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भागवत द्वादश स्कन्ध, प्रथम अध्याय(हिन्दी अनुवाद)

Here is the image depicting the sages and kings from the Bhagavata Purana, capturing the serene and divine atmosphere of King Parikshit list...

भागवत सप्तम स्कन्ध, प्रथम अध्याय(हिन्दी अनुवाद)

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भागवत सप्तम स्कन्ध, प्रथम अध्याय(हिन्दी अनुवाद)।यहाँ भागवत सप्तम स्कन्ध, प्रथम अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के सभी श्लोकों का क्रमवार, स्पष्ट और अलग-अलग.....

भागवत सप्तम स्कन्ध, प्रथम अध्याय(हिन्दी अनुवाद)

यह चित्र हिरण्यकशिपु और प्रह्लाद की कथा को दर्शाता है। इसमें भगवान नरसिंह, प्रह्लाद की रक्षा के लिए प्रकट होते हुए दिखाए गए हैं। 



भागवत सप्तम स्कन्ध, प्रथम अध्याय(हिन्दी अनुवाद)

 यहाँ भागवत सप्तम स्कन्ध, प्रथम अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के सभी श्लोकों का क्रमवार, स्पष्ट और अलग-अलग हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत है:


श्रीराजोवाच (राजा युधिष्ठिर का प्रश्न)

श्लोक 1

समः प्रियः सुहृद्ब्रह्मन्भूतानां भगवान्स्वयम्।
इन्द्र स्यार्थे कथं दैत्यानवधीद्विषमो यथा॥
अनुवाद:
"हे ब्रह्मन्! भगवान, जो समभाव, प्रिय और सभी जीवों के सच्चे मित्र हैं, ने इंद्र के उद्देश्य से असुरों का वध क्यों किया? क्या यह पक्षपातपूर्ण नहीं है?"


श्लोक 2

न ह्यस्यार्थः सुरगणैः साक्षान्निःश्रेयसात्मनः।
नैवासुरेभ्यो विद्वेषो नोद्वेगश्चागुणस्य हि॥
अनुवाद:
"भगवान, जो आत्मा का सर्वोच्च कल्याण करने वाले हैं, का सुरों से कोई स्वार्थ नहीं है और असुरों से कोई द्वेष भी नहीं है। वे सभी गुणों से परे हैं, फिर उन्होंने ऐसा क्यों किया?"


श्लोक 3

इति नः सुमहाभाग नारायणगुणान्प्रति।
संशयः सुमहान्जातस्तद्भवांश्छेत्तुमर्हति॥
अनुवाद:
"हे महाभाग! भगवान नारायण के गुणों के बारे में यह हमारा बड़ा संशय है। कृपया इसे दूर करें।"


श्रीऋषिरुवाच (ऋषि नारद का उत्तर)

श्लोक 4

साधु पृष्टं महाराज हरेश्चरितमद्भुतम्।
यद्भागवतमाहात्म्यं भगवद्भक्तिवर्धनम्॥
अनुवाद:
"हे महाराज! आपने भगवान हरि के अद्भुत चरित्र के बारे में उत्तम प्रश्न पूछा है। यह कथा भगवद्भक्त को बढ़ाने वाली है।"


श्लोक 5

गीयते परमं पुण्यमृषिभिर्नारदादिभिः।
नत्वा कृष्णाय मुनये कथयिष्ये हरेः कथाम्॥
अनुवाद:
"यह कथा नारद आदि ऋषियों द्वारा गाई जाती है। भगवान कृष्ण को नमस्कार करके मैं हरि की यह कथा सुनाता हूँ।"


श्लोक 6

निर्गुणोऽपि ह्यजोऽव्यक्तो भगवान्प्रकृतेः परः।
स्वमायागुणमाविश्य बाध्यबाधकतां गतः॥
अनुवाद:
"भगवान निर्गुण, अजन्मा, और अप्रकट हैं। वे प्रकृति से परे हैं, लेकिन अपनी माया के गुणों में प्रविष्ट होकर संसार के बंधन और मुक्ति के कारण बनते हैं।"


श्लोक 7

सत्त्वं रजस्तम इति प्रकृतेर्नात्मनो गुणाः।
न तेषां युगपद्राजन्ह्रास उल्लास एव वा॥
अनुवाद:
"सत्त्व, रज, और तम प्रकृति के गुण हैं, भगवान के नहीं। ये गुण कभी एक साथ नहीं बढ़ते या घटते।"


श्लोक 8

जयकाले तु सत्त्वस्य देवर्षीन्रजसोऽसुरान्।
तमसो यक्षरक्षांसि तत्कालानुगुणोऽभजत्॥
अनुवाद:
"सृष्टि के समय भगवान सत्त्वगुण के कारण देवताओं को, रजोगुण के कारण असुरों को, और तमोगुण के कारण यक्षों व राक्षसों को प्रकट करते हैं।"


श्लोक 9

ज्योतिरादिरिवाभाति सङ्घातान्न विविच्यते।
विदन्त्यात्मानमात्मस्थं मथित्वा कवयोऽन्ततः॥
अनुवाद:
"जैसे प्रकाश अन्य वस्तुओं से भिन्न होते हुए भी उनमें व्याप्त रहता है, वैसे ही भगवान, कवियों द्वारा गहरे चिंतन के बाद, अपने आत्मिक स्वरूप में समझे जाते हैं।"


श्लोक 10

यदा सिसृक्षुः पुर आत्मनः परो।
रजः सृजत्येष पृथक्स्वमायया।
सत्त्वं विचित्रासु रिरंसुरीश्वरः।
शयिष्यमाणस्तम ईरयत्यसौ॥
अनुवाद:
"जब भगवान सृष्टि करना चाहते हैं, तो वे अपनी माया से रजोगुण को सक्रिय करते हैं। वे सत्त्वगुण के द्वारा सृष्टि को स्थिर और आकर्षक बनाते हैं, और तमोगुण के द्वारा इसे विश्राम की ओर ले जाते हैं।"


श्लोक 11

कालं चरन्तं सृजतीश आश्रयं।
प्रधानपुम्भ्यां नरदेव सत्यकृत्।
य एष राजन्नपि काल ईशिता।
सत्त्वं सुरानीकमिवैधयत्यतः॥
अनुवाद:
"भगवान, जो सत्यस्वरूप और सृष्टि के कारण हैं, समय को भी नियंत्रित करते हैं। वे सत्त्वगुण के द्वारा देवताओं को समर्थ बनाते हैं और रज-तम के कारण असुरों का नाश करते हैं।"


श्लोक 12

तत्प्रत्यनीकानसुरान्सुरप्रियो।
रजस्तमस्कान्प्रमिणोत्युरुश्रवाः॥
अनुवाद:
"भगवान, जो देवताओं के प्रिय हैं, रजोगुण और तमोगुण से युक्त असुरों का विनाश करते हैं।"


श्लोक 13

दृष्ट्वा महाद्भुतं राजा राजसूये महाक्रतौ।
वासुदेवे भगवति सायुज्यं चेदिभूभुजः॥
अनुवाद:
"राजसूय यज्ञ के समय, राजा ने यह अद्भुत घटना देखी कि वासुदेव भगवान के परम चरणों में उनके विरोधी शिशुपाल को सायुज्य (मोक्ष) प्राप्त हुआ।"


श्लोक 14

तत्रासीनं सुरऋषिं राजा पाण्डुसुतः क्रतौ।
पप्रच्छ विस्मितमना मुनीनां शृण्वतामिदम्॥
अनुवाद:
"वहाँ यज्ञ के समय उपस्थित ऋषियों के मध्य, पांडु के पुत्र राजा युधिष्ठिर ने, जो इस घटना से विस्मित थे, उपस्थित मुनियों की सभा में यह प्रश्न पूछा।"


श्रीयुधिष्ठिर का प्रश्न

श्लोक 15

अहो अत्यद्भुतं ह्येतद्दुर्लभैकान्तिनामपि।
वासुदेवे परे तत्त्वे प्राप्तिश्चैद्यस्य विद्विषः॥
अनुवाद:
"यह अत्यंत अद्भुत है कि वासुदेव, जो परम तत्त्व हैं और जिनकी प्राप्ति एकांत भक्ति से भी दुर्लभ है, उन्हें शिशुपाल जैसे द्वेषी ने प्राप्त कर लिया।"


श्लोक 16

एतद्वेदितुमिच्छामः सर्व एव वयं मुने।
भगवन्निन्दया वेनो द्विजैस्तमसि पातितः॥
अनुवाद:
"हे मुने! हम सभी यह जानना चाहते हैं कि भगवान की निंदा करने वाले शिशुपाल को मोक्ष कैसे प्राप्त हुआ, जबकि राजा वेन को द्विजों ने शाप देकर नरक में भेज दिया।"


श्लोक 17

दमघोषसुतः पाप आरभ्य कलभाषणात्।
सम्प्रत्यमर्षी गोविन्दे दन्तवक्रश्च दुर्मतिः॥
अनुवाद:
"दमघोष का पुत्र (शिशुपाल), जो भगवान गोविंद के प्रति घोर विरोधी था, और दंतवक्र, जिसने भगवान के प्रति अत्यधिक क्रोध और दुराग्रह रखा, फिर भी वे मोक्ष को प्राप्त हुए।"


श्लोक 18

शपतोरसकृद्विष्णुं यद्ब्रह्म परमव्ययम्।
श्वित्रो न जातो जिह्वायां नान्धं विविशतुस्तमः॥
अनुवाद:
"वे दोनों बार-बार भगवान विष्णु, जो परम ब्रह्म और अविनाशी हैं, को अपशब्द कहते थे। फिर भी, उनकी वाणी दोषयुक्त नहीं हुई और वे अज्ञान के अंधकार में नहीं गिरे।"


श्लोक 19

कथं तस्मिन्भगवति दुरवग्राह्यधामनि।
पश्यतां सर्वलोकानां लयमीयतुरञ्जसा॥
अनुवाद:
"कैसे उन दोनों ने भगवान, जो दुष्प्राप्त हैं, में अपनी लीनता प्राप्त की, जबकि उन्हें संसार के सभी लोग देख रहे थे?"


श्लोक 20

एतद्भ्राम्यति मे बुद्धिर्दीपार्चिरिव वायुना।
ब्रूह्येतदद्भुततमं भगवान्ह्यत्र कारणम्॥
अनुवाद:
"मेरी बुद्धि इस घटना को देखकर वायु से कांपते दीपक की लौ की भांति भ्रमित हो रही है। कृपया इस अद्भुत घटना का कारण बताइए।"


नारदजी का उत्तर

श्लोक 21

राज्ञस्तद्वच आकर्ण्य नारदो भगवानृषिः।
तुष्टः प्राह तमाभाष्य शृण्वत्यास्तत्सदः कथाः॥
अनुवाद:
"राजा युधिष्ठिर की बातें सुनकर, भगवान के प्रिय ऋषि नारदजी प्रसन्न हुए और उन्होंने सभा में सभी को सुनाते हुए उत्तर दिया।"


श्लोक 22

निन्दनस्तवसत्कार न्यक्कारार्थं कलेवरम्।
प्रधानपरयो राजन्नविवेकेन कल्पितम्॥
अनुवाद:
"हे राजन्! यह भौतिक शरीर, जो प्रशंसा और निंदा का पात्र बनता है, विवेक के अभाव में प्रकृति और आत्मा के संबंध से बना है।"


श्लोक 23

हिंसा तदभिमानेन दण्डपारुष्ययोर्यथा।
वैषम्यमिह भूतानां ममाहमिति पार्थिव॥
अनुवाद:
"अहंकार के कारण व्यक्ति दंड और कठोरता का व्यवहार करता है। यह 'मैं' और 'मेरा' का भाव ही भूतों के बीच भेदभाव और हिंसा का कारण बनता है।"


श्लोक 24

यन्निबद्धोऽभिमानोऽयं तद्वधात्प्राणिनां वधः।
तथा न यस्य कैवल्यादभिमानोऽखिलात्मनः॥
परस्य दमकर्तुर्हि हिंसा केनास्य कल्प्यते॥
अनुवाद:
"जिसका अहंकार बंधन का कारण बनता है, उसके वध से ही जीवन समाप्त होता है। लेकिन जो परम आत्मा है, उसमें अहंकार नहीं है। इसलिए उसके लिए हिंसा की कल्पना भी नहीं की जा सकती।"


श्लोक 25

तस्माद्वैरानुबन्धेन निर्वैरेण भयेन वा।
स्नेहात्कामेन वा युञ्ज्यात्कथञ्चिन्नेक्षते पृथक्॥
अनुवाद:
"इसलिए, द्वेष, बिना द्वेष के, भय, स्नेह, या कामना—किसी भी प्रकार से मनुष्य को भगवान से जोड़ लेना चाहिए। भगवान किसी भी प्रकार के भाव से जुड़े व्यक्ति को अलग नहीं देखते।"


श्लोक 26

यथा वैरानुबन्धेन मर्त्यस्तन्मयतामियात्।
न तथा भक्तियोगेन इति मे निश्चिता मतिः॥
अनुवाद:
"जैसे मनुष्य वैरभाव के द्वारा भी भगवान में लीन हो सकता है, वैसे भक्ति के योग से भी संभव है। मेरी दृढ़ मान्यता है कि भक्ति के माध्यम से भगवान को प्राप्त करना सर्वोत्तम है।"


श्लोक 27

कीटः पेशस्कृता रुद्धः कुड्यायां तमनुस्मरन्।
संरम्भभययोगेन विन्दते तत्स्वरूपताम्॥
अनुवाद:
"जैसे रेशम का कीड़ा अपने द्वारा बनाए गए खोल में कैद होकर, भय और ध्यान के प्रभाव से तितली का रूप धारण कर लेता है।"


श्लोक 28

एवं कृष्णे भगवति मायामनुज ईश्वरे।
वैरेण पूतपाप्मानस्तमापुरनुचिन्तया॥
अनुवाद:
"उसी प्रकार, भगवान कृष्ण, जो माया के स्वामी और मानव रूप में प्रकट हुए हैं, उनके वैर के माध्यम से भी, पापियों ने स्वयं को शुद्ध कर लिया और उन्हें प्राप्त कर लिया।"


श्लोक 29

कामाद्द्वेषाद्भयात्स्नेहाद्यथा भक्त्येश्वरे मनः।
आवेश्य तदघं हित्वा बहवस्तद्गतिं गताः॥
अनुवाद:
"प्रेम, द्वेष, भय, स्नेह, या भक्ति से भगवान के प्रति मन लगाकर, कई व्यक्तियों ने अपने पापों को त्याग दिया और भगवान की परम गति को प्राप्त किया।"


श्लोक 30

गोप्यः कामाद्भयात्कंसो द्वेषाच्चैद्यादयो नृपाः।
सम्बन्धाद्वृष्णयः स्नेहाद्यूयं भक्त्या वयं विभो॥
अनुवाद:
"गोपियों ने प्रेम से, कंस ने भय से, शिशुपाल ने द्वेष से, वृष्णियों ने संबंध से, और हम सभी ने भक्ति से भगवान को प्राप्त किया।"


श्लोक 31

कतमोऽपि न वेनः स्यात्पञ्चानां पुरुषं प्रति।
तस्मात्केनाप्युपायेन मनः कृष्णे निवेशयेत्॥
अनुवाद:
"पाँच प्रकार के किसी भी भाव से, चाहे वह प्रेम, द्वेष, भय, स्नेह, या भक्ति हो, भगवान से जुड़ा जा सकता है। इसलिए, किसी भी उपाय से मन को श्रीकृष्ण में लगाना चाहिए।"


श्लोक 32

मातृष्वस्रेयो वश्चैद्यो दन्तवक्रश्च पाण्डव।
पार्षदप्रवरौ विष्णोर्विप्रशापात्पदच्युतौ॥
अनुवाद:
"हे पांडव! तुम्हारे मामा शिशुपाल और दन्तवक्र, जो विष्णु के पार्षद थे, ब्राह्मण के शाप के कारण अपने दिव्य पद से गिर गए थे।"


श्लोक 33

श्रीयुधिष्ठिर उवाच
कीदृशः कस्य वा शापो हरिदासाभिमर्शनः।
अश्रद्धेय इवाभाति हरेरेकान्तिनां भवः॥
अनुवाद:
"शिशुपाल और दन्तवक्र जैसे विष्णु के पार्षदों को किसने और क्यों शाप दिया? यह असंभव-सा प्रतीत होता है कि भगवान के परम भक्तों को इस प्रकार जन्म-मृत्यु का अनुभव हो। कृपया इसे स्पष्ट करें।"


श्लोक 34

देहेन्द्रियासुहीनानां वैकुण्ठपुरवासिनाम्।
देहसम्बन्धसम्बद्धमेतदाख्यातुमर्हसि॥
अनुवाद:
"वैकुण्ठ के निवासी, जो देह और इंद्रियों से परे हैं, उनके लिए जन्म-मृत्यु और शारीरिक संबंध कैसे संभव हुआ? कृपया इस विषय पर प्रकाश डालें।"


श्लोक 35

श्रीनारद उवाच
एकदा ब्रह्मणः पुत्रा विष्णुलोकं यदृच्छया।
सनन्दनादयो जग्मुश्चरन्तो भुवनत्रयम्॥
अनुवाद:
"नारदजी बोले: एक बार ब्रह्माजी के पुत्र सनक, सनंदन, सनातन, और सनत्कुमार भगवान विष्णु के लोक में भ्रमण करते हुए पहुँचे।"


श्लोक 36

पञ्चषड्ढायनार्भाभाः पूर्वेषामपि पूर्वजाः।
दिग्वाससः शिशून्मत्वा द्वाःस्थौ तान्प्रत्यषेधताम्॥
अनुवाद:
"वे पाँच से छह वर्ष के बालकों के समान दिखते थे और बिना वस्त्रों के थे। द्वारपालों ने उन्हें शिशु मानकर अंदर जाने से रोक दिया।"


श्लोक 37

अशपन्कुपिता एवं युवां वासं न चार्हथः।
रजस्तमोभ्यां रहिते पादमूले मधुद्विषः॥
पापिष्ठामासुरीं योनिं बालिशौ यातमाश्वतः॥
अनुवाद:
"इससे क्रोधित होकर सनकादिकों ने कहा, 'तुम दोनों भगवान के पवित्र चरणों के पास रहने के योग्य नहीं हो। तुम असुरी योनियों में जन्म लो।'"


श्लोक 38

एवं शप्तौ स्वभवनात्पतन्तौ तौ कृपालुभिः।
प्रोक्तौ पुनर्जन्मभिर्वां त्रिभिर्लोकाय कल्पताम्॥
अनुवाद:
"इस प्रकार शापित होकर, वे दोनों (जय और विजय) अपने दिव्य लोक से गिर पड़े। लेकिन सनकादिकों ने दया करके कहा कि तीन जन्मों के बाद वे पुनः अपने पद को प्राप्त कर लेंगे।"


श्लोक 39

जज्ञाते तौ दितेः पुत्रौ दैत्यदानववन्दितौ।
हिरण्यकशिपुर्ज्येष्ठो हिरण्याक्षोऽनुजस्ततः॥
अनुवाद:
"पहले जन्म में वे दिति के पुत्र के रूप में जन्मे। बड़े का नाम हिरण्यकशिपु और छोटे का नाम हिरण्याक्ष रखा गया। वे दैत्य और दानवों के द्वारा पूजनीय बन गए।"


श्लोक 40

हतो हिरण्यकशिपुर्हरिणा सिंहरूपिणा।
हिरण्याक्षो धरोद्धारे बिभ्रता शौकरं वपुः॥
अनुवाद:
"हिरण्यकशिपु को भगवान ने नरसिंह रूप में मारा और हिरण्याक्ष का वध भगवान ने वराह रूप में पृथ्वी की रक्षा करते हुए किया।"


श्लोक 41

हिरण्यकशिपुः पुत्रं प्रह्लादं केशवप्रियम्।
जिघांसुरकरोन्नाना यातना मृत्युहेतवे॥
अनुवाद:
"हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र प्रह्लाद, जो भगवान केशव के प्रिय भक्त थे, को मारने के लिए अनेक प्रकार की यातनाएँ दीं।"


श्लोक 42

तं सर्वभूतात्मभूतं प्रशान्तं समदर्शनम्।
भगवत्तेजसा स्पृष्टं नाशक्नोद्धन्तुमुद्यमैः॥
अनुवाद:
"प्रह्लाद, जो सभी प्राणियों के आत्मस्वरूप थे और जिनका दृष्टिकोण सम था, भगवान की कृपा से सुरक्षित थे। हिरण्यकशिपु के सारे प्रयास विफल हो गए।"


श्लोक 43

ततस्तौ राक्षसौ जातौ केशिन्यां विश्रवःसुतौ।
रावणः कुम्भकर्णश्च सर्वलोकोपतापनौ॥
अनुवाद:
"दूसरे जन्म में वे राक्षस बने। वे विश्रवा की पत्नी केशिनी से रावण और कुम्भकर्ण के रूप में उत्पन्न हुए और समस्त संसार के लिए कष्ट का कारण बने।"


श्लोक 44

तत्रापि राघवो भूत्वा न्यहनच्छापमुक्तये।
रामवीर्यं श्रोष्यसि त्वं मार्कण्डेयमुखात्प्रभो॥
अनुवाद:
"उस जन्म में भगवान राम के रूप में अवतरित होकर, उन्होंने रावण और कुम्भकर्ण का वध किया। हे प्रभो! भगवान राम की वीरता की कथा आप मार्कण्डेय ऋषि से सुनेंगे।"


श्लोक 45

तावत्र क्षत्रियौ जातौ मातृष्वस्रात्मजौ तव।
अधुना शापनिर्मुक्तौ कृष्णचक्रहतांहसौ॥
अनुवाद:
"अब तीसरे जन्म में वे आपके मामा शिशुपाल और दन्तवक्र के रूप में उत्पन्न हुए। भगवान कृष्ण के चक्र से वध होकर वे अपने शाप से मुक्त हो गए।"


श्लोक 46

वैरानुबन्धतीव्रेण ध्यानेनाच्युतसात्मताम्।
नीतौ पुनर्हरेः पार्श्वं जग्मतुर्विष्णुपार्षदौ॥
अनुवाद:
"अपने वैर और घोर ध्यान के कारण वे भगवान अच्युत के साथ एकत्व को प्राप्त हुए और पुनः विष्णु के पार्षद बन गए।"


श्रीयुधिष्ठिर का अंतिम प्रश्न

श्लोक 47

विद्वेषो दयिते पुत्रे कथमासीन्महात्मनि।
ब्रूहि मे भगवन्येन प्रह्लादस्याच्युतात्मता॥
अनुवाद:
"हे भगवन! प्रह्लाद जैसे महान आत्मा में उनके पिता हिरण्यकशिपु को इतना द्वेष क्यों था? कृपया बताइए कि प्रह्लाद ने भगवान अच्युत का प्रिय बनकर कैसे यह स्थिति प्राप्त की।"


इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे प्रह्लादचरितोपक्रमे प्रथमोऽध्यायः॥

"इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण के सप्तम स्कंध में प्रह्लाद चरित्र का प्रथम अध्याय समाप्त होता है।"


यदि आप भागवत सप्तम स्कन्ध, प्रथम अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के किसी विशेष श्लोक की गहन व्याख्या चाहते हैं, तो कृपया कमेंट में बताएं। यहाँ भागवत सप्तम स्कन्ध, प्रथम अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के सभी श्लोकों का क्रमवार, स्पष्ट और अलग-अलग हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत किया गया है।

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भागवत दर्शन: भागवत सप्तम स्कन्ध, प्रथम अध्याय(हिन्दी अनुवाद)
भागवत सप्तम स्कन्ध, प्रथम अध्याय(हिन्दी अनुवाद)
भागवत सप्तम स्कन्ध, प्रथम अध्याय(हिन्दी अनुवाद)।यहाँ भागवत सप्तम स्कन्ध, प्रथम अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के सभी श्लोकों का क्रमवार, स्पष्ट और अलग-अलग.....
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