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भागवत द्वादश स्कन्ध, प्रथम अध्याय(हिन्दी अनुवाद)

Here is the image depicting the sages and kings from the Bhagavata Purana, capturing the serene and divine atmosphere of King Parikshit list...

भागवत प्रथम स्कन्ध, सप्तम अध्याय(हिन्दी अनुवाद)

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भागवत प्रथम स्कन्ध, सप्तम अध्याय(हिन्दी अनुवाद) यहाँ दिया जा रहा है। भागवत प्रथम स्कन्ध, सप्तम अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के सभी श्लोकों के साथ अर्थ भी ।

भागवत प्रथम स्कन्ध, सप्तम अध्याय(हिन्दी अनुवाद)

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भागवत प्रथम स्कन्ध, सप्तम अध्याय(हिन्दी अनुवाद)

यह चित्र अर्जुन को अपने गाण्डीव धनुष के साथ वीरता से खड़े दिखाता है, अश्वत्थामा को बंधित और पराजित योद्धा के रूप में प्रस्तुत किया गया है। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के बगल में खड़े हैं, शांति और दिव्यता का प्रकाश बिखेरते हुए। पृष्ठभूमि में युद्ध के बाद का दृश्य है, जो न्याय और धर्म के इस महत्वपूर्ण क्षण को दर्शाता है।



श्रीमद्भागवत महापुराण, प्रथम स्कंध, सप्तम अध्याय का हिन्दी अनुवाद


श्लोक 1:

शौनक उवाच
निर्गते नारदे सूत भगवान् बादरायणः ।
श्रुतवांस्तदभिप्रेतं ततः किमकरोद् विभुः ॥

अनुवाद:
शौनक मुनि ने कहा: हे सूतजी, नारद मुनि के जाने के बाद, भगवान बादरायण (व्यास) ने जो कुछ नारद ने कहा, उसे सुनने के बाद क्या किया?


श्लोक 2:

सूत उवाच
ब्रह्मनद्यां सरस्वत्यां आश्रमः पश्चिमे तटे ।
शम्याप्रास इति प्रोक्त ऋषीणां सत्रवर्धनः ॥। २ ॥

अनुवाद:
सूतजी बोले: सरस्वती नदी के पश्चिमी तट पर, जिसे शम्याप्रास कहा जाता है, ऋषियों के सत्संग के लिए प्रसिद्ध एक आश्रम स्थित है।


श्लोक 3:

तस्मिन् स्व आश्रमे व्यासो बदरीषण्डमण्डिते ।
आसीनोऽप उपस्पृश्य प्रणिदध्यौ मनः स्वयम् ॥। ३ ॥

अनुवाद:
अपने आश्रम में, जो बदरी वृक्षों से घिरा हुआ था, व्यासजी ने पवित्र जल से आचमन करके ध्यान के लिए मन को स्थिर किया।


श्लोक 4:

भक्तियोगेन मनसि सम्यक् प्रणिहितेऽमले ।
अपश्यत् पुरुषं पूर्णं मायां च तदपाश्रयम् ॥। ४ ॥

अनुवाद:
भक्तियोग से अपने मन को शुद्ध और स्थिर करने पर, उन्होंने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान और उनकी अधीन माया का साक्षात्कार किया।


श्लोक 5:

यया संमोहितो जीव आत्मानं त्रिगुणात्मकम् ।
परोऽपि मनुतेऽनर्थं तत्कृतं चाभिपद्यते ॥। ५ ॥

अनुवाद:
जिस माया से भ्रमित होकर जीव, जो त्रिगुणात्मिका माया का अंश नहीं है, स्वयं को उससे संबंधित मानता है और अनर्थकारी कर्मों में उलझ जाता है।


श्लोक 6:

अनर्थोपशमं साक्षाद् भक्तियोगमधोक्षजे ।
लोकस्याजानतो विद्वांन् चक्रे सात्वतसंहिताम् ॥। ६ ॥

अनुवाद:
उन्होंने लोक के अज्ञान को दूर करने और भगवान के प्रति भक्ति के माध्यम से अनर्थों के समाधान के लिए भागवत संहिता की रचना की।


श्लोक 7:

यस्यां वै श्रूयमाणायां कृष्णे परमपूरुषे ।
भक्तिरुत्पद्यते पुंसः शोकमोहभयापहा ॥। ७ ॥

अनुवाद:
इस भागवत कथा के श्रवण से परम पुरुष श्रीकृष्ण के प्रति भक्ति उत्पन्न होती है, जो शोक, मोह और भय को समाप्त कर देती है।


श्लोक 8:

स संहितां भागवतीं कृत्वानुक्रम्य चात्मजम् ।
शुकं अध्यापयामास निवृत्तिनिरतं मुनिः ॥। ८ ॥

अनुवाद:
महर्षि व्यास ने भागवत संहिता की रचना की और उसे अपने पुत्र शुकदेव, जो निवृत्ति मार्ग में स्थित थे, को पढ़ाया।


श्लोक 9:

शौनक उवाच
स वै निवृत्तिनिरतः सर्वत्रोपेक्षको मुनिः ।
कस्य वा बृहतीं एतां आत्मारामः समभ्यसत् ॥

अनुवाद:
शौनक मुनि ने पूछा: वह शुकदेव मुनि, जो निवृत्ति मार्ग में स्थित और सब कुछ त्याग चुके थे, तथा आत्माराम थे, उन्होंने इस भागवत का अध्ययन क्यों और किसके लिए किया?


श्लोक 10:

सूत उवाच
आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे ।
कुर्वन्ति अहैतुकीं भक्तिं इत्थंभूतगुणो हरिः ॥

अनुवाद:
सूतजी बोले: आत्माराम मुनि, जो निर्ग्रंथ (सांसारिक बंधनों से मुक्त) होते हैं, भगवान उरुक्रम (श्रीकृष्ण) के अद्भुत गुणों के कारण स्वाभाविक रूप से अहैतुकी भक्ति करते हैं।


श्लोक 11:

हरेर्गुणाक्षिप्तमतिः भगवान् बादरायणिः ।
अध्यगान् महदाख्यानं नित्यं विष्णुजनप्रियः ॥

अनुवाद:
भगवान व्यास (बादरायण), जो श्रीहरि के गुणों से आकर्षित थे, उन्होंने यह महान कथा रची और यह कथा विष्णु भक्तों को अत्यंत प्रिय है।


श्लोक 12:

परीक्षितोऽथ राजर्षेः जन्मकर्मविलापनम् ।
संस्थां च पाण्डुपुत्राणां वक्ष्ये कृष्णकथोदयम् ॥

अनुवाद:
अब मैं राजर्षि परीक्षित के जन्म, उनके कर्म, और उनके अंतिम समय का वर्णन करता हूँ, जो कृष्ण कथा के उदय के कारण प्रसिद्ध है।


श्लोक 13:

यदा मृधे कौरवसृञ्जयानां
वीरेष्वथो वीरगतिं गतेषु ।
वृकोदराविद्धगदाभिमर्श
भग्नोरुदण्डे धृतराष्ट्रपुत्रे ॥

अनुवाद:
जब कौरवों और सृंजयों के योद्धा युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए और भीमसेन ने गदा के प्रहार से धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन की जांघ तोड़ दी।


श्लोक 14:

भर्तुः प्रियं द्रौणिरिति स्म पश्यन्
कृष्णासुतानां स्वपतां शिरांसि ।
उपाहरद् विप्रियमेव तस्य
जुगुप्सितं कर्म विगर्हयन्ति ॥

अनुवाद:
द्रोणपुत्र अश्वत्थामा ने अपने स्वामी दुर्योधन को प्रसन्न करने के लिए कृष्णा (द्रौपदी) के पुत्रों के सोते हुए सिर काटकर उन्हें दुर्योधन के पास लाया। इस जघन्य कर्म की सबने निंदा की।


श्लोक 15:

माता शिशूनां निधनं सुतानां
निशम्य घोरं परितप्यमाना ।
तदारुदद् बाष्पकलाकुलाक्षी
तां सांत्वयन्नाह किरीटमाली ॥

अनुवाद:
अपने पुत्रों की भयानक मृत्यु का समाचार सुनकर द्रौपदी अत्यधिक दुखी हो गईं और आँसू भरी आँखों से विलाप करने लगीं। तब अर्जुन ने उन्हें सांत्वना दी।


श्लोक 16:

तदा शुचस्ते प्रमृजामि भद्रे
यद्‍ब्रह्मबंधोः शिर आततायिनः ।
गाण्डीवमुक्तैः विशिखैरुपाहरे
त्वाक्रम्य यत्स्नास्यसि दग्धपुत्रा ॥

अनुवाद:
अर्जुन ने कहा: हे शुभे! मैं तुम्हारे आँसू पोंछ दूँगा। मैं उस ब्राह्मण के वेशधारी आततायी का सिर गाण्डीव से निकले बाणों से काटकर लाऊँगा, जिससे तुम अपने पुत्रों का अंतिम संस्कार कर सको।


श्लोक 17:

इति प्रियां वल्गुविचित्रजल्पैः
स सान्त्वयित्वाच्युतमित्रसूतः ।
अन्वाद्रवद् दंशित उग्रधन्वा
कपिध्वजो गुरुपुत्रं रथेन ॥

अनुवाद:
इस प्रकार अर्जुन ने अपनी प्रिय पत्नी द्रौपदी को सुंदर और प्रभावशाली शब्दों से सांत्वना दी। फिर श्रीकृष्ण के मित्र अर्जुन, जो अपने रथ पर कपिध्वज (हनुमान) का चिह्न लिए हुए थे, द्रोणपुत्र अश्वत्थामा का पीछा करने लगे।


श्लोक 18:

तमापतन्तं स विलक्ष्य दूरात्
कुमारहोद्विग्नमना रथेन ।
पराद्रवत् प्राणपरीप्सुरुर्व्यां
यावद्‍गमं रुद्रभयाद् यथार्कः ॥

अनुवाद:
द्रोणपुत्र अश्वत्थामा ने दूर से अर्जुन को अपनी ओर आते देखा। वह भयभीत होकर अपने जीवन की रक्षा के लिए धरती पर तेजी से भागने लगा, जैसे रुद्र (शिव) के क्रोध से बचने के लिए सूर्य भागता है।


श्लोक 19:

यदाशरणमात्मानं ऐक्षत श्रान्तवाजिनम् ।
अस्त्रं ब्रह्मशिरो मेने आत्मत्राणं द्विजात्मजः ॥

अनुवाद:
जब अश्वत्थामा ने अपने अश्वों को थका हुआ पाया और स्वयं को शरणहीन देखा, तो उसने अपने जीवन की रक्षा के लिए ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करना उचित समझा।


श्लोक 20:

अथोपस्पृश्य सलिलं सन्दधे तत्समाहितः ।
अजानन् उपसंहारं प्राणकृच्छ्र उपस्थिते ॥

अनुवाद:
अश्वत्थामा ने जल का आचमन करके एकाग्रचित्त होकर ब्रह्मास्त्र छोड़ा, परंतु उसे उस अस्त्र को वापस लेने की विधि का ज्ञान नहीं था।


श्लोक 21:

ततः प्रादुष्कृतं तेजः प्रचण्डं सर्वतो दिशम् ।
प्राणापदमभिप्रेक्ष्य विष्णुं जिष्णुरुवाच ह ॥

अनुवाद:
तब ब्रह्मास्त्र से निकली तेजस्वी ज्वाला चारों दिशाओं में फैल गई, और प्राणों पर संकट आता देख अर्जुन ने भगवान विष्णु (श्रीकृष्ण) से कहा।


श्लोक 22:

अर्जुन उवाच
कृष्ण कृष्ण महाबाहो भक्तानामभयङ्कर ।
त्वमेको दह्यमानानां अपवर्गोऽसि संसृतेः ॥

अनुवाद:
अर्जुन ने कहा: हे महाबाहु कृष्ण! हे भक्तों को भयमुक्त करने वाले! संसार सागर में डूब रहे लोगों के लिए आप ही एकमात्र मोक्षदाता हैं।


श्लोक 23:

त्वमाद्यः पुरुषः साक्षाद् ईश्वरः प्रकृतेः परः ।
मायां व्युदस्य चिच्छक्त्या कैवल्ये स्थित आत्मनि ॥

अनुवाद:
आप साक्षात् आदिपुरुष और प्रकृति से परे परमेश्वर हैं। अपनी चेतना शक्ति से माया का त्याग करके आप मोक्ष स्थिति में स्थित हैं।


श्लोक 24:

स एव जीवलोकस्य मायामोहितचेतसः ।
विधत्से स्वेन वीर्येण श्रेयो धर्मादिलक्षणम् ॥

अनुवाद:
आप अपने वीर्य (परमशक्ति) के द्वारा मायामोहित चित्त वाले जीवों को धर्म और मोक्ष का कल्याणकारी मार्ग दिखाते हैं।


श्लोक 25:

तथायं चावतारस्ते भुवो भारजिहीर्षया ।
स्वानां चानन्यभावानां अनुध्यानाय चासकृत् ॥

अनुवाद:
आपने पृथ्वी के भार को कम करने और अपने भक्तों के लिए, जो केवल आपमें मन लगाते हैं, बार-बार ध्यान करने के लिए अवतार लिया है।


श्लोक 26:

किमिदं स्वित्कुतो वेति देवदेव न वेद्‌म्यहम् ।
सर्वतो मुखमायाति तेजः परमदारुणम् ॥

अनुवाद:
हे देवताओं के देवता! यह अत्यंत भयानक तेजस्वी ज्वाला कहां से आ रही है और क्या है? मैं इसे नहीं समझ पा रहा हूँ।


श्लोक 27:

श्रीभगवानुवाच
वेत्थेदं द्रोणपुत्रस्य ब्राह्ममस्त्रं प्रदर्शितम् ।
नैवासौ वेद संहारं प्राणबाध उपस्थिते ॥

अनुवाद:
भगवान ने कहा: यह द्रोणपुत्र का ब्रह्मास्त्र है, जिसे उसने छोड़ा है। लेकिन उसे इस अस्त्र को वापस लेने की विधि का ज्ञान नहीं है।


श्लोक 28:

न ह्यस्यान्यतमं किञ्चिद् अस्त्रं प्रत्यवकर्शनम् ।
जह्यस्त्रतेज उन्नद्धं अस्त्रज्ञो ह्यस्त्रतेजसा ॥

अनुवाद:
किसी अन्य अस्त्र द्वारा इसे रोका नहीं जा सकता। इसे केवल ब्रह्मास्त्र के तेज से ही शांत किया जा सकता है। अतः इसका मुकाबला करो।


श्लोक 29:

श्रुत्वा भगवता प्रोक्तं फाल्गुनः परवीरहा ।
स्पृष्ट्वापस्तं परिक्रम्य ब्राह्मं ब्राह्माय संदधे ॥

अनुवाद:
भगवान की आज्ञा सुनकर, अर्जुन, जो शत्रुओं का संहारक था, जल का आचमन करके और भगवान की परिक्रमा करके, ब्रह्मास्त्र का सामना करने के लिए अपना ब्रह्मास्त्र छोड़ा।


श्लोक 30:

संहत्य अन्योन्यं उभयोः तेजसी शरसंवृते ।
आवृत्य रोदसी खं च ववृधातेऽर्कवह्निवत् ॥

अनुवाद:
दोनों ब्रह्मास्त्रों के तेज ने एक-दूसरे का सामना किया। उनके प्रकाश ने आकाश और पृथ्वी को ढक लिया और सूर्य तथा अग्नि के समान प्रचंड रूप धारण कर लिया।


श्लोक 31:

दृष्ट्वास्त्रतेजस्तु तयोः त्रिँल्लोकान् प्रदहन्महत् ।
दह्यमानाः प्रजाः सर्वाः सांवर्तकममंसत ॥

अनुवाद:
दोनों ब्रह्मास्त्रों के तेज ने तीनों लोकों को जलाने जैसा प्रभाव उत्पन्न किया। सभी प्राणी इसे प्रलय का अग्निकांड समझने लगे।


श्लोक 32:

प्रजोपप्लवमालक्ष्य लोकव्यतिकरं च तम् ।
मतं च वासुदेवस्य संजहारार्जुनो द्वयम् ॥

अनुवाद:
प्रजा पर आए संकट और लोक में उत्पन्न विकार को देखकर, अर्जुन ने भगवान वासुदेव की आज्ञा से दोनों अस्त्रों का शमन कर दिया।


श्लोक 33:

तत आसाद्य तरसा दारुणं गौतमीसुतम् ।
बबंधामर्षताम्राक्षः पशुं रशनया यथा ॥

अनुवाद:
तत्पश्चात् अर्जुन ने क्रोध से लाल आँखों के साथ गौतमी (द्रोणाचार्य की पत्नी) के पुत्र अश्वत्थामा को पकड़ लिया और एक पशु की तरह रस्सी से बांध दिया।


श्लोक 34:

शिबिराय निनीषन्तं रज्ज्वा बद्ध्वा रिपुं बलात् ।
प्राहार्जुनं प्रकुपितो भगवान् अंबुजेक्षणः ॥

अनुवाद:
जब अर्जुन अश्वत्थामा को शिबिर (शिविर) में ले जाने लगे, तो भगवान श्रीकृष्ण, कमलनयन, क्रोधित होकर अर्जुन से बोले।


श्लोक 35:

मैनं पार्थार्हसि त्रातुं ब्रह्मबंधुमिमं जहि ।
यो असौ अनागसः सुप्तान् अवधीन्निशि बालकान् ॥

अनुवाद:
भगवान ने कहा: हे पार्थ! इस ब्राह्मण के वेशधारी पापी को बचाने का प्रयास मत करो। उसने निर्दोष और सोते हुए बालकों को रात में मार डाला।


श्लोक 36:

मत्तं प्रमत्तमुन्मत्तं सुप्तं बालं स्त्रियं जडम् ।
प्रपन्नं विरथं भीतं न रिपुं हन्ति धर्मवित् ॥

अनुवाद:
जो धर्म को जानता है, वह कभी मदहोश, लापरवाह, पागल, सोते हुए, बालक, स्त्री, मूर्ख, आत्मसमर्पण करने वाले, निःशस्त्र या भयभीत शत्रु को नहीं मारता।


श्लोक 37:

स्वप्राणान्यः परप्राणैः प्रपुष्णात्यघृणः खलः ।
तद् वधस्तस्य हि श्रेयो यद् दोषाद्यात्यधः पुमान् ॥

अनुवाद:
जो निर्दयी और नीच व्यक्ति दूसरों के प्राणों को अपने प्राणों से अधिक महत्व देता है, उसका वध ही उसके दोषों से मुक्त होने का श्रेष्ठ उपाय है।


श्लोक 38:

प्रतिश्रुतं च भवता पाञ्चाल्यै श्रृण्वतो मम ।
आहरिष्ये शिरस्तस्य यस्ते मानिनि पुत्रहा ॥

अनुवाद:
आपने द्रौपदी से यह प्रतिज्ञा की थी कि आप उस व्यक्ति का सिर लाएँगे, जिसने उसके पुत्रों की हत्या की है। यह प्रतिज्ञा पूरी होनी चाहिए।


श्लोक 39:

तदसौ वध्यतां पाप आतताय्यात्मबंधुहा ।
भर्तुश्च विप्रियं वीर कृतवान् कुलपांसनः ॥

अनुवाद:
यह पापी, जो आततायी और अपने स्वामी का अपमान करने वाला है, तथा कुल का कलंक है, इसे अवश्य मारा जाना चाहिए।


श्लोक 40:

सूत उवाच
एवं परीक्षता धर्मं पार्थः कृष्णेन चोदितः ।
नैच्छद् हन्तुं गुरुसुतं यद्यप्यात्महनं महान् ॥

अनुवाद:
सूतजी बोले: इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण द्वारा धर्म की परीक्षा लेते हुए प्रेरित होने पर भी अर्जुन ने द्रोणपुत्र को मारने की इच्छा नहीं की, यद्यपि उसने महान अपराध किया था।


श्लोक 41:

अथोपेत्य स्वशिबिरं गोविंदप्रियसारथिः ।
न्यवेदयत् तं प्रियायै शोचन्त्या आत्मजान् हतान् ॥

अनुवाद:
गोविंद (श्रीकृष्ण) के प्रिय सारथी अर्जुन, अश्वत्थामा को रस्सी से बाँधकर अपने शिविर में ले आए और उसे अपने पुत्रों के लिए विलाप कर रही द्रौपदी को सौंप दिया।


श्लोक 42:

तथाहृतं पशुवत्पाशबद्धं
अवाङ्मुखं कर्मजुगुप्सितेन ।
निरीक्ष्य कृष्णापकृतं गुरोः सुतं
वामस्वभावा कृपया ननाम च ॥

अनुवाद:
पशु की तरह रस्सी से बंधे और अपराधी के समान सिर झुकाए हुए अश्वत्थामा को देखकर, द्रौपदी, जो स्वभाव से कोमल थीं, उसे क्षमा करने की कृपा से झुक गईं।


श्लोक 43:

उवाच चासहन्त्यस्य बंधनानयनं सती ।
मुच्यतां मुच्यतां एष ब्राह्मणो नितरां गुरुः ॥

अनुवाद:
द्रौपदी ने, जो एक धर्मपत्नी थीं, अश्वत्थामा का बंधन और अपमान सहन नहीं कर सकीं। उन्होंने कहा: इसे मुक्त करो, मुक्त करो। यह ब्राह्मण है और गुरु का पुत्र है।


श्लोक 44:

सरहस्यो धनुर्वेदः सविसर्गोपसंयमः ।
अस्त्रग्रामश्च भवता शिक्षितो यदनुग्रहात् ॥

अनुवाद:
द्रौपदी ने कहा: धनुर्वेद और इसके सभी रहस्यों को, जिसमें अस्त्र छोड़ने और वापस लेने की विधि शामिल है, आपने इन्हीं गुरु (द्रोणाचार्य) की कृपा से सीखा है।


श्लोक 45:

स एष भगवान् द्रोणः प्रजारूपेण वर्तते ।
तस्यात्मनोऽर्धं पत्‍न्याः ते नान्वगाद् वीरसूः कृपी ॥

अनुवाद:
यह अश्वत्थामा गुरु द्रोण का ही अंश है, जो अब प्रजा के रूप में विद्यमान है। उसकी माता कृपी अपने पति के अर्धभाग को धारण करती है, और वह वीरों की माता है।


श्लोक 46:

तद् धर्मज्ञ महाभाग भवद्‌भिः र्गौरवं कुलम् ।
वृजिनं नार्हति प्राप्तुं पूज्यं वन्द्यमभीक्ष्णशः ॥

अनुवाद:
हे धर्मज्ञ महाभाग अर्जुन! आपके द्वारा इस कुल का गौरव नष्ट नहीं होना चाहिए। गुरु का कुल सदैव पूज्य और वंदनीय है।


श्लोक 47:

मा रोदीदस्य जननी गौतमी पतिदेवता ।
यथाहं मृतवत्साऽर्ता रोदिम्यश्रुमुखी मुहुः ॥

अनुवाद:
गौतम की पुत्री कृपी, जो अपने पति की परम भक्त हैं, इस शोक में विलाप न करें, जैसे मैं अपने मृत पुत्रों के लिए आँसू बहा रही हूँ।


श्लोक 48:

यैः कोपितं ब्रह्मकुलं राजन्यैरजितात्मभिः ।
तत् कुलं प्रदहत्याशु सानुबंधं शुचार्पितम् ॥

अनुवाद:
जो लोग ब्राह्मण कुल को क्रोधित करते हैं, उनके परिवार और वंश का शीघ्र ही सर्वनाश हो जाता है। इस बात का ध्यान रखना चाहिए।


श्लोक 49:

सूत उवाच
धर्म्यं न्याय्यं सकरुणं निर्व्यलीकं समं महत् ।
राजा धर्मसुतो राज्ञ्याः प्रत्यनंदद् वचो द्विजाः ॥

अनुवाद:
सूतजी बोले: धर्मराज युधिष्ठिर ने द्रौपदी के इस न्यायपूर्ण, करुणामय, और धर्मसंगत वचन को, जो ब्राह्मण और कुल के गौरव की रक्षा करता था, सहर्ष स्वीकार किया।


श्लोक 50:

नकुलः सहदेवश्च युयुधानो धनंजयः ।
भगवान् देवकीपुत्रो ये चान्ये याश्च योषितः ॥

अनुवाद:
नकुल, सहदेव, युयुधान (सात्यकि), अर्जुन, भगवान देवकीपुत्र श्रीकृष्ण और अन्य पांडव तथा उनके परिवार की महिलाएँ वहाँ उपस्थित थीं।


श्लोक 51:

तत्राहामर्षितो भीमः तस्य श्रेयान् वधः स्मृतः ।
न भर्तुर्नात्मनश्चार्थे योऽहन् सुप्तान् शिशून् वृथा ॥

अनुवाद:
भीमसेन वहाँ अत्यधिक क्रोधित थे। उन्होंने कहा कि वह व्यक्ति, जिसने बिना किसी कारण सोते हुए बच्चों को मार डाला, उसका वध ही उचित दंड है।


श्लोक 52:

निशम्य भीमगदितं द्रौपद्याश्च चतुर्भुजः ।
आलोक्य वदनं सख्युः इदमाह हसन्निव ॥

अनुवाद:
भीम के क्रोधपूर्ण वचन और द्रौपदी के करुणा भरे शब्द सुनकर, चतुर्भुज भगवान श्रीकृष्ण ने अपने मित्र अर्जुन के मुख की ओर देखकर हंसते हुए यह कहा।


श्लोक 53:

श्रीभगवानुवाच
ब्रह्मबंधुर्न हन्तव्य आततायी वधार्हणः ।
मयैवोभयमाम्नातं परिपाह्यनुशासनम् ॥

अनुवाद:
भगवान ने कहा: ब्राह्मण के वंशज को मारा नहीं जाना चाहिए, चाहे वह आततायी ही क्यों न हो। मैंने पहले ही दोनों विचारों का समर्थन किया है, अब इसे उचित रूप से पूरा करो।


श्लोक 54:

कुरु प्रतिश्रुतं सत्यं यत्तत् सांत्वयता प्रियाम् ।
प्रियं च भीमसेनस्य पाञ्चाल्या मह्यमेव च ॥

अनुवाद:
आपने जो प्रतिज्ञा की थी, उसे पूरा करें। यह द्रौपदी को सांत्वना देगा, भीम को प्रसन्न करेगा और मुझे भी प्रिय होगा।


श्लोक 55:

सूत उवाच
अर्जुनः सहसाऽऽज्ञाय हरेर्हार्दमथासिना ।
मणिं जहार मूर्धन्यं द्विजस्य सहमूर्धजम् ॥

अनुवाद:
सूतजी बोले: अर्जुन ने तुरंत भगवान श्रीकृष्ण के मन की बात समझ ली और अपनी तलवार से ब्राह्मण पुत्र अश्वत्थामा के सिर पर से उसका मणि और बाल काट लिए।


श्लोक 56:

विमुच्य रशनाबद्धं बालहत्याहतप्रभम् ।
तेजसा मणिना हीनं शिबिरान् निरयापयत् ॥

अनुवाद:
उस बाल हत्यारे अश्वत्थामा को, जो अपने तेज को मणि के खोने से पहले ही खो चुका था, रस्सी से मुक्त कर दिया और शिविर से बाहर निकाल दिया।


श्लोक 57:

वपनं द्रविणादानं स्थानान् निर्यापणं तथा ।
एष हि ब्रह्मबंधूनां वधो नान्योऽस्ति दैहिकः ॥

अनुवाद:
ब्राह्मण वंश के अपमानित व्यक्ति के लिए सिर मुंडवाना, धन छीन लेना और स्थान से निष्कासित करना यही दैहिक दंड है, हत्या नहीं।


श्लोक 58:

पुत्रशोकातुराः सर्वे पाण्डवाः सह कृष्णया ।
स्वानां मृतानां यत्कृत्यं चक्रुर्निर्हरणादिकम् ॥

अनुवाद:
पुत्रशोक से व्याकुल पांडव, द्रौपदी और श्रीकृष्ण ने अपने मृत स्वजनों का अंतिम संस्कार और उनके लिए उचित धार्मिक कृत्य किए।


इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे द्रौणिनिग्रहो नाम सप्तमोऽध्यायः समाप्तः।

इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण के प्रथम स्कंध के "द्रौणिनिग्रह" नामक सप्तम अध्याय का समापन हुआ।


भागवत प्रथम स्कन्ध, सप्तम अध्याय(हिन्दी अनुवाद) यहाँ दिया गया है। भागवत प्रथम स्कन्ध, सप्तम अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के सभी श्लोकों के साथ अर्थ भी दिया गया। आपको कैसा लगा कमेंट में बताइये।

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भागवत दर्शन: भागवत प्रथम स्कन्ध, सप्तम अध्याय(हिन्दी अनुवाद)
भागवत प्रथम स्कन्ध, सप्तम अध्याय(हिन्दी अनुवाद)
भागवत प्रथम स्कन्ध, सप्तम अध्याय(हिन्दी अनुवाद) यहाँ दिया जा रहा है। भागवत प्रथम स्कन्ध, सप्तम अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के सभी श्लोकों के साथ अर्थ भी ।
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भागवत दर्शन
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