भागवत द्वितीय स्कंध, प्रथम अध्याय (हिन्दी अनुवाद)।भागवत द्वितीय स्कंध, प्रथम अध्याय (हिन्दी अनुवाद) का श्लोक सहित अर्थ यहाँ दिया गया है।
भागवत द्वितीय स्कंध, प्रथम अध्याय (हिन्दी अनुवाद) का श्लोक सहित अर्थ यहाँ दिया गया है।
भागवत द्वितीय स्कंध, प्रथम अध्याय (हिन्दी अनुवाद)
श्रीमद्भागवत महापुराण, द्वितीय स्कंध, प्रथम अध्याय का हिन्दी अनुवाद
श्लोक 1:
श्रीशुक उवाच
वरीयानेष ते प्रश्नः कृतो लोकहितं नृप।
आत्मवित्सम्मतः पुंसां श्रोतव्यादिषु यः परः॥
अनुवाद:
श्री शुकदेवजी बोले: हे राजन! आपका यह प्रश्न बहुत उत्तम है, क्योंकि यह लोकहितकारी है। यह आत्मज्ञानियों द्वारा भी श्रेष्ठतम माना गया है और श्रोतव्य विषयों में सबसे महत्वपूर्ण है।
श्लोक 2:
श्रोतव्यादीनि राजेन्द्र नृणां सन्ति सहस्रशः।
अपश्यतां आत्मतत्त्वं गृहेषु गृहमेधिनाम्॥
अनुवाद:
हे राजन! आत्मा के सत्य को न जानने वाले गृहस्थ मनुष्यों के लिए सुनने योग्य हजारों विषय होते हैं।
श्लोक 3:
निद्रया ह्रियते नक्तं व्यवायेन च वा वयः।
दिवा चार्थेहया राजन् कुटुंबभरणेन वा॥
अनुवाद:
रात्रि निद्रा और कामवासना में व्यतीत होती है और दिन धन कमाने या परिवार का भरण-पोषण करने में निकल जाता है।
श्लोक 4:
देहापत्यकलत्रादिष्वात्मसैन्येष्वसत्स्वपि।
तेषां प्रमत्तो निधनं पश्यन्नपि न पश्यति॥
अनुवाद:
मनुष्य अपने शरीर, संतान, पत्नी और अन्य संबंधियों को अपने रक्षक मानता है, परंतु इन अस्थायी संबंधों का विनाश देखकर भी उसे ज्ञान नहीं होता।
श्लोक 5:
तस्माद्भारत सर्वात्मा भगवानीश्वरो हरिः।
श्रोतव्यः कीर्तितव्यश्च स्मर्तव्यश्चेच्छता भयम्॥
अनुवाद:
इसलिए, हे भारत! सर्वात्मा भगवान श्रीहरि, जो परम ईश्वर हैं, उनके विषय में सुनना, उनका कीर्तन करना और उन्हें स्मरण करना भय से मुक्त होने के इच्छुक व्यक्तियों के लिए आवश्यक है।
श्लोक 6:
एतावान् सांख्ययोगाभ्यां स्वधर्मपरिनिष्ठया।
जन्मलाभः परः पुंसां अन्ते नारायणस्मृतिः॥
अनुवाद:
सांख्य और योग के अभ्यास, और स्वधर्म का पालन करते हुए मनुष्यों का परम उद्देश्य यही है कि जीवन के अंत में भगवान नारायण का स्मरण हो।
श्लोक 7:
प्रायेण मुनयो राजन् निवृत्ता विधिषेधतः।
नैर्गुण्यस्था रमन्ते स्म गुणानुकथने हरेः॥
अनुवाद:
हे राजन! मुनिगण, जो विधि और निषेध से ऊपर हैं, नैर्गुण्य अवस्था में रहते हुए भगवान श्रीहरि की कथाओं में आनंद लेते हैं।
श्लोक 8:
इदं भागवतं नाम पुराणं ब्रह्मसम्मितम्।
अधीतवान् द्वापरादौ पितुर्द्वैपायनादहम्॥
अनुवाद:
यह भागवत पुराण, जो ब्रह्म से संबंधित है, मैंने द्वापर युग के अंत में अपने पिता, व्यासदेव से पढ़ा था।
श्लोक 9:
परिनिष्ठितोऽपि नैर्गुण्य उत्तमश्लोकलीलया।
गृहीतचेता राजर्षे आख्यानं यदधीतवान्॥
अनुवाद:
हे राजर्षि! यद्यपि मैं नैर्गुण्य अवस्था में स्थित था, फिर भी भगवान की लीलाओं ने मेरा मन मोह लिया, और मैंने इस भागवत कथा को पढ़ा।
श्लोक 10:
तदहं तेऽभिधास्यामि महापौरुषिको भवान्।
यस्य श्रद्दधतामाशु स्यान्मुकुंदे मतिः सती॥
अनुवाद:
मैं आपको इस भागवत कथा का वर्णन करूंगा। जो भी इसे श्रद्धापूर्वक सुनता है, उसका मन शीघ्र ही भगवान मुकुंद में लग जाता है।
श्लोक 11:
एतन्निर्विद्यमानानामिच्छतामकुतो भयम्।
योगिनां नृप निर्णीतं हरेर्नामानुकीर्तनम्॥
अनुवाद:
हे राजन! यह निर्णय किया गया है कि चाहे कोई संसार से विरक्त हो, चाहे कोई भयरहित अवस्था प्राप्त करना चाहता हो, और चाहे योगी हो—सभी के लिए भगवान श्रीहरि का नाम संकीर्तन ही सर्वोत्तम साधन है।
श्लोक 12:
किं प्रमत्तस्य बहुभिः परोक्षैर्हायनैरिह।
वरं मुहूर्तं विदितं घटते श्रेयसे यतः॥
अनुवाद:
भौतिक जीवन में प्रमत्त व्यक्ति के लिए असंख्य वर्षों का जीवन व्यर्थ है। इसके बजाय, थोड़े समय के लिए भगवान को जानने वाला जीवन ही श्रेयस्कर होता है।
श्लोक 13:
खट्वाङ्गो नाम राजर्षिः ज्ञात्वेयत्तामिहायुषः।
मुहूर्तात्सर्वमुत्सृज्य गतवानभयं हरिम्॥
अनुवाद:
राजर्षि खट्वांग ने अपनी आयु के शीघ्र समाप्त होने का ज्ञान प्राप्त किया और उन्होंने एक क्षण में ही सब कुछ त्यागकर भगवान हरि की शरण ग्रहण कर ली।
श्लोक 14:
तवाप्येतर्हि कौरव्य सप्ताहं जीवितावधिः।
उपकल्पय तत्सर्वं तावद्यद् सांपरायिकम्॥
अनुवाद:
हे कौरव्य (परीक्षित)! आपके जीवन की अवधि अब केवल एक सप्ताह है। इसलिए, अपने अगले जीवन (मुक्ति) के लिए अभी से आवश्यक तैयारियाँ कर लीजिए।
श्लोक 15:
अंतकाले तु पुरुष आगते गतसाध्वसः।
छिन्द्यादसङ्गशस्त्रेण स्पृहां देहेऽनु ये च तम्॥
अनुवाद:
अंत समय में, जब मृत्यु निकट हो, तो भयमुक्त होकर, वैराग्य के शस्त्र से देह और उससे जुड़े सभी संबंधों की आसक्ति को काट देना चाहिए।
श्लोक 16:
गृहात् प्रव्रजितो धीरः पुण्यतीर्थजलाप्लुतः।
शुचौ विविक्त आसीनो विधिवत् कल्पितासने॥
अनुवाद:
वैराग्य धारण करने वाला धीर व्यक्ति, तीर्थों के पवित्र जल से स्नान करने के बाद, एक शांत और पवित्र स्थान पर आसन लगाकर ध्यानस्थ होता है।
श्लोक 17:
अभ्यसेन्मनसा शुद्धं त्रिवृद्ब्रह्माक्षरं परम्।
मनो यच्छेज्जितश्वासो ब्रह्मबीजमविस्मरन्॥
अनुवाद:
उसे मन को शांत और पवित्र कर, त्रिवृत् ब्रह्म मंत्र का ध्यान करना चाहिए। श्वास को नियंत्रित करके, वह ब्रह्म का स्मरण बिना भटके लगातार करता रहे।
श्लोक 18:
नियच्छेद्विषयेभ्योऽक्षान्मनसा बुद्धिसारथिः।
मनः कर्मभिराक्षिप्तं शुभार्थे धारयेद्धिया॥
अनुवाद:
बुद्धि को सारथी बनाकर इंद्रियों को विषयों से हटाए। मन, जो कर्मों में उलझा हुआ है, उसे शुभ (भगवान) की ओर केंद्रित करे।
श्लोक 19:
तत्रैकावयवं ध्यायेदव्युच्छिन्नेन चेतसा।
मनो निर्विषयं युक्त्वा ततः किञ्चन न स्मरेत्।
पदं तत्परमं विष्णोः मनो यत्र प्रसीदति॥
अनुवाद:
अपने मन को विष्णु के किसी एक अंग पर ध्यान केंद्रित करे। जब मन को विषयों से हटाकर स्थिर कर लिया जाए, तो उसे कुछ भी स्मरण न करें। यह वही स्थान है, जहां मन शांत और प्रसन्न होता है।
श्लोक 20:
रजस्तमोभ्यां आक्षिप्तं विमूढं मन आत्मनः।
यच्छेद्धारणया धीरो हन्ति या तत्कृतं मलम्॥
अनुवाद:
जो मन रजोगुण और तमोगुण के प्रभाव से मोहित और अशुद्ध हो गया है, उसे ध्यान के द्वारा नियंत्रित किया जाना चाहिए। यह ध्यान मन के समस्त दोषों को नष्ट कर देता है।
श्लोक 21:
यस्यां सन्धार्यमाणायां योगिनो भक्तिलक्षणः।
आशु संपद्यते योग आश्रयं भद्रमीक्षतः॥
अनुवाद:
जो योगी इस ध्यान को धारण करता है, उसमें भक्ति उत्पन्न होती है। इससे वह शीघ्र ही योग के सर्वोच्च आश्रय, अर्थात भगवान का साक्षात्कार प्राप्त कर लेता है।
श्लोक 22:
राजोवाच
यथा सन्धार्यते ब्रह्मन्धारणा यत्र सम्मता।
यादृशी वा हरेदाशु पुरुषस्य मनो मलम्॥
अनुवाद:
राजा परीक्षित ने पूछा: वह ध्यान (धारणा) क्या है, जो ब्रह्म का स्मरण कराती है और जिससे मनुष्य के मन के दोष शीघ्र समाप्त हो जाते हैं?
श्लोक 23:
श्रीशुक उवाच
जितासनो जितश्वासो जितसङ्गो जितेन्द्रियः।
स्थूले भगवतो रूपे मनः सन्धारयेद्धिया॥
अनुवाद:
श्री शुकदेवजी बोले: योगी को आसन, श्वास, और इंद्रियों को जीतकर, अपने मन को भगवान के विराट रूप पर स्थिर करना चाहिए।
श्लोक 24:
विशेषस्तस्य देहोऽयं स्थविष्ठश्च स्थवीयसाम्।
यत्रेदं दृश्यते विश्वं भूतं भव्यं भवच्च सत्॥
अनुवाद:
यह संसार, जो भूत, वर्तमान और भविष्य का प्रतीक है, भगवान के विराट शरीर का ही एक रूप है। वह स्थूल रूप सबसे महान है।
श्लोक 25:
अण्डकोशे शरीरेऽस्मिन् सप्तावरणसंयुते।
वैराजः पुरुषो योऽसौ भगवान् धारणाश्रयः॥
अनुवाद:
यह ब्रह्मांड, जो सात आवरणों से ढका हुआ है, भगवान का विराट रूप है। यह वही पुरुष है, जो ध्यान (धारणा) का आश्रय बनता है।
श्लोक 26:
पातालमेतस्य हि पादमूलं
पठन्ति पार्ष्णि प्रपदे रसातलम्।
महातलं विश्वसृजोऽथ गुल्फौ
तलातलं वै पुरुषस्य जङ्घे॥
अनुवाद:
पाताल भगवान के चरणों का आधार है, रसातल उनकी एड़ी का भाग है, महातल उनकी गुल्फ का और तलातल उनकी जंघाओं का प्रतीक है।
श्लोक 27:
द्वे जानुनी सुतलं विश्वमूर्तेः
ऊरुद्वयं वितलं चातलं च।
महीतलं तज्जघनं महीपते
नभस्तलं नाभिसरो गृणन्ति॥
अनुवाद:
भगवान के दोनों घुटने सुतल का, उनकी जंघाएं वितल और अतल का, उनकी नाभि का क्षेत्र नभस्तल का, और उनका कमर क्षेत्र महीतल का प्रतीक है।
श्लोक 28:
उरःस्थलं ज्योतिरनीकमस्य
ग्रीवा महर्वदनं वै जनोऽस्य।
तपो रराटीं विदुरादि पुंसः
सत्यं तु शीर्षाणि सहस्रशीर्ष्णः॥
अनुवाद:
भगवान का वक्ष स्थल ज्योतिष लोक है, उनकी गर्दन महर्लोक है, उनका मुख जनलोक और तपोलोक है। सहस्रशीर्ष भगवान का सिर सत्यलोक का प्रतीक है।
श्लोक 29:
इन्द्रादयो बाहव आहुरुस्राः
कर्णौ दिशः श्रोत्रममुष्य शब्दः।
नासत्यदस्रौ परमस्य नासे
घ्राणोऽस्य गंधो मुखमग्निरिद्धः॥
अनुवाद:
भगवान के भुजाएँ इंद्र आदि देवताओं का प्रतीक हैं। उनके कान दिशाओं का, कानों का स्वरूप ध्वनि का, नासिका नासत्य और दस्र (अश्विनी कुमारों) का, और उनकी सुगंध गंध का प्रतीक है। उनका मुख अग्नि का स्वरूप है।
श्लोक 30:
द्यौरक्षिणी चक्षुरभूत्पतङ्गः
पक्ष्माणि विष्णोरहनी उभे च।
तद्भ्रूविजृम्भः परमेष्ठिधिष्ण्यं
आपोऽस्य तालू रस एव जिह्वा॥
अनुवाद:
भगवान की दाहिनी आँख सूर्य है और उनकी बाईं आँख चंद्रमा। उनकी भौंहों के विस्तार से परमेष्ठि लोक का निर्माण हुआ है। उनका तालु जल का और जिह्वा रस का प्रतीक है।
श्लोक 31:
छन्दांस्यनन्तस्य शिरो गृणंति
दंष्ट्रा यमः स्नेहकला द्विजानि।
हासो जनोन्मादकरी च माया
दुरन्तसर्गो यदपाङ्गमोक्षः॥
अनुवाद:
भगवान के सिर पर वेदों के छंद सुशोभित होते हैं। उनकी दांतें यमराज हैं, और उनका हास जनों को मोहित करने वाला है। उनकी कृपा दृष्टि से ही संसार की माया और सृष्टि संभव है।
श्लोक 32:
व्रीडोत्तरोष्ठोऽधर एव लोभो
धर्मः स्तनोऽधर्मपथोऽस्य पृष्ठम्।
कस्तस्य मेढ्रं वृषणौ च मित्रौ
कुक्षिः समुद्रा गिरयोऽस्थि सङ्घाः॥
अनुवाद:
भगवान का ऊपरी होंठ लज्जा है, निचला होंठ लोभ है। उनके स्तन धर्म हैं और पीठ अधर्म का प्रतीक है। उनकी कमर समुद्र का और अस्थियाँ पर्वतों का स्वरूप है।
श्लोक 33:
नद्योऽस्य नाड्योऽथ तनूरुहाणि
महीरुहा विश्वतनोर्नृपेन्द्र।
अनन्तवीर्यः श्वसितं मातरिश्वा
गतिर्वयः कर्मगुणप्रवाहः॥
अनुवाद:
भगवान की नाड़ियाँ नदियों का और उनके रोम वृक्षों का प्रतीक हैं। उनका श्वास वायु है, और उनके कार्यों से सृष्टि की गति और कर्म का प्रवाह चलता है।
श्लोक 34:
ईशस्य केशान् विदुरम्बुवाहान्
वासस्तु सन्ध्यां कुरुवर्य भूम्नः।
अव्यक्तमाहुः हृदयं मनश्च
स चन्द्रमाः सर्वविकारकोशः॥
अनुवाद:
भगवान के केश मेघों के प्रतीक हैं, और उनके वस्त्र संध्या (प्रातः और सायं का समय) हैं। उनका हृदय अव्यक्त (प्रकृति) का और मन चंद्रमा का प्रतीक है, जो सभी विकारों का संग्रह है।
श्लोक 35:
विज्ञानशक्तिं महिमामनन्ति
सर्वात्मनोऽन्तःकरणं गिरित्रम्।
अश्वाश्वतर्युष्ट्रगजा नखानि
सर्वे मृगाः पशवः श्रोणि देशे॥
अनुवाद:
भगवान की विज्ञानशक्ति और महिमा का कोई अंत नहीं है। उनका अंतःकरण सृष्टि का आधार है। उनके नाखून घोड़े, गधे, ऊँट और हाथियों का प्रतीक हैं, और उनके कमर क्षेत्र में सभी मृग और पशु निवास करते हैं।
श्लोक 36:
वयांसि तद्व्याकरणं विचित्रं
मनुर्मनीषा मनुजो निवासः।
गंधर्वविद्याधरचारणाप्सरः
स्वरस्मृतीः असुरानीकवीर्यः॥
अनुवाद:
भगवान के पक्षी, उनके व्याकरण का स्वरूप हैं। मनु उनकी मनीषा और मनुष्य का निवास उनका आवास है। गंधर्व, विद्याधर, चारण, और अप्सराएँ उनकी स्मृतियों और असुरों की शक्ति का प्रतीक हैं।
श्लोक 37:
ब्रह्माननं क्षत्रभुजो महात्मा
विडूरुरङ्घ्रिश्रित कृष्णवर्णः।
नानाभिधा भीज्यगणोपपन्नो
द्रव्यात्मकः कर्मवितानयोगः॥
अनुवाद:
भगवान का मुख ब्राह्मण का, भुजाएँ क्षत्रिय का, जाँघें वैश्य का, और चरण शूद्र का प्रतिनिधित्व करती हैं। वे अनेक नामों, गुणों और कार्यों से युक्त हैं और कर्म का विस्तार करने वाले हैं।
श्लोक 38:
इयानसावीश्वरविग्रहस्य
यः सन्निवेशः कथितो मया ते।
सन्धार्यतेऽस्मिन् वपुषिस्थविष्ठे
मनः स्वबुद्ध्या न यतोऽस्ति किञ्चित्॥
अनुवाद:
यह भगवान के विराट स्वरूप का वर्णन है, जिसे मैंने आपके लिए बताया है। इसे बुद्धि द्वारा अपने मन में स्थिर करें, क्योंकि इसमें किसी भी प्रकार की कमी नहीं है।
श्लोक 39:
स सर्वधी वृत्त्यनुभूतसर्व
आत्मा यथा स्वप्नजनेक्षितैकः।
तं सत्यमानन्दनिधिं भजेत
नान्यत्र सज्जेद्यत आत्मपातः॥
अनुवाद:
भगवान, जो समस्त चेतनाओं के केंद्र हैं और सच्चिदानंद स्वरूप हैं, उनकी आराधना करें। किसी अन्य चीज में आसक्त होकर आत्मा का पतन न करें।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां द्वितीयस्कंधे प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण के द्वितीय स्कंध के प्रथम अध्याय का समापन हुआ।
भागवत द्वितीय स्कंध, प्रथम अध्याय (हिन्दी अनुवाद) का श्लोक सहित अर्थ यहाँ दिया गया। यदि भागवत द्वितीय स्कंध, प्रथम अध्याय (हिन्दी अनुवाद) का श्लोक सहित अर्थ यहाँ दिया गया है तो इसके बारे में और अधिक जानकारी के लिए कमेंट करें।
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