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भागवत तृतीय स्कंध, प्रथम अध्याय (हिन्दी अनुवाद)

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भागवत तृतीय स्कंध, प्रथम अध्याय (हिन्दी अनुवाद)।यहाँ तक भागवत तृतीय स्कंध,प्रथम अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के सभी श्लोकों का अनुवाद और भावार्थ प्रस्तुत है।


भागवत तृतीय स्कंध, प्रथम अध्याय (हिन्दी अनुवाद)

यह चित्र विदुर और उद्धव संवाद को दर्शाता है, जो यमुना नदी के शांत तट पर हुआ था। इस चित्र में उनकी गहन आध्यात्मिक चर्चा और दिव्य वातावरण को दर्शाया गया है। 


यहाँ भागवत तृतीय स्कंध, प्रथम अध्याय (हिन्दी अनुवाद) के सभी श्लोकों का अनुवाद और भावार्थ प्रस्तुत किया गया है।

भागवत तृतीय स्कंध, प्रथम अध्याय (हिन्दी अनुवाद)

श्लोक 1

श्रीशुक उवाच

एवमेतत्पुरा पृष्टो मैत्रेयो भगवान् किल।

क्षत्त्रा वनं प्रविष्टेन त्यक्त्वा स्वगृह ऋद्धिमत्॥

अनुवाद:
श्रीशुकदेव जी बोले— "पूर्वकाल में विदुर ने, जो अपने समृद्ध घर को त्यागकर वन में प्रविष्ट हुए थे, महात्मा मैत्रेय से इन विषयों में प्रश्न किया था।"


श्लोक 2

यद्वा अयं मंत्रकृद्वो भगवान् अखिले श्वरः।
पौरवेन्द्रगृहं हित्वा प्रविवेशात्मसात्कृतम्॥

अनुवाद:
"वह भगवान जो समस्त ब्रह्मांड के स्वामी हैं और मंत्रविद हैं, धृतराष्ट्र के घर को त्यागकर आत्मा में स्थित हो गए।"


श्लोक 3 

राजोवाच
कुत्र क्षत्तुर्भगवता मैत्रेयेणास सङ्गमः।
कदा वा सहसंवाद एतद् वर्णय नः प्रभो॥

अनुवाद:
राजा परीक्षित ने पूछा— "हे प्रभु! विदुर जी और महात्मा मैत्रेय का संगम कहाँ हुआ? और उनके बीच वार्ता कब और कैसे हुई? कृपया इसका वर्णन करें।"


श्लोक 4

न ह्यल्पार्थोदयस्तस्य विदुरस्य अमलात्मनः।
तस्मिन् वरीयसि प्रश्नः साधुवादोपबृंहितः॥

अनुवाद:
"विदुर जी, जो निर्मल आत्मा हैं, उनसे किए गए प्रश्न कभी तुच्छ नहीं होते। उनके प्रश्न श्रेष्ठ और साधुजनों के लिए वंदनीय होते हैं।"


श्लोक 5 

सूत उवाच
स एवं ऋषिवर्योऽयं पृष्टो राज्ञा परीक्षिता।
प्रत्याह तं सुबहुवित् प्रीतात्मा श्रूयतामिति॥

अनुवाद:
सूत जी बोले— "जब राजा परीक्षित ने इस प्रकार पूछा, तो ऋषिवर (श्री शुकदेव जी) प्रसन्नचित्त होकर बोले, 'सुनो, मैं तुम्हें बताता हूँ।'"


श्लोक 6

यदा तु राजा स्वसुतानसाधून्
पुष्णन्नधर्मेण विनष्टदृष्टिः।
भ्रातुर्यविष्ठस्य सुतान्विबन्धून्
प्रवेश्य लाक्षाभवने ददाह॥

अनुवाद:
"जब धृतराष्ट्र ने अधर्मपूर्वक अपने दुष्ट पुत्रों को बढ़ावा देते हुए अपने छोटे भाई पांडु के पुत्रों को लाक्षागृह में जलाने का प्रयास किया।"


श्लोक 7

यदा सभायां कुरुदेवदेव्याः
केशाभिमर्शं सुतकर्म गर्ह्यम्।
न वारयामास नृपः स्नुषायाः
स्वास्रैर्हरन्त्याः कुचकुङ्कुमानि॥

अनुवाद:
"और जब सभा में द्रौपदी का अपमान हुआ और उसके केश खींचे गए, तब राजा धृतराष्ट्र ने उसे रोकने का कोई प्रयास नहीं किया, जबकि वह अपनी आँखों से आँसू बहाती रही।"


श्लोक 8

द्यूते त्वधर्मेण जितस्य साधोः
सत्यावलंबस्य वनं गतस्य।
न याचतोऽदात् समयेन दायं
तमोजुषाणो यदजातशत्रोः॥

अनुवाद:
"जब द्यूत में अधर्मपूर्वक पांडवों को हराकर उनका राज्य छीना गया, और उन्हें वनवास के लिए भेजा गया, तब दुर्योधन ने उनके माँगे हुए अधिकार को भी देने से मना कर दिया।"


श्लोक 9

यदा च पार्थप्रहितः सभायां
जगद्गुरुर्यानि जगाद कृष्णः।
न तानि पुंसां अमृतायनानि
राजोरु मेने क्षतपुण्यलेशः॥

अनुवाद:
"जब अर्जुन के आग्रह पर भगवान कृष्ण ने कौरव सभा में धर्म का उपदेश दिया, तो दुर्योधन जैसे पापी ने उन अमृतमय वचनों का भी आदर नहीं किया।"


श्लोक 10

यदोपहूतो भवनं प्रविष्टो
मंत्राय पृष्टः किल पूर्वजेन।
अथाह तन्मंत्रदृशां वरीयान्
यन्मंत्रिणो वैदुरिकं वदन्ति॥

अनुवाद:
"जब विदुर को सभा में बुलाया गया और धृतराष्ट्र ने उनसे नीति संबंधी परामर्श माँगा, तब उन्होंने उन विचारों को प्रस्तुत किया, जिन्हें विदुर नीति के रूप में विख्यात माना जाता है।"


श्लोक 11

अजातशत्रोः प्रतियच्छदायं
तितिक्षतो दुर्विषहं तवागः।
सहानुजो यत्र वृकोदराहिः
श्वसन् रुषा यत्त्वमलं बिभेषि॥

अनुवाद:
"हे धृतराष्ट्र! अजातशत्रु (युधिष्ठिर) ने सहनशीलता से तुम्हारे अत्याचारों को सहा, लेकिन भीम, जो सर्प के समान क्रोधी स्वभाव के थे, उनकी प्रतिशोध भावना से तुम भयभीत हो गए।"


श्लोक 12

पार्थांस्तु देवो भगवान् मुकुन्दो
गृहीतवान् स क्षितिदेवदेवः।
आस्ते स्वपुर्यां यदुदेवदेवो
विनिर्जिताशेष नृदेवदेवः॥

अनुवाद:
"भगवान मुकुंद (कृष्ण) ने पांडवों की रक्षा की और समस्त राजाओं को पराजित करके अपनी नगरी द्वारका में निवास किया। वे समस्त यदुओं के देवता हैं।"


श्लोक 13

स एष दोषः पुरुषद्विडास्ते
गृहान्प्रविष्टो यमपत्यमत्या।
पुष्णासि कृष्णाद्विमुखो गतश्रीः
त्यजाश्वशैवं कुलकौशलाय॥

अनुवाद:
"हे धृतराष्ट्र! तुमने जो कृष्ण से विमुख होकर दुर्योधन को बढ़ावा दिया, वही तुम्हारा दोष है। तुम्हारे कुल की भलाई इसी में है कि तुम इस अधर्म से विमुख हो जाओ।"


श्लोक 14

इति ऊचिवान् तत्र सुयोधनेन
प्रवृद्धकोपस्फुरिताधरेण।
असत्कृतः सत्स्पृहणीयशीलः
क्षत्ता सकर्णानुजसौबलेन॥

अनुवाद:
"विदुर ने सत्य को कहने का प्रयास किया, लेकिन दुर्योधन ने क्रोधपूर्वक उनके वचनों का अनादर किया। दुर्योधन, कर्ण और शकुनि के साथ विदुर का अपमान करते हुए उन्हें सभा से बाहर निकालने का आदेश दिया।"


श्लोक 15

क एनमत्रोपजुहाव जिह्मं
दास्याः सुतं यद्बलिनैव पुष्टः।
तस्मिन् प्रतीपः परकृत्य आस्ते
निर्वास्यतामाशु पुराच्छ्वसानः॥

अनुवाद:
"दुर्योधन ने सभा में कहा, 'इस दासी के पुत्र (विदुर) को किसने यहाँ बुलाया? इसे तुरंत नगर से निष्कासित करो। यह केवल दूसरों का पक्ष लेने वाला है।'"


श्लोक 16

स इत्थमत्युल्बणकर्णबाणैः
भ्रातुः पुरो मर्मसु ताडितोऽपि।
स्वयं धनुर्द्वारि निधाय मायां
गतव्यथोऽयादुरु मानयानः॥

अनुवाद:
"विदुर, जो अपने भाई (धृतराष्ट्र) के सामने कठोर वचनों से आहत हुए, फिर भी बिना किसी क्रोध के अपना धनुष द्वार पर रखकर वहाँ से चले गए।"


श्लोक 17

स निर्गतः कौरवपुण्यलब्धो
गजाह्वयात् तीर्थपदः पदानि।
अन्वाक्रमत्पुण्यचिकीर्षयोर्व्यां
स्वधिष्ठितो यानि सहस्रमूर्तिः॥

अनुवाद:
"विदुर, जो कौरवों के पुण्य से उपेक्षित हुए, गजाह्वय (हस्तिनापुर) से तीर्थ यात्रा के लिए निकल पड़े और भगवान विष्णु के चरणों की प्राप्ति की इच्छा से पवित्र स्थलों की यात्रा करने लगे।"


श्लोक 18

पुरेषु पुण्योपवनाद्रिकुञ्जे-
ष्वपङ्कतोयेषु सरित्सरःसु।
अनन्तलिङ्गैः समलङ्कृतेषु
चचार तीर्थायतनेष्वनन्यः॥

अनुवाद:
"विदुर ने नगरों, पवित्र वनों, पर्वतों, और नदियों के तटों पर स्थित तीर्थस्थलों का भ्रमण किया। वे एकनिष्ठ भाव से भगवान की पूजा करते रहे।"


श्लोक 19

गां पर्यटन्मेध्यविविक्तवृत्तिः
सदाप्लुतोऽधः शयनोऽवधूतः।
अलक्षितः स्वैरवधूतवेषो
व्रतानि चेरे हरितोषणानि॥

अनुवाद:
"विदुर पवित्र और शांत जीवन जीते हुए, हरि की सेवा के लिए व्रतों का पालन करते हुए, अज्ञात वेश में पृथ्वी पर तीर्थ यात्रा करते रहे।"


श्लोक 20

इत्थं व्रजन् भारतमेव वर्षं
कालेन यावद्गतवान् प्रभासम्।
तावच्छशासक्षितिमेकचक्रां
एकातपत्रामजितेन पार्थः॥

अनुवाद:
"इस प्रकार विदुर भारतवर्ष में तीर्थ यात्रा करते हुए, समय के साथ प्रभास क्षेत्र पहुंचे। उस समय पांडव, भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से समस्त धरती पर शासन कर रहे थे, और उनका राज्य अभेद्य और अखंड था।"


श्लोक 21

तत्राथ शुश्राव सुहृद्विनष्टिं
वनं यथा वेणुजवह्निसंश्रयम्।
संस्पर्धया दग्धमथानुशोचन्
सरस्वतीं प्रत्यगियाय तूष्णीम्॥

अनुवाद:
"प्रभास क्षेत्र में विदुर ने सुना कि यदुवंशी आपसी कलह के कारण नष्ट हो गए, जैसे बाँस के वन में अग्नि लग जाती है। इसे सुनकर उन्होंने गहरी पीड़ा महसूस की और सरस्वती नदी के तट पर मौन होकर चले गए।"


श्लोक 22

तस्यां त्रितस्योशनसो मनोश्च
पृथोरथाग्नेरसितस्य वायोः।
तीर्थं सुदासस्य गवां गुहस्य
यत् श्राद्धदेवस्य स आसिषेवे॥

अनुवाद:
"सरस्वती के तट पर विदुर ने त्रित, उशना (शुक्राचार्य), मनु, पृथु, अग्नि, असित, वायु, सुदास, गवां, गुह और श्राद्धदेव के तीर्थों का दर्शन किया और उनकी सेवा की।"


श्लोक 23

अन्यानि चेह द्विजदेवदेवैः
कृतानि नानायतनानि विष्णोः।
प्रत्यङ्गमुख्याङ्कितमन्दिराणि
यद्दर्शनात् कृष्णमनुस्मरन्ति॥

अनुवाद:
"विदुर ने उन तीर्थ स्थलों का भी दर्शन किया, जो ब्राह्मणों, देवताओं और भगवान विष्णु की आराधना के लिए विख्यात थे। इन स्थलों के दर्शन मात्र से ही मनुष्य भगवान कृष्ण को स्मरण करने लगता है।"


श्लोक 24

ततस्त्वतिव्रज्य सुराष्ट्रमृद्धं
सौवीरमत्स्यान् कुरुजाङ्गलांश्च।
कालेन तावद्यमुनामुपेत्य
तत्रोद्धवं भागवतं ददर्श॥

अनुवाद:
"इस प्रकार विदुर सुराष्ट्र, सौवीर, मत्स्य, और कुरुजांगल जैसे समृद्ध क्षेत्रों की यात्रा करते हुए, अंततः कालांतर में यमुना नदी के तट पर पहुंचे, जहाँ उन्होंने उद्धव से भेंट की।"


श्लोक 25

स वासुदेवानुचरं प्रशान्तं
बृहस्पतेः प्राक्तनयं प्रतीतम्।
आलिङ्ग्यगाढं प्रणयेन भद्रं
स्वानामपृच्छद्भागवत्प्रजानाम्॥

अनुवाद:
"विदुर ने वासुदेव के प्रिय भक्त उद्धव को, जो शांतचित्त और भक्तिमय थे, गले लगाकर प्रेमपूर्वक उनसे अपने परिजनों और भगवान की भक्ति में लगे प्रजाजनों की कुशलता के बारे में पूछा।"


श्लोक 26

कच्चित्पुराणौ पुरुषौ स्वनाभ्य
पाद्मानुवृत्त्येह किलावतीर्णौ।
आसात उर्व्याः कुशलं विधाय
कृतक्षणौ कुशलं शूरगेहे॥

अनुवाद:
"विदुर ने पूछा— 'क्या भगवान श्रीकृष्ण और बलराम, जो स्वयं पुराण पुरुष हैं और स्वेच्छा से पृथ्वी पर अवतरित हुए थे, अब भी शूरसेन के घर (यदुकुल) में सबका कल्याण कर रहे हैं?'"


श्लोक 27

कच्चित्कुरूणां परमः सुहृन्नो
भामः स आस्ते सुखमङ्ग शौरिः।
यो वै स्वसॄणां पितृवद्ददाति
वरान्वदान्यो वरतर्पणेन॥

अनुवाद:
"'क्या कौरवों के परम मित्र, दानशील श्रीकृष्ण, जो अपनी बहनों को पिता की तरह वरदान देते हैं, सुखपूर्वक हैं?'"


श्लोक 28

कच्चिद्वरूथाधिपतिर्यदूनां
प्रद्युम्न आस्ते सुखमङ्गवीरः।
यं रुक्मिणी भगवतोऽभिलेभे
आराध्य विप्रान्स्मरमादिसर्गे॥

अनुवाद:
"'क्या यदुवंशी सेनापति और वीर प्रद्युम्न, जिन्हें भगवान श्रीकृष्ण की पत्नी रुक्मिणी ने भगवान की आराधना करके पुत्र रूप में प्राप्त किया, सुखपूर्वक हैं?'"


श्लोक 29

कच्चित्सुखं सात्वतवृष्णिभोज
दाशार्हकाणामधिपः स आस्ते।
यमभ्यषिञ्चच्छतपत्रनेत्रो
नृपासनाशां परिहृत्य दूरात्॥

अनुवाद:
"'क्या सात्वत, वृष्णि, भोज और दशार्ह कुलों के अधिपति भगवान श्रीकृष्ण, जिनकी दीक्षा स्वयं इंद्र ने की थी, सुखपूर्वक हैं?'"


श्लोक 30

कच्चिद् हरेः सौम्य सुतः सदृक्ष
आस्तेऽग्रणी रथिनां साधु साम्बः।
असूत यं जाम्बवती व्रताढ्या
देवं गुहं योऽम्बिकया धृतोऽग्रे॥

अनुवाद:
"'क्या श्रीकृष्ण का पुत्र साम्ब, जो रथी वीरों में अग्रणी हैं और जिनका जन्म जाम्बवती के तप से हुआ था, सुखपूर्वक हैं?'"


श्लोक 31

क्षेमं स कच्चिद्युयुधान आस्ते
यः फाल्गुनाल्लब्ध धनूरहस्यः।
लेभेऽञ्जसाधोक्षजसेवयैव
गतिं तदीयां यतिभिर्दुरापाम्॥

अनुवाद:
"'क्या सात्यकि (युयुधान), जिन्होंने अर्जुन से धनुर्विद्या का रहस्य प्राप्त किया और अपनी सच्ची भक्ति द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की सेवा करते हुए वह स्थिति प्राप्त की, जो योगियों के लिए भी दुर्लभ है, सुखपूर्वक हैं?'"


श्लोक 32

कच्चिद्बुधः स्वस्त्यनमीव आस्ते
श्वफल्कपुत्रो भगवत्प्रपन्नः।
यः कृष्णपादाङ्कितमार्गपांसु-
ष्वचेष्टत प्रेमविभिन्नधैर्यः॥

अनुवाद:
"'क्या श्वफल्क के पुत्र अक्रूर, जो भगवान के परम भक्त हैं और भगवान श्रीकृष्ण के चरणचिह्नों की रज में लोटने से प्रेमावेश में अपनी स्थिरता खो देते थे, सुखपूर्वक हैं?'"


श्लोक 33

कच्चिच्छिवं देवकभोजपुत्र्या
विष्णुप्रजाया इव देवमातुः।
या वै स्वगर्भेण दधार देवं
त्रयी यथा यज्ञवितानमर्थम्॥

अनुवाद:
"'क्या देवकी, जो भगवान विष्णु की माता के समान हैं और जिन्होंने अपने गर्भ में भगवान श्रीकृष्ण को धारण किया, जैसे वेदों ने यज्ञ को स्थापित किया, सुखपूर्वक हैं?'"


श्लोक 34

अपिस्विदास्ते भगवान् सुखं वो
यः सात्वतां कामदुघोऽनिरुद्धः।
यमामनन्ति स्म हि शब्दयोनिं
मनोमयं सत्त्वतुरीयतत्त्वम्॥

अनुवाद:
"'क्या भगवान अनिरुद्ध, जो सात्वतों के सभी इच्छाओं को पूर्ण करने वाले हैं, और जिन्हें 'शब्द ब्रह्म' और 'मनमय' कहा जाता है, सुखपूर्वक हैं?'"


श्लोक 35

अपिस्विदन्ये च निजात्मदैवं
अनन्यवृत्त्या समनुव्रता ये।
हृदीकसत्यात्मज चारुदेष्ण
गदादयः स्वस्ति चरन्ति सौम्य॥

अनुवाद:
"'क्या अनन्य भाव से भगवान की सेवा करने वाले सात्वतों के अन्य राजा जैसे हृदीक, सत्यक, चारुदेष्ण, गद और अन्य सदस्य भी कुशलपूर्वक हैं?'"


श्लोक 36

अपि स्वदोर्भ्यां विजयाच्युताभ्यां
धर्मेण धर्मः परिपाति सेतुम्।
दुर्योधनोऽतप्यत यत्सभायां
साम्राज्यलक्ष्म्या विजयानुवृत्त्या॥

अनुवाद:
"'क्या धर्मराज युधिष्ठिर और भगवान श्रीकृष्ण, जिनकी भुजाओं से धर्म का पालन होता है, सुखपूर्वक हैं? और क्या दुर्योधन अब भी उस सभा में किए गए अपने अधर्म के लिए पछता रहा है, जहाँ युधिष्ठिर को साम्राज्य का आशीर्वाद मिला था?'"


श्लोक 37

किं वा कृताघेष्वघमत्यमर्षी
भीमोऽहिवद्दीर्घतमं व्यमुञ्चत्।
यस्याङ्घ्रिपातं रणभूर्न सेहे
मार्गं गदायाश्चरतो विचित्रम्॥

अनुवाद:
"'क्या भीम, जो अपने शत्रुओं के लिए सर्प के समान क्रोधी हैं, अब भी अपने विरोधियों के प्रति कठोरता का पालन करते हैं? उनकी गदा के प्रहारों से युद्धभूमि भी कांप जाती थी।'"


श्लोक 38

कच्चिद् यशोधा रथयूथपानां
गाण्डीव धन्वोपरतारिरास्ते।
अलक्षितो यच्छरकूटगूढो
मायाकिरातो गिरिशस्तुतोष॥

अनुवाद:
"'क्या अर्जुन, जो गाण्डीव धनुष के धनी और रथों के सेनापति हैं, सुखपूर्वक हैं? जिनके द्वारा भगवान शिव ने स्वयं प्रसन्न होकर उन्हें पाशुपत अस्त्र प्रदान किया था।'"


श्लोक 39

यमावुतस्वित्तनयौ पृथायाः
पार्थैर्वृतौ पक्ष्मभिरक्षिणीव।
रेमात उद्दाय मृधे स्वरिक्थं
परात्सुपर्णाविव वज्रिवक्त्रात्॥

अनुवाद:
"'क्या नकुल और सहदेव, जो पृथ्वी के दो सुंदर रत्न हैं, और जो युद्ध में विजय के बाद शत्रुओं से अपने अधिकारों को पुनः प्राप्त कर चुके हैं, सुखपूर्वक हैं?'"


श्लोक 40

अहो पृथापि ध्रियतेऽर्भकार्थे
राजर्षिवर्येण विनापि तेन।
यस्त्वेकवीरोऽधिरथो विजिग्ये
धनुर्द्वितीयः ककुभश्चतस्रः॥

अनुवाद:
"'क्या माता कुंती, जिन्होंने अपने पुत्रों के लिए असीम दुःख सहा और अब उनके बिना भी जी रही हैं, सुखपूर्वक हैं? उनके पुत्रों ने युद्ध में चारों दिशाओं के शासकों को पराजित किया था।'"


श्लोक 41

सौम्यानुशोचे तमधःपतन्तं
भ्रात्रे परेताय विदुद्रुहे यः।
निर्यापितो येन सुहृत्स्वपुर्या
अहं स्वपुत्रान् समनुव्रतेन॥

अनुवाद:
"'हे सौम्य उद्धव! मैं उन पर शोक करता हूँ जो अपने धर्म का पालन न कर पाने के कारण अपने सगे संबंधियों और मित्रों को दुःख देकर गिर चुके हैं।'"


श्लोक 42

सोऽहं हरेर्मर्त्यविडम्बनेन
दृशो नृणां चालयतो विधातुः।
नान्योपलक्ष्यः पदवीं प्रसादात्
चरामि पश्यन् गतविस्मयोऽत्र॥

अनुवाद:
"'मैं, भगवान श्रीहरि की इस लीला में, जो मानव रूप में हुई, उनके उन कार्यों को देख रहा हूँ जो लोगों को चकित करते हैं। लेकिन अब, उनके कृपा-प्रसाद से मैं उनकी दिव्य पदवी को समझते हुए, बिना किसी विस्मय के इस संसार में विचरण कर रहा हूँ।'"


श्लोक 43

नूनं नृपाणां त्रिमदोत्पथानां
महीं मुहुश्चालयतां चमूभिः।
वधात्प्रपन्नार्तिजिहीर्षयेशोऽपि
उपैक्षताघं भगवान् कुरूणाम्॥

अनुवाद:
"'राजाओं के तीन प्रकार के मद (धन, बल, और सत्ता) के कारण उनकी सेनाएँ पृथ्वी को बार-बार कष्ट देती थीं। फिर भी भगवान ने कौरवों के पापों को सहन किया, ताकि वे स्वयं अपने विनाश का कारण बनें।'"


श्लोक 44

अजस्य जन्मोत्पथनाशनाय
कर्माण्यकर्तुर्ग्रहणाय पुंसाम्।
नन्वन्यथा कोऽर्हति देहयोगं
परो गुणानामुत कर्मतंत्रम्॥

अनुवाद:
"'भगवान अजन्मा होकर भी केवल अधर्म का नाश करने और धर्म की स्थापना के लिए शरीर धारण करते हैं। अन्य कोई जीव इस प्रकार गुणों और कर्मों के बंधन से मुक्त होकर देहधारण नहीं कर सकता।'"


श्लोक 45

तस्य प्रपन्नाखिललोकपानां
अवस्थितानां अनुशासने स्वे।
अर्थाय जातस्य यदुष्वजस्य
वार्तां सखे कीर्तय तीर्थकीर्तेः॥

अनुवाद:
"'हे सखे उद्धव! जो भगवान समस्त लोकों के रक्षक हैं और धर्म की स्थापना के लिए यदुवंश में अवतरित हुए थे, उनकी दिव्य कथाओं को सुनाकर हमें लाभान्वित करें।'"


इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे विदुरोद्धवसंवादे प्रथमोऽध्यायः समाप्तः॥

"'इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण के तृतीय स्कंध के विदुर और उद्धव संवाद में प्रथम अध्याय समाप्त होता है।'"


यहाँ तक भागवत तृतीय स्कंध, प्रथम अध्याय (हिन्दी अनुवाद) के सभी श्लोकों का अनुवाद और भावार्थ प्रस्तुत किया गया है। यदि आप भागवत तृतीय स्कंध, प्रथम अध्याय (हिन्दी अनुवाद) के किसी श्लोक की गहन व्याख्या या विशेष संदर्भ चाहते हैं, तो कृपया कमेंट में बताएं।

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भागवत दर्शन: भागवत तृतीय स्कंध, प्रथम अध्याय (हिन्दी अनुवाद)
भागवत तृतीय स्कंध, प्रथम अध्याय (हिन्दी अनुवाद)
भागवत तृतीय स्कंध, प्रथम अध्याय (हिन्दी अनुवाद)।यहाँ तक भागवत तृतीय स्कंध,प्रथम अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के सभी श्लोकों का अनुवाद और भावार्थ प्रस्तुत है।
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