शुकदेव जी कहते हैं: वसुदेव की इस बात का सम्मान कर कंस ने अपनी बहन को मारने का विचार त्याग दिया। वसुदेव ने भी कंस की प्रशंसा करते हुए अपने घर लौटने का निर्णय लिया।"
श्लोक 56
अथ काल उपावृत्ते देवकी सर्वदेवता।
पुत्रान् प्रसुषुवे चाष्टौ कन्यां चैवानुवत्सरम्॥
अनुवाद:
"समय के साथ, देवकी ने आठ पुत्रों और एक कन्या को जन्म दिया।"
श्लोक 57
कीर्तिमन्तं प्रथमजं कंसायानकदुन्दुभिः।
अर्पयामास कृच्छ्रेण सोऽनृताद् अतिविह्वलः॥
अनुवाद:
"देवकी और वसुदेव के पहले पुत्र, कीर्तिमान, को वसुदेव ने बड़ी कठिनाई से कंस को सौंप दिया, क्योंकि वचन का पालन करना उनके लिए अति आवश्यक था।"
श्लोक 58
किं दुःसहं नु साधूनां विदुषां किं अपेक्षितम्।
किं अकार्यं कदर्याणां दुस्त्यजं किं धृतात्मनाम्॥
अनुवाद:
"क्या ऐसा कुछ है जो सज्जन सहन नहीं कर सकते? क्या ऐसा कुछ है जिसकी विद्वानों को आवश्यकता हो? क्या ऐसा कुछ है जो कंजूस नहीं कर सकता या ऐसा कुछ जिसे आत्मसंयमी त्याग नहीं सकता?"
श्लोक 59
दृष्ट्वा समत्वं तत् शौरेः सत्ये चैव व्यवस्थितिम्।
कंसस्तुष्टमना राजन् प्रहसन् इदमब्रवीत्॥
अनुवाद:
"राजन! जब कंस ने वसुदेव की समानता और सत्य के प्रति उनकी दृढ़ता को देखा, तो वह प्रसन्न हुआ और हँसते हुए बोला।"
श्लोक 60
प्रतियातु कुमारोऽयं न ह्यस्मादस्ति मे भयम्।
अष्टमाद् युवयोर्गर्भान् मृत्युर्मे विहितः किल॥
अनुवाद:
"कंस ने कहा: 'यह बालक मेरे लिए कोई भय नहीं है। मुझे तो केवल तुम्हारे आठवें गर्भ से जन्मे पुत्र से भय है।'"
श्लोक 61
तथेति सुतमादाय ययौ आनकदुन्दुभिः।
नाभ्यनन्दत तद्वाक्यं असतोऽविजितात्मनः॥
अनुवाद:
"वसुदेव ने कहा 'तथास्तु' और अपने पुत्र को वापस ले लिया। लेकिन वसुदेव को कंस की इस बात पर भरोसा नहीं था, क्योंकि कंस स्वभाव से पापी और अनियंत्रित था।"
श्लोक 62
नन्दाद्या ये व्रजे गोपा याश्चामीषां च योषितः।
वृष्णयो वसुदेवाद्या देवक्याद्या यदुस्त्रियः॥
अनुवाद:
"गोप समुदाय के नंद बाबा, वृष्णि वंश के वसुदेव, देवकी और यदु वंश की अन्य महिलाएँ इस कथा के प्रमुख पात्र बने।"
श्लोक 63
सर्वे वै देवताप्राया उभयोरपि भारत।
ज्ञातयो बन्धुसुहृदो ये च कंसं अनुव्रताः॥
अनुवाद:
"हे भारत! ये सभी, चाहे वे वृष्णि वंश के हों या गोप समुदाय के, दिव्यगुणों से युक्त थे। यहाँ तक कि कंस के अनुयायी भी उनके बंधु और मित्र थे।"
श्लोक 64
एतत् कंसाय भगवान् शशंसाभ्येत्य नारदः।
भूमेर्भारायमाणानां दैत्यानां च वधोद्यमम्॥
अनुवाद:
"नारद मुनि ने कंस को बताया कि भगवान विष्णु स्वयं पृथ्वी का भार उतारने के लिए अवतरित हो रहे हैं और दैत्यों के वध की योजना बना रहे हैं।"
श्लोक 65
ऋषेः विनिर्गमे कंसो यदून् मत्वा सुरान् इति।
देवक्या गर्भसंभूतं विष्णुं च स्ववधं प्रति॥
अनुवाद:
"नारद मुनि के जाने के बाद, कंस ने यादवों को देवता मानते हुए देवकी के गर्भ में पल रहे विष्णु को अपनी मृत्यु का कारण समझ लिया।"
श्लोक 66
देवकीं वसुदेवं च निगृह्य निगडैर्गृहे।
जातं जातं अहन् पुत्रं तयोः अजनशंकया॥
अनुवाद:
"कंस ने देवकी और वसुदेव को कारागार में डाल दिया और उनके हर नवजात शिशु को यह सोचकर मार डाला कि वह विष्णु हो सकता है।"
श्लोक 67
मातरं पितरं भ्रातॄन् सर्वांश्च सुहृदस्तथा।
घ्नन्ति ह्यसुतृपो लुब्धा राजानः प्रायशो भुवि॥
अनुवाद:
"लोभी और निर्दयी राजाओं की तरह, कंस ने न केवल अपने परिवार के सदस्यों बल्कि अन्य निर्दोषों को भी मारा।"
श्लोक 68
आत्मानं इह सञ्जातं जानन् प्राग् विष्णुना हतम्।
महासुरं कालनेमिं यदुभिः स व्यरुध्यत॥
अनुवाद:
"कंस को विश्वास था कि वह कालनेमि दैत्य का पुनर्जन्म है, जिसे विष्णु ने मारा था। वह यादवों के साथ शत्रुता करने लगा।"
श्लोक 69
उग्रसेनं च पितरं यदुभोजान्धकाधिपम्।
स्वयं निगृह्य बुभुजे शूरसेनान् महाबलः॥
अनुवाद:
"कंस ने अपने पिता उग्रसेन को कैद कर लिया और यदु, भोज, अंधक और शूरसेन राज्यों का स्वामित्व स्वयं संभाल लिया।"
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे प्रथमोध्यायः समाप्तः॥
"इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण के पारमहंस संहिता में, दशम स्कंध के पूर्वार्ध में, प्रथम अध्याय समाप्त होता है।"
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