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यह चित्र अजामिल की कथा को दर्शाता है, जिसमें यमदूत और विष्णुदूतों के बीच आत्मा को लेकर संघर्ष है। |
भागवत षष्ठ स्कंध, प्रथम अध्याय (हिन्दी अनुवाद)
यहाँ भागवत षष्ठ स्कंध, प्रथम अध्याय (हिन्दी अनुवाद) का सम्पूर्ण हिन्दी अनुवाद दिया जा रहा है।
श्री परीक्षित के प्रश्न (श्रीपरीक्षिदुवाच)
श्लोक 1
निवृत्तिमार्गः कथित आदौ भगवता यथा।
क्रमयोगोपलब्धेन ब्रह्मणा यदसंसृतिः॥
अनुवाद:
"हे महाभाग! कृपया बताइए कि भगवान ने निवृत्ति मार्ग (सांसारिक जीवन से मुक्ति) की व्याख्या किस प्रकार की, जिससे ब्रह्मा ने क्रम योग द्वारा संसार के बंधनों से मुक्ति पाई।"
श्लोक 2
प्रवृत्तिलक्षणश्चैव त्रैगुण्यविषयो मुने।
योऽसावलीनप्रकृतेः गुणसर्गः पुनः पुनः॥
अनुवाद:
"और प्रवृत्ति मार्ग (सांसारिक जीवन का मार्ग) भी त्रिगुणों के प्रभाव में होता है, जो लीन प्रकृति से बार-बार उत्पन्न होता है। कृपया इसका भी वर्णन करें।"
श्लोक 3
अधर्मलक्षणा नाना नरकाश्चानुवर्णिताः।
मन्वन्तरश्च व्याख्यात आद्यः स्वायम्भुवो यतः॥
अनुवाद:
"आपने अधर्म के विभिन्न स्वरूपों और नरकों का वर्णन किया है। साथ ही स्वायंभुव मन्वंतर का भी विस्तार से वर्णन किया गया है।"
श्लोक 4
प्रियव्रतोत्तानपदोः वंशस्तत् चरितानि च।
द्वीपवर्षसमुद्राद्रि नद्युद्यान वनस्पतीन्॥
अनुवाद:
"प्रियव्रत और उत्तानपाद के वंश, उनके चरित्र, द्वीप, वर्ष, समुद्र, पर्वत, नदियाँ, उद्यान, और वनस्पतियों का भी आपने विस्तार से वर्णन किया है।"
श्लोक 5
धरामण्डलसंस्थानं भागलक्षणमानतः।
ज्योतिषां विवराणां च यथेदमसृजद्विभुः॥
अनुवाद:
"धरती के मण्डल की संरचना, उसके विभाजन और ज्योतिषीय घटनाओं का भी वर्णन आपने किया है कि कैसे भगवान ने इसे रचा।"
श्लोक 6
अधुनेह महाभाग यथैव नरकान्नरः।
नानोग्रयातनान्नेयात् तन्मे व्याख्यातुमर्हसि॥
अनुवाद:
"अब कृपया बताइए कि मनुष्य किस प्रकार भयंकर नरकों और पीड़ाओं से बच सकता है। मुझे इस विषय पर ज्ञान प्रदान करें।"
श्री शुकदेवजी का उत्तर (श्रीशुक उवाच)
श्लोक 7
न चेदिहैवापचितिं यथांहसः
कृतस्य कुर्यान् मनौक्तपाणिभिः।
ध्रुवं स वै प्रेत्य नरकानुपैति
ये कीर्तिता मे भवतः तिग्मयातनाः॥
अनुवाद:
"यदि मनुष्य अपने किए गए पापों का प्रायश्चित्त इस जीवन में नहीं करता, तो मृत्यु के बाद वह निश्चित रूप से उन नरकों में जाता है, जिनका मैंने वर्णन किया है। वहाँ उसे भयंकर यातनाएँ सहनी पड़ती हैं।"
श्लोक 8
तस्मात्पुरैवाश्विह पापनिष्कृतौ
यतेत मृत्योरविपद्यतात्मना।
दोषस्य दृष्ट्वा गुरुलाघवं यथा
भिषक्चिकित्सेत रुजां निदानवित्॥
अनुवाद:
"इसलिए, जैसे रोगी रोग के निदान के लिए तुरंत चिकित्सा करता है, वैसे ही मनुष्य को मृत्यु से पहले ही अपने पापों का प्रायश्चित्त कर लेना चाहिए। उसे यह देखना चाहिए कि कौन-सा पाप बड़ा है और कौन-सा छोटा।"
श्लोक 9
दृष्टश्रुताभ्यां यत्पापं जानन् अपि आत्मनोऽहितम्।
करोति भूयो विवशः प्रायश्चित्तमथो कथम्॥
अनुवाद:
राजा परीक्षित ने पूछा: "मनुष्य अपने नेत्रों से देखता और कानों से सुनता है कि पाप उसके लिए हानिकारक है, फिर भी विवश होकर बार-बार पाप करता है। ऐसे में प्रायश्चित्त कैसे संभव है?"
श्लोक 10
क्वचित् निवर्तते अभद्रात् क्वचित् चरति तत्पुनः।
प्रायश्चित्तमथोऽपार्थं मन्ये कुञ्जरशौचवत्॥
अनुवाद:
"मनुष्य कभी-कभी पापों से रुक जाता है, लेकिन फिर से उन्हें करता है। ऐसे में प्रायश्चित्त मुझे व्यर्थ लगता है, जैसे हाथी स्नान करने के बाद फिर से कीचड़ में लौट आता है।"
श्लोक 11
कर्मणा कर्मनिर्हारो न ह्यात्यन्तिक इष्यते।
अविद्वदधिकारित्वात् प्रायश्चित्तं विमर्शनम्॥
अनुवाद:
"पाप कर्म के लिए केवल कर्म के द्वारा ही प्रायश्चित्त करना पर्याप्त नहीं है, क्योंकि यह समस्या का स्थायी समाधान नहीं है। इसके लिए ज्ञान आवश्यक है।"
श्लोक 12
नाश्नतः पथ्यमेवान्नं व्याधयोऽभिभवन्ति हि।
एवं नियमकृद् राजन् शनैः क्षेमाय कल्पते॥
अनुवाद:
"जैसे बिना उचित आहार के रोग ठीक नहीं होते, वैसे ही केवल नियमों का पालन करना ही पर्याप्त नहीं है। स्थायी समाधान के लिए प्रायश्चित्त के साथ आत्मज्ञान आवश्यक है।"
श्री शुकदेवजी का उत्तर (श्रीशुक उवाच)
श्लोक 13
तपसा ब्रह्मचर्येण शमेन च दमेन च।
त्यागेन सत्यशौचाभ्यां यमेन नियमेन वा॥
अनुवाद:
"पापों का नाश तपस्या, ब्रह्मचर्य, इंद्रियों को वश में रखने, मन को शांत रखने, त्याग, सत्य, शुद्धता, यम-नियम के पालन से होता है।"
श्लोक 14
देहवाग्बुद्धिजं धीरा धर्मज्ञाः श्रद्धयान्विताः।
क्षिपन्त्यघं महदपि वेणुगुल्ममिवानलः॥
अनुवाद:
"जो लोग धर्म का ज्ञान रखते हैं और श्रद्धा से युक्त हैं, वे शरीर, वाणी, और बुद्धि से किए गए पापों को भी तपस्या से ऐसे नष्ट कर देते हैं, जैसे आग बांस के समूह को जला देती है।"
श्लोक 15
केचित्केवलया भक्त्या वासुदेवपरायणाः।
अघं धुन्वन्ति कार्त्स्न्येन नीहारमिव भास्करः॥
अनुवाद:
"कुछ लोग वासुदेव के प्रति केवल भक्ति के द्वारा अपने सारे पापों को नष्ट कर देते हैं, जैसे सूर्य की किरणें कोहरे को समाप्त कर देती हैं।"
श्लोक 16
न तथा ह्यघवान् राजन् पूयेत तप आदिभिः।
यथा कृष्णार्पितप्राणः तत्पूरुषनिषेवया॥
अनुवाद:
"हे राजन! पापों का शुद्धिकरण तपस्या आदि से इतना प्रभावी नहीं होता, जितना कि अपने प्राणों को कृष्ण को समर्पित करने और उनके भक्तों की सेवा से होता है।"
श्लोक 17
सध्रीचीनो ह्ययं लोके पन्थाः क्षेमोऽकुतोभयः।
सुशीलाः साधवो यत्र नारायणपरायणाः॥
अनुवाद:
"यह मार्ग (भक्ति का) संसार में सबसे उचित, सुरक्षित और अडिग है, जहाँ सुशील और साधु लोग नारायण के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित रहते हैं।"
श्लोक 18
प्रायश्चित्तानि चीर्णानि नारायणपराङ्मुखम्।
न निष्पुनन्ति राजेन्द्र सुराकुम्भमिवापगाः॥
अनुवाद:
"हे राजेंद्र! नारायण से विमुख व्यक्ति के लिए प्रायश्चित्त उतना ही व्यर्थ है, जैसे गंगाजल से शराब के घड़े को धोने पर वह पवित्र नहीं होता।"
श्लोक 19
सकृन्मनः कृष्णपदारविन्दयोः
र्निवेशितं तद्गुणरागि यैरिह।
न ते यमं पाशभृतश्च तद्भटान्
स्वन्स्वप्नेऽपि पश्यन्ति हि चीर्णनिष्कृताः॥
अनुवाद:
"जो व्यक्ति एक बार भी मन को श्रीकृष्ण के चरण-कमलों में लगा देता है, वह यमराज, उनके पाश और दूतों को स्वप्न में भी नहीं देखता, क्योंकि वह सभी प्रायश्चित्तों को पूर्ण कर चुका होता है।"
श्लोक 20
अत्र च उदाहरन्ति इमं इतिहासं पुरातनम्।
दूतानां विष्णुयमयोः संवादस्तं निबोध मे॥
अनुवाद:
"इस विषय में एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है। वह है विष्णु-दूत और यम-दूतों के बीच का संवाद। इसे ध्यानपूर्वक सुनो।"
अजामिल की कथा का आरंभ
श्लोक 21
कान्यकुब्जे द्विजः कश्चित् दासीपतिरजामिलः।
नाम्ना नष्टसदाचारो दास्याः संसर्गदूषितः॥
अनुवाद:
"कान्यकुब्ज में अजामिल नामक एक ब्राह्मण रहता था। वह अपने सदाचार को खो चुका था और एक दासी के संग से दूषित हो गया था।"
श्लोक 22
बन्द्यक्षैः कैतवैश्चौर्यैः गर्हितां वृत्तिमास्थितः।
बिभ्रत्कुटुम्बं अशुचिः यातयामास देहिनः॥
अनुवाद:
"वह चोरी, छल-कपट और अन्य अनैतिक कार्यों में लिप्त था। अपने परिवार का पालन-पोषण करने के लिए, उसने अपने शरीर को दूषित करके जीवन व्यतीत किया।"
श्लोक 23
एवं निवसतस्तस्य लालयानस्य तत्सुतान्।
कालोऽत्यगान् महान् राजन् नष्टाशीत्यायुषः समाः॥
अनुवाद:
"इस प्रकार अपने पुत्रों को पालते-पोसते हुए, अजामिल ने अपना जीवन व्यतीत किया। हे राजन! 88 वर्ष की आयु तक वह इसी स्थिति में रहा।"
श्लोक 24
तस्य प्रवयसः पुत्रा दश तेषां तु योऽवमः।
बालो नारायणो नाम्ना पित्रोश्च दयितो भृशम्॥
अनुवाद:
"अजामिल के दस पुत्र थे, जिनमें सबसे छोटा नारायण नामक पुत्र था। वह अपने माता-पिता का अत्यंत प्रिय था।"
अजामिल की कथा का विस्तार
श्लोक 25
स बद्धहृदयस्तस्मिन् अर्भके कलभाषिणि।
निरीक्षमाणस्तल्लीलां मुमुदे जरठो भृशम्॥
अनुवाद:
"अजामिल अपने छोटे पुत्र नारायण पर अत्यधिक प्रेम करता था। जब वह बालक तोतली भाषा में बोलता या खेलता, तो अजामिल उसे देखकर अत्यंत आनंदित होता।"
श्लोक 26
भुञ्जानः प्रपिबन् खादन् बालकं स्नेहयन्त्रितः।
भोजयन् पाययन्मूढो न वेदागतमन्तकम्॥
अनुवाद:
"वह भोजन करते, पीते, और बालक को खिलाते व दुलारते हुए इतना व्यस्त था कि उसे यह भी आभास नहीं था कि उसका अंत निकट आ गया है।"
श्लोक 27
स एवं वर्तमानोऽज्ञो मृत्युकाल उपस्थिते।
मतिं चकार तनये बाले नारायणाह्वये॥
अनुवाद:
"इस प्रकार अजामिल अज्ञान में जीवन व्यतीत करता रहा। जब उसकी मृत्यु का समय आया, तो उसने अपने छोटे पुत्र नारायण के प्रति अपना मन केंद्रित कर लिया।"
श्लोक 28
स पाशहस्तान् त्रीन् दृष्ट्वा पुरुषान् अति दारुणान्।
वक्रतुण्डान् ऊर्ध्वरोम्ण आत्मानं नेतुमागतान्॥
अनुवाद:
"उसने तीन भयानक यमदूतों को देखा, जो अपने हाथों में पाश लिए हुए थे। उनके चेहरे विकृत थे और उनके शरीर के रोम खड़े थे। वे अजामिल को लेने के लिए आए थे।"
श्लोक 29
दूरे क्रीडनकासक्तं पुत्रं नारायणाह्वयम्।
प्लावितेन स्वरेणोच्चैः आजुहावाकुलेन्द्रियः॥
अनुवाद:
"अपने पुत्र नारायण को दूर खेलते हुए देखकर, अजामिल ने भय और व्याकुलता से ऊँचे स्वर में उसका नाम पुकारा।"
श्लोक 30
निशम्य म्रियमाणस्य मुखतो हरिकीर्तनम्।
भर्तुर्नाम महाराज पार्षदाः सहसाऽपतन्॥
अनुवाद:
"हे महाराज! जैसे ही विष्णु-पार्षदों ने मृत्युशय्या पर पड़े अजामिल के मुख से भगवान का नाम सुना, वे तुरंत वहाँ प्रकट हो गए।"
श्लोक 31
विकर्षतोऽन्तर्हृदयाद् दासीपतिमजामिलम्।
यमप्रेष्यान् विष्णुदूता वारयामासुरोजसा॥
अनुवाद:
"यमदूत अजामिल की आत्मा को उसके शरीर से बाहर खींचने लगे। उसी समय विष्णु के दूतों ने अपने दिव्य तेज से उन्हें रोक दिया।"
श्लोक 32
ऊचुर्निषेधितास्तांस्ते वैवस्वतपुरःसराः।
के यूयं प्रतिषेद्धारो धर्मराजस्य शासनम्॥
अनुवाद:
"यमदूतों ने उन्हें रोके जाने पर कहा, 'तुम लोग कौन हो, जो धर्मराज (यमराज) की आज्ञा का उल्लंघन कर रहे हो?'"
श्लोक 33
कस्य वा कुत आयाताः कस्मादस्य निषेधथ।
किं देवा उपदेवा या यूयं किं सिद्धसत्तमाः॥
अनुवाद:
"तुम किसके आदेश से आए हो? और तुम इस व्यक्ति को क्यों रोक रहे हो? क्या तुम देवता हो, उपदेवता हो, या सिद्ध पुरुष हो?"
श्लोक 34
सर्वे पद्मपलाशाक्षाः पीतकौशेयवाससः।
किरीटिनः कुण्डलिनो लसत्पुष्करमालिनः॥
अनुवाद:
"तुम्हारी आँखें कमल के पत्तों जैसी सुंदर हैं, और तुमने पीले वस्त्र धारण किए हैं। तुम्हारे सिर पर मुकुट और कानों में कुंडल हैं। तुम पुष्पमालाओं से सुशोभित हो।"
श्लोक 35
सर्वे च नूत्नवयसः सर्वे चारुचतुर्भुजाः।
धनुर्निषङ्गासिगदा शङ्खचक्राम्बुजश्रियः॥
अनुवाद:
"तुम सभी युवा, सुंदर और चार भुजाओं वाले हो। तुम्हारे हाथों में धनुष, गदा, तलवार, शंख, चक्र और कमल सुशोभित हैं।"
श्लोक 36
दिशो वितिमिरालोकाः कुर्वन्तः स्वेन तेजसा।
किमर्थं धर्मपालस्य किङ्करान्नो निषेधथ॥
अनुवाद:
"तुम्हारे तेज से दिशाएँ प्रकाशित हो रही हैं। तुम धर्मपाल (यमराज) के सेवकों को क्यों रोक रहे हो?"
श्लोक 37
इत्युक्ते यमदूतैस्ते वासुदेवोक्तकारिणः।
तान् प्रत्यूचुः प्रहस्येदं मेघनिर्ह्रादया गिरा॥
अनुवाद:
"यमदूतों की बातें सुनकर, वासुदेव के दूतों ने मधुर और गंभीर वाणी में हँसते हुए उत्तर दिया।"
विष्णुदूतों और यमदूतों का संवाद
श्लोक 38
यूयं वै धर्मराजस्य यदि निर्देशकारिणः।
ब्रूत धर्मस्य नस्तत्त्वं यच्च धर्मस्य लक्षणम्॥
अनुवाद:
"यदि आप धर्मराज (यमराज) के आदेश का पालन करते हैं, तो हमें धर्म का तत्व बताइए। धर्म का वास्तविक लक्षण क्या है?"
श्लोक 39
कथं स्विद् ध्रियते दण्डः किं वास्य स्थानमीप्सितम्।
दण्ड्याः किं कारिणः सर्वे आहो स्वित् कतिचिन्नृणाम्॥
अनुवाद:
"दंड किस प्रकार लगाया जाता है? इसका उचित स्थान क्या है? क्या सभी मनुष्य इसके अधिकारी हैं या केवल कुछ विशेष व्यक्ति ही दंड के पात्र होते हैं?"
यमदूतों का उत्तर
श्लोक 40
वेदप्रणिहितो धर्मो ह्यधर्मस्तद्विपर्ययः।
वेदो नारायणः साक्षात् स्वयम्भूः इति शुश्रुम॥
अनुवाद:
"धर्म वह है, जो वेदों में निर्धारित है, और अधर्म वह है, जो वेदों के विपरीत है। वेद स्वयं भगवान नारायण का स्वरूप हैं। हमने यही सुना है।"
श्लोक 41
येन स्वधाम्न्यमी भावा रजःसत्त्वतमोमयाः।
गुणनामक्रियारूपैः विभाव्यन्ते यथातथम्॥
अनुवाद:
"भगवान नारायण की शक्ति से ही यह संसार रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुण से युक्त होकर विविध नाम, रूप, और कर्म के साथ प्रकट होता है।"
श्लोक 42
सूर्योऽग्निः खं मरुद्गावः सोमः सन्ध्याहनी दिशः।
कं कुः स्वयं धर्म इति ह्येते दैह्यस्य साक्षिणः॥
अनुवाद:
"सूर्य, अग्नि, आकाश, वायु, गायें, चंद्रमा, संध्या, दिन-रात, और दिशाएँ—ये सभी जीवात्मा के कर्मों के साक्षी हैं।"
श्लोक 43
एतैरधर्मो विज्ञातः स्थानं दण्डस्य युज्यते।
सर्वे कर्मानुरोधेन दण्डमर्हन्ति कारिणः॥
अनुवाद:
"इन साक्षियों के आधार पर अधर्म का निर्णय होता है और उसी के अनुसार दंड लगाया जाता है। सभी व्यक्ति अपने कर्मों के अनुसार दंड के पात्र होते हैं।"
श्लोक 44
सम्भवन्ति हि भद्राणि विपरीतानि चानघाः।
कारिणां गुणसङ्गोऽस्ति देहवान् न ह्यकर्मकृत्॥
अनुवाद:
"हे पवित्रजनों! मनुष्यों के कर्मों के गुणों के अनुसार शुभ और अशुभ फल उत्पन्न होते हैं। जीवात्मा, जब तक देह धारण करता है, कर्म करता ही है।"
श्लोक 45
येन यावान् यथाधर्मो धर्मो वेह समीहितः।
स एव तत्फलं भुङ्क्ते तथा तावदमुत्र वै॥
अनुवाद:
"मनुष्य इस संसार में जैसे-जैसे और जितना धर्म या अधर्म करता है, उसी के अनुरूप उसे इस जीवन और अगले जन्म में उसका फल भोगना पड़ता है।"
श्लोक 46
यथेह देवप्रवराः त्रैविध्यं उपलभ्यते।
भूतेषु गुणवैचित्र्यात् तथान्यत्रानुमीयते॥
अनुवाद:
"हे देवश्रेष्ठ! इस संसार में त्रिगुणों (सत्त्व, रज, तम) के आधार पर विभिन्न प्रकार के प्राणियों को देखा जाता है। ऐसा ही अन्यत्र भी होता है।"
श्लोक 47
वर्तमानोऽन्ययोः कालो गुणाभिज्ञापको यथा।
एवं जन्मान्ययोरेतद् धर्माधर्मनिदर्शनम्॥
अनुवाद:
"काल भी गुणों को पहचानने का साधन है। इसी प्रकार धर्म और अधर्म के आधार पर जन्म और मृत्यु का निर्धारण होता है।"
श्लोक 48
मनसैव पुरे देवः पूर्वरूपं विपश्यति।
अनुमीमांसतेऽपूर्वं मनसा भगवानजः॥
अनुवाद:
"जीवात्मा अपने मन के माध्यम से भूतकाल और भविष्यकाल का अनुभव करता है। भगवान अज (अजन्मा) इसे अपनी शक्ति से संचालित करते हैं।"
विष्णुदूत और यमदूतों का संवाद जारी
श्लोक 49
यथाज्ञस्तमसा युक्त उपास्ते व्यक्तमेव हि।
न वेद पूर्वमपरं नष्टजन्मस्मृतिस्तथा॥
अनुवाद:
"जैसे अज्ञानी मनुष्य अंधकार में डूबा रहता है और केवल प्रत्यक्ष रूप से दिखने वाले संसार को ही वास्तविक मानता है। उसे अपने पिछले और अगले जन्म का कोई ज्ञान नहीं होता, क्योंकि वह जन्म-जन्मांतर की स्मृति से वंचित रहता है।"
श्लोक 50
पञ्चभिः कुरुते स्वार्थान् पञ्च वेदाथ पञ्चभिः।
एकस्तु षोडशेन त्रीन् स्वयं सप्तदशोऽश्नुते॥
अनुवाद:
"मनुष्य अपनी इंद्रियों (पाँच ज्ञानेन्द्रियों और पाँच कर्मेन्द्रियों) और उनके विषयों के माध्यम से कर्म करता है। वह मन, बुद्धि, और अहंकार के साथ मिलकर इस संसार में विभिन्न अनुभव प्राप्त करता है।"
श्लोक 51
तदेतत् षोडशकलं लिङ्गं शक्तित्रयं महत्।
धत्तेऽनुसंसृतिं पुंसि हर्षशोकभयार्तिदाम्॥
अनुवाद:
"यह सोलह कलाओं वाला सूक्ष्म शरीर, जो तीन शक्तियों (सत्त्व, रज, तम) से युक्त है, जीवात्मा को संसार में बार-बार जन्म-मृत्यु के चक्र में डालता है और उसे हर्ष, शोक, भय, और कष्ट प्रदान करता है।"
श्लोक 52
देह्यज्ञोऽजितषड्वर्गो नेच्छन् कर्माणि कार्यते।
कोशकार इवात्मानं कर्मणाऽऽच्छाद्य मुह्यति॥
अनुवाद:
"जीवात्मा, जो ज्ञान से वंचित है और इंद्रियों को वश में नहीं कर पाया है, अनिच्छा के बावजूद कर्म करने के लिए बाध्य होता है। जैसे रेशम का कीड़ा अपने ही बनाए खोल में उलझ जाता है, वैसे ही वह अपने कर्मों में फँस जाता है।"
श्लोक 53
न हि कश्चित् क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म गुणैः स्वाभाविकैर्बलात्॥
अनुवाद:
"कोई भी जीव एक पल के लिए भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता। उसे प्रकृति के गुणों के प्रभाव से बाध्य होकर कर्म करना ही पड़ता है।"
श्लोक 54
लब्ध्वा निमित्तमव्यक्तं व्यक्ताव्यक्तं भवत्युत।
यथायोनि यथाबीजं स्वभावेन बलीयसा॥
अनुवाद:
"जीवात्मा कर्मों के अनुसार उपयुक्त शरीर और परिस्थितियाँ प्राप्त करता है। वह जन्म और कर्म के बीज के अनुसार बार-बार जन्म लेता है, जो उसके स्वभाव से प्रेरित होते हैं।"
श्लोक 55
एष प्रकृतिसङ्गेन पुरुषस्य विपर्ययः।
आसीत्स एव न चिराद् ईशसङ्गाद् विलीयते॥
अनुवाद:
"प्रकृति के साथ संबंध के कारण ही जीवात्मा भ्रमित होता है। लेकिन भगवान की शरण लेने से वह शीघ्र ही इस भ्रम से मुक्त हो सकता है।"
अजामिल के जीवन का वर्णन
श्लोक 56
अयं हि श्रुतसम्पन्नः शीलवृत्तगुणालयः।
धृतव्रतो मृदुर्दान्तः सत्यवान् मंत्रविच्छुचिः॥
अनुवाद:
"अजामिल पहले ज्ञान, सदाचार और उत्तम गुणों से युक्त था। वह सत्यप्रिय, विनम्र, संयमी, और पवित्र था तथा मंत्रों का अच्छा ज्ञाता था।"
श्लोक 57
गुर्वग्न्यतिथिवृद्धानां शुश्रूषुर्निरहङ्कृतः।
सर्वभूतसुहृत्साधुः मिर्मितवागनसूयकः॥
अनुवाद:
"वह गुरु, अग्नि, अतिथि और वृद्धजनों की सेवा करता था। उसमें अहंकार नहीं था। वह सभी प्राणियों का मित्र, साधु स्वभाव का, शांत भाषी और दोषरहित था।"
श्लोक 58-59
एकदासौ वनं यातः पितृसन्देशकृद् द्विजः।
आदाय तत आवृत्तः फलपुष्पसमित्कुशान्।
ददर्श कामिनं कञ्चित् शूद्रं सह भुजिष्यया।
पीत्वा च मधु मैरेयं मदाघूर्णितनेत्रया॥
अनुवाद:
"एक बार अजामिल, अपने पिता की आज्ञा से, वन में फल, पुष्प, समिधा और कुशा लेने गया। वहाँ उसने एक कामासक्त शूद्र को देखा, जो एक दासी के साथ शराब पीकर मदमस्त हो रहा था।"
श्लोक 60-61
मत्तया विश्लथन्नीव्या व्यपेतं निरपत्रपम्।
क्रीडन्तं अनुगायन्तं हसन्तमनयान्तिके।
दृष्ट्वा तां कामलिप्तेन बाहुना परिरम्भिताम्।
जगाम हृच्छयवशं सहसैव विमोहितः॥
अनुवाद:
"उसने उस स्त्री को, जिसका वस्त्र अस्त-व्यस्त था, और जो शूद्र के साथ हँसते-गाते और खेलते हुए थी, देखा। यह देखकर अजामिल तत्काल कामवश हो गया और मोहग्रस्त हो गया।"
अजामिल की कथा का विस्तार
श्लोक 62
स्तम्भयन् आत्मनात्मानं यावत्सत्त्वं यथाश्रुतम्।
न शशाक समाधातुं मनो मदनवेपितम्॥
अनुवाद:
"अजामिल ने अपनी ज्ञान और तपस्या के बल पर अपने मन को रोकने का प्रयास किया, लेकिन कामभावना से व्याकुल उसका मन स्थिर नहीं हो सका।"
श्लोक 63
तन्निमित्तस्मरव्याज ग्रहग्रस्तो विचेतनः।
तामेव मनसा ध्यायन् स्वधर्माद् विरराम ह॥
अनुवाद:
"कामभावना के कारण उसका विवेक समाप्त हो गया। वह लगातार उस स्त्री का ध्यान करता रहा और अपने धर्म (कर्तव्यों) से दूर हो गया।"
श्लोक 64
तामेव तोषयामास पित्र्येणार्थेन यावता।
ग्राम्यैर्मनोरमैः कामैः प्रसीदेत यथा तथा॥
अनुवाद:
"उसने उस स्त्री को प्रसन्न करने के लिए अपने पिता के धन का उपयोग किया। वह उसके सांसारिक सुख और इच्छाओं को पूरा करने में लगा रहा।"
श्लोक 65
विप्रां स्वभार्यामप्रौढां कुले महति लम्भिताम्।
विससर्जाचिरात्पापः स्वैरिण्यापाङ्गविद्धधीः॥
अनुवाद:
"अजामिल ने अपनी धर्मपत्नी, जो एक प्रतिष्ठित कुल की और अभी युवा थी, को त्याग दिया और उस दासी के मोहपाश में बँध गया।"
श्लोक 66
यतस्ततश्चोपनिन्ये न्यायतोऽन्यायतो धनम्।
बभारास्याः कुटुम्बिन्याः कुटुम्बं मन्दधीरयम्॥
अनुवाद:
"उसने धन को सही और गलत, दोनों तरीकों से अर्जित किया और उस स्त्री के परिवार का भरण-पोषण किया। वह मंदबुद्धि होकर पूरी तरह से उसके मोह में फँस गया।"
श्लोक 67
यदसौ शास्त्रमुल्लङ्घ्य स्वैरचार्यतिगर्हितः।
अवर्तत चिरं कालं अघायुः अशुचिर्मलात्॥
अनुवाद:
"उसने धर्मशास्त्रों का उल्लंघन किया और पापमय, अशुद्ध जीवन बिताया। इस प्रकार वह दीर्घकाल तक पाप में लिप्त रहा।"
श्लोक 68
तत एनं दण्डपाणेः सकाशं कृतकिल्बिषम्।
नेष्यामोऽकृतनिर्वेशं यत्र दण्डेन शुद्ध्यति॥
अनुवाद:
"यमदूतों ने कहा, 'यह व्यक्ति, जिसने अपने पापों का प्रायश्चित्त नहीं किया है, दंड पाने के लिए यमराज के पास ले जाया जाएगा, ताकि वह शुद्ध हो सके।'"
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां षष्ठस्कंधे अजामिलोपाख्याने प्रथमोऽध्यायः॥
"इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण के षष्ठ स्कंध में अजामिल की कथा का प्रथम अध्याय समाप्त होता है।"
भागवत षष्ठ स्कंध, प्रथम अध्याय (हिन्दी अनुवाद)। अजामिल की कथा। यहाँ भागवत षष्ठ स्कंध, प्रथम अध्याय (हिन्दी अनुवाद) का सम्पूर्ण हिन्दी अनुवाद दिया है।
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