भागवत द्वितीय स्कन्ध, चतुर्थ अध्याय(हिन्दी अनुवाद) यहाँ पर भागवत द्वितीय स्कन्ध, चतुर्थ अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के सम्पूर्ण श्लोकों का हिन्दी अनुवाद है।
यह भगवान कृष्ण का सुंदर चित्र है, जिसमें उन्हें बांसुरी बजाते हुए, वृंदावन के हरे-भरे वातावरण में दिखाया गया है। उनके चेहरे पर दिव्यता और शांति है, और पंखी के साथ उनकी कर्ली जटाएं भी आकर्षक हैं। |
भागवत द्वितीय स्कन्ध, चतुर्थ अध्याय(हिन्दी अनुवाद)
यहाँ पर भागवत द्वितीय स्कन्ध, चतुर्थ अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के सम्पूर्ण श्लोकों का हिन्दी अनुवाद यहाँ प्रस्तुत किया गया है।
॥ सूत उवाच ॥
श्लोक 1:
वैयासकेरिति वचः तत्त्वनिश्चयमात्मनः।
उपधार्य मतिं कृष्णे औत्तरेयः सतीं व्यधात्॥
अनुवाद:
सूत जी ने कहा: वैयासकि (शुकदेव जी) के तत्त्व ज्ञानपूर्ण वचनों को सुनकर परीक्षित ने अपने मन को भगवान कृष्ण में स्थिर कर लिया।
श्लोक 2:
आत्मजाया सुतागार पशुद्रविणबन्धुषु।
राज्ये चाविकले नित्यं विरूढां ममतां जहौ॥
अनुवाद:
परीक्षित ने अपने पुत्र, पत्नी, घर, संपत्ति, राज्य और अन्य सांसारिक बंधनों से अपनी गहरी आसक्ति को त्याग दिया।
श्लोक 3:
पप्रच्छ चेममेवार्थं यन्मां पृच्छथ सत्तमाः।
कृष्णानुभावश्रवणे श्रद्दधानो महामनाः॥
अनुवाद:
परीक्षित ने वही प्रश्न पूछा, जो आप (ऋषिगण) सुनना चाहते हैं। वे भगवान कृष्ण की महिमा सुनने में अत्यधिक रुचि रखने वाले और उदार हृदय थे।
श्लोक 4:
संस्थां विज्ञाय सन्न्यस्य कर्म त्रैवर्गिकं च यत्।
वासुदेवे भगवति आत्मभावं दृढं गतः॥
अनुवाद:
उन्होंने संसार की नश्वरता को समझकर, त्रैवर्गिक (धर्म, अर्थ, काम) कर्मों को त्याग दिया और भगवान वासुदेव में दृढ़ आत्मभाव स्थापित कर लिया।
राजोवाच:
श्लोक 5:
समीचीनं वचो ब्रह्मन् सर्वज्ञस्य तवानघ।
तमो विशीर्यते मह्यं हरेः कथयतः कथाम्॥
अनुवाद:
राजा परीक्षित ने कहा: हे ब्रह्मन्! आपकी भगवान की कथाएं सुनने से मेरे हृदय का अज्ञान नष्ट हो रहा है। आपकी वाणी उत्तम और सत्य है।
श्लोक 6:
भूय एव विवित्सामि भगवान् आत्ममायया।
यथेदं सृजते विश्वं दुर्विभाव्यमधीश्वरैः॥
अनुवाद:
मैं फिर से जानना चाहता हूं कि भगवान अपनी आत्ममाया से इस संसार की रचना कैसे करते हैं, जिसे समझ पाना साधारण मनुष्यों के लिए कठिन है।
श्लोक 7:
यथा गोपायति विभुः यथा संयच्छते पुनः।
यां यां शक्तिमुपाश्रित्य पुरुषः परः पुमान्।
आत्मानं क्रीडयन्क्रीडन् करोति विकरोति च॥
अनुवाद:
भगवान इस सृष्टि की रक्षा और संहार कैसे करते हैं? वे कौन-कौन सी शक्तियों का आश्रय लेकर इन कृत्यों को खेल-खेल में करते हैं और अपनी लीला को विस्तार देते हैं?
श्लोक 8:
नूनं भगवतो ब्रह्मन् हरेरद्भुतकर्मणः।
दुर्विभाव्यमिवाभाति कविभिश्चापि चेष्टितम्॥
अनुवाद:
हे ब्रह्मन्! भगवान हरि के अद्भुत कर्मों को समझ पाना कवियों के लिए भी कठिन है। उनकी लीलाएं अत्यंत विचित्र और गहन हैं।
श्लोक 9:
यथा गुणांस्तु प्रकृतेः युगपत् क्रमशोऽपि वा।
बिभर्ति भूरिशस्त्वेकः कुर्वन् कर्माणि जन्मभिः॥
अनुवाद:
वे भगवान एक ही समय में प्रकृति के गुणों को क्रमशः या एक साथ संभालते हैं और अनेकों जन्मों के कर्मों को खेल-खेल में करते हैं।
श्लोक 10:
विचिकित्सितमेतन्मे ब्रवीतु भगवान् यथा।
शाब्दे ब्रह्मणि निष्णातः परस्मिंश्च भवान्खलु॥
अनुवाद:
हे महान ज्ञानी! कृपया मेरी शंका का समाधान करें। आप शाब्दिक ब्रह्म और परम ब्रह्म दोनों में निपुण हैं।
॥ सूत उवाच ॥
श्लोक 11:
इत्युपामंत्रितो राज्ञा गुणानुकथने हरेः।
हृषीकेशं अनुस्मृत्य प्रतिवक्तुं प्रचक्रमे॥
अनुवाद:
सूत जी ने कहा: राजा परीक्षित के इस प्रकार विनम्र प्रार्थना करने पर शुकदेव जी ने भगवान हृषीकेश का स्मरण कर उत्तर देना आरंभ किया।
॥ श्रीशुक उवाच ॥
श्लोक 12:
नमः परस्मै पुरुषाय भूयसे।
सदुद्भवस्थाननिरोधलीलया।
गृहीतशक्ति त्रितयाय देहिनां।
अंतर्भवायानुपलक्ष्यवर्त्मने॥
अनुवाद:
मैं उस परब्रह्म पुरुष को नमन करता हूं, जो सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और संहार की लीला करते हैं। वे अपनी तीन शक्तियों को लेकर देहधारियों के भीतर और बाहर रहते हैं, परंतु अप्रकट मार्गों से।
श्लोक 13:
भूयो नमः सद्वृजिनच्छिदेऽसतां।
असंभवायाखिलसत्त्वमूर्तये।
पुंसां पुनः पारमहंस्य आश्रमे।
व्यवस्थितानामनुमृग्यदाशुषे॥
अनुवाद:
मैं पुनः उस भगवान को नमन करता हूं, जो सभी संतों की शरण हैं, दुखों को काटने वाले और असत्कर्मों को नष्ट करने वाले हैं। वे पारमहंसों के आदर्श आश्रय हैं।
श्लोक 14:
नमो नमस्तेऽस्त्वृषभाय सात्वतां
विदूरकाष्ठाय मुहुः कुयोगिनाम्।
निरस्तसाम्यातिशयेन राधसा
स्वधामनि ब्रह्मणि रंस्यते नमः॥
अनुवाद:
मैं सात्वतों (भक्तों) के प्रभु, योगियों की पहुँच से दूर, ब्रह्मधाम में अपने अतुलनीय वैभव के साथ रमण करने वाले भगवान को बार-बार नमस्कार करता हूँ।
श्लोक 15:
यत्कीर्तनं यत्स्मरणं यदीक्षणं
यद्वंदनं यच्छ्रवणं यदर्हणम्।
लोकस्य सद्यो विधुनोति कल्मषं
तस्मै सुभद्रश्रवसे नमो नमः॥
अनुवाद:
जिनके कीर्तन, स्मरण, दर्शन, वंदन, श्रवण और पूजा से संसार का पाप तत्काल नष्ट हो जाता है, उन सुभद्र (कल्याणकारी) भगवान को बार-बार नमस्कार।
श्लोक 16:
विचक्षणा यच्चरणोपसादनात्
सङ्गं व्युदस्योभयतोऽन्तरात्मनः।
विन्दन्ति हि ब्रह्मगतिं गतक्लमाः
तस्मै सुभद्रश्रवसे नमो नमः॥
अनुवाद:
जो विवेकवान उनके चरणों का आश्रय लेकर आंतरिक और बाहरी संसार के बंधन से मुक्त होकर ब्रह्म पद को प्राप्त करते हैं, उन सुभद्र भगवान को नमस्कार।
श्लोक 17:
तपस्विनो दानपरा यशस्विनो
मनस्विनो मंत्रविदः सुमङ्गलाः।
क्षेमं न विन्दन्ति विना यदर्पणं
तस्मै सुभद्रश्रवसे नमो नमः॥
अनुवाद:
तपस्वी, दानशील, यशस्वी, विद्वान और शुभ कर्म करने वाले भी बिना भगवान को समर्पण किए वास्तविक शांति प्राप्त नहीं करते। उन सुभद्र भगवान को नमस्कार।
श्लोक 18:
किरातहूणान्ध्रपुलिन्दपुल्कशा
आभीरकङ्का यवनाः खसादयः।
येऽन्ये च पापा यदपाश्रयाश्रयाः
शुध्यन्ति तस्मै प्रभविष्णवे नमः॥
अनुवाद:
किरात, हूण, आंध्र, पुलिंद, यवन, खस आदि जितने भी पापी हैं, वे भगवान के चरणों का आश्रय लेकर शुद्ध हो जाते हैं। उन सर्वशक्तिमान प्रभु को नमस्कार।
श्लोक 19:
स एष आत्मात्मवतामधीश्वरः
त्रयीमयो धर्ममयस्तपोमयः।
गतव्यलीकैरजशङ्करादिभिः
वितर्क्यलिङ्गो भगवान्प्रसीदताम्॥
अनुवाद:
वे भगवान त्रयी (वेद), धर्म और तपस्या के मूर्तिमान रूप हैं। अज, शंकर आदि महान देवता भी उनकी लीला को नहीं समझ सकते। वे भगवान मुझ पर कृपा करें।
श्लोक 20:
श्रियः पतिर्यज्ञपतिः प्रजापतिः
धियां पतिर्लोकपतिर्धरापतिः।
पतिर्गतिश्चान्धकवृष्णि सात्वतां
प्रसीदतां मे भगवान् सतां पतिः॥
अनुवाद:
वे भगवान लक्ष्मीपति, यज्ञपति, प्रजापति, बुद्धि के स्वामी, लोकों के स्वामी और सात्वतों के रक्षक हैं। वे भक्तों के नायक भगवान मुझ पर कृपा करें।
श्लोक 21:
यदङ्घ्र्यभिध्यानसमाधिधौतया
धियानुपश्यन्ति हि तत्त्वमात्मनः।
वदन्ति चैतत् कवयो यथा रुचं
स मे मुकुंदो भगवान् प्रसीदताम्॥
अनुवाद:
जिनके चरणों का ध्यान और समाधि बुद्धि को शुद्ध कर आत्मा का तत्त्व स्पष्ट कर देती है, कवि जिनकी प्रशंसा करते हैं, वे मुकुंद भगवान मुझ पर कृपा करें।
श्लोक 22:
प्रचोदिता येन पुरा सरस्वती
वितन्वताऽजस्य सतीं स्मृतिं हृदि।
स्वलक्षणा प्रादुरभूत् किलास्यतः
स मे ऋषीणां ऋषभः प्रसीदताम्॥
अनुवाद:
जिन्होंने ब्रह्मा के हृदय में सरस्वती को प्रेरित कर सृष्टि का ज्ञान उत्पन्न किया, वे ऋषियों के स्वामी भगवान मुझ पर कृपा करें।
श्लोक 23:
भूतैर्महद्भिर्य इमाः पुरो विभुः
निर्माय शेते यदमूषुपूरुषः।
भुङ्क्ते गुणान् षोडश षोडशात्मकः
सोऽलङ्कृषीष्ट भगवान् वचांसि मे॥
अनुवाद:
जिन्होंने महाभूतों से इस संसार को रचकर उसमें निवास किया और सोलह तत्त्वों के रूप में इसे भोगते हैं, वे भगवान मेरे वचनों को शोभा प्रदान करें।
श्लोक 24:
नमस्तस्मै भगवते वासुदेवाय वेधसे।
पपुर्ज्ञानमयं सौम्या यन्मुखाम्बुरुहासवम्॥
अनुवाद:
मैं वासुदेव भगवान को प्रणाम करता हूँ, जिनके मुखारविंद से ज्ञान रूपी अमृत ऋषियों ने पिया।
श्लोक 25:
एतद् एवात्मभू राजन् नारदाय विपृच्छते।
वेदगर्भोऽभ्यधात् साक्षाद् यदाह हरिरात्मनः॥
अनुवाद:
हे राजन! यही ज्ञान ब्रह्माजी ने नारद जी के पूछने पर उन्हें दिया था। यह साक्षात् भगवान हरि का उपदेश है।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां द्वितीयस्कंधे चतुर्थोऽध्यायः॥
इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण के द्वितीय स्कंध का चतुर्थ अध्याय पूर्ण हुआ।
इस प्रकार भागवत द्वितीय स्कन्ध, चतुर्थ अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के सम्पूर्ण श्लोकों का हिन्दी अनुवाद यहाँ प्रस्तुत किया गया।