भागवत द्वितीय स्कन्ध, द्वितीय अध्याय (हिन्दी अनुवाद)।यहाँ पर भागवत द्वितीय स्कन्ध, द्वितीय अध्याय (हिन्दी अनुवाद) के सम्पूर्ण श्लोकों का क्रमशः ।
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भागवत द्वितीय स्कन्ध, द्वितीय अध्याय (हिन्दी अनुवाद), परीक्षित शुक संवाद |
भागवत द्वितीय स्कन्ध, द्वितीय अध्याय (हिन्दी अनुवाद)
यहाँ पर भागवत द्वितीय स्कन्ध, द्वितीय अध्याय (हिन्दी अनुवाद) के सम्पूर्ण श्लोकों का क्रमशः हिन्दी अनुवाद दिया गया है।
श्लोक 1:
श्रीशुक उवाच:
एवं पुराधारणयाऽऽत्मयोनिः
नष्टां स्मृतिं प्रत्यवरुध्य तुष्टात्।
तथा ससर्जेदममोघदृष्टिः
यथाप्ययात्प्राक् व्यवसायबुद्धिः॥
अनुवाद:
श्री शुकदेव जी ने कहा: इस प्रकार ब्रह्मा जी ने भगवान की कृपा से अपनी नष्ट हुई स्मृति को पुनः प्राप्त कर लिया और प्रसन्न होकर अमोघ दृष्टि से सृष्टि की रचना की, जैसा उन्होंने पूर्वकाल में विचार किया था।
श्लोक 2:
शाब्दस्य हि ब्रह्मण एष पन्था
यन्नामभिर्ध्यायति धीरपार्थैः।
परिभ्रमन् तत्र न विन्दतेऽर्थान्
मायामये वासनयाशयानः॥
अनुवाद:
यह शब्द ब्रह्म का ही मार्ग है, जहाँ धीर पुरुष भगवान के नामों का ध्यान करते हैं। लेकिन जो व्यक्ति मायामय वासनाओं में बंधा हुआ है, वह भटकता रहता है और अर्थ को प्राप्त नहीं कर पाता।
श्लोक 3:
अतः कविर्नामसु यावदर्थः
स्यादप्रमत्तो व्यवसायबुद्धिः।
सिद्धेऽन्यथार्थे न यतेत तत्र
परिश्रमं तत्र समीक्षमाणः॥
अनुवाद:
इसलिए कवि (विद्वान) को भगवान के नामों में अर्थ की प्राप्ति तक प्रयासरत रहना चाहिए। किसी अन्य अर्थ की सिद्धि हो जाए, तो उसे उस दिशा में परिश्रम नहीं करना चाहिए।
श्लोक 4:
सत्यांक्षितौ किं कशिपोः प्रयासैः
बाहौ स्वसिद्धे ह्युपबर्हणैः किम्।
सत्यञ्जलौ किं पुरुधान्नपात्र्या
दिग्वल्कलादौ सति किं दुकूलैः॥
अनुवाद:
यदि धरती पर वस्त्र उपलब्ध हों, तो क्या अतिरिक्त प्रयास आवश्यक है? बलवान व्यक्ति के बाहुओं के होते हुए सहायक उपकरणों की क्या आवश्यकता? और जब भोजन हाथ में हो, तो पात्र की आवश्यकता क्यों हो?
श्लोक 5:
चीराणि किं पथि न सन्ति दिशन्ति भिक्षां
नैवाङ्घ्रिपाः परभृतः सरितोऽप्यशुष्यन्।
रुद्धा गुहाः किमजितोऽवति नोपसन्नान्
कस्माद् भजंति कवयो धनदुर्मदान्धान्॥
अनुवाद:
क्या रास्ते में वस्त्र नहीं मिलते? क्या वृक्ष भिक्षा नहीं देते? क्या नदियाँ सूख गई हैं? और क्या अजेय भगवान अपने भक्तों की रक्षा नहीं करते? फिर विद्वान धन के अहंकार में अंधे लोगों की सेवा क्यों करते हैं?
श्लोक 6:
एवं स्वचित्ते स्वत एव सिद्ध
आत्मा प्रियोऽर्थो भगवाननन्तः।
तं निर्वृतो नियतार्थो भजेत
संसारहेतूपरमश्च यत्र॥
अनुवाद:
इस प्रकार अपने हृदय में स्वभावतः स्थित, आत्मा के प्रिय, अनन्त भगवान ही एकमात्र लक्ष्य हैं। जो संसार के कारणों को समाप्त करने वाले हैं, उनके भक्त को नियमित और शांत होकर उनकी भक्ति करनी चाहिए।
श्लोक 7:
कस्तां त्वनादृत्य परानुचिन्तां
ऋते पशूनसतीं नाम कुर्यात्।
पश्यञ्जनं पतितं वैतरण्यां
स्वकर्मजान् परितापाञ्जुषाणम्॥
अनुवाद:
जो व्यक्ति संसार-सागर में पड़े हुए प्राणियों को देख रहा है, जो अपने कर्मों के परिणामस्वरूप दुख झेल रहे हैं, वह भगवान को छोड़कर किस प्रकार असत्य और पशुओं के समान विचारों में लग सकता है?
श्लोक 8:
केचित्स्वदेहान्तर्हृदयावकाशे
प्रादेशमात्रं पुरुषं वसन्तम्।
चतुर्भुजं कञ्जरथाङ्गशङ्ख
गदाधरं धारणया स्मरन्ति॥
अनुवाद:
कुछ योगी अपने शरीर के भीतर हृदय में स्थित, प्रादेश (अंगुल भर) मात्र आकार वाले भगवान का ध्यान करते हैं। वे भगवान चतुर्भुजधारी हैं और अपने हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किए हुए हैं।
श्लोक 9:
प्रसन्नवक्त्रं नलिनायतेक्षणं
कदम्बकिञ्जल्कपिशङ्गवाससम्।
लसन्महारत्नहिरण्मयाङ्गदं
स्फुरन्महारत्नकिरीटकुण्डलम्॥
अनुवाद:
उनके मुख पर प्रसन्नता झलकती है, आँखें कमल के समान हैं, और वे कदंब के पुष्प के रंग का वस्त्र धारण करते हैं। उनके स्वर्ण-निर्मित आभूषण और हीरे जड़े मुकुट तथा कुंडल चमकते रहते हैं।
श्लोक 10:
उन्निद्रहृत्पङ्कजकर्णिकालये
योगेश्वरास्थापितपादपल्लवम्।
श्रीलक्षणं कौस्तुभरत्नकन्धरं
अम्लानलक्ष्म्या वनमालयाचितम्॥
अनुवाद:
उनके चरण-कमल योगियों द्वारा हृदय-कमल की कर्णिका में स्थित किए जाते हैं। वे कौस्तुभ मणि से सुशोभित हैं, लक्ष्मीजी के प्रिय निवास हैं, और उनके आभूषण कभी मुरझाते नहीं।
श्लोक 11:
विभूषितं मेखलयाऽङ्गुलीयकैः
महाधनैर्नूपुरकङ्कणादिभिः।
स्निग्धामलाकुञ्चितनीलकुन्तलैः
विरोचमानाननहासपेशलम्॥
अनुवाद:
वे मेखला, अंगूठियाँ, नूपुर, कंगन आदि रत्न जड़ित आभूषणों से अलंकृत हैं। उनके घुंघराले और नीले केश स्निग्ध और स्वच्छ हैं। उनका मुखमंडल मुस्कान से सुशोभित रहता है।
श्लोक 12:
अदीनलीला हसितेक्षणोल्लसद्
भ्रूभङ्गसंसूचित भूर्यनुग्रहम्।
ईक्षेत चिन्तामयमेनमीश्वरं
यावन्मनोधारणयाऽवतिष्ठते॥
अनुवाद:
उनकी अद्भुत लीलाएं, हंसती हुई दृष्टि, और भौंहों के संकेत से अनुग्रह झलकता है। जब तक मन के धारणा-बल से ईश्वर का ध्यान किया जाए, तब तक मनुष्य उनकी इस रूप में कल्पना करे।
श्लोक 13:
एकैकशोऽङ्गानिधियानुभावयेत्
पादादि यावद् हसितं गदाभृतः।
जितं जितं स्थानमपोह्य धारयेत्
परं परं शुद्ध्यति धीर्यथा यथा॥
अनुवाद:
योगी भगवान के अंगों का ध्यान क्रमशः करें – चरणों से लेकर मुख की मुस्कान तक। जो अंग पूर्ण रूप से ध्यान में आ जाए, उससे आगे बढ़े। जैसे-जैसे योगी का मन स्थिर होता है, उसकी शुद्धि भी बढ़ती है।
श्लोक 14:
यावन्न जायेत परावरेऽस्मिन्
विश्वेश्वरे द्रष्टरि भक्तियोगः।
तावत्स्थवीयः पुरुषस्य रूपं
क्रियावसाने प्रयतः स्मरेत॥
अनुवाद:
जब तक भगवान विश्वेश्वर में परम और अपार स्वरूप का भक्तियोग जाग्रत न हो जाए, तब तक योगी को उनके विराट रूप का ध्यान करते हुए अपनी साधना जारी रखनी चाहिए।
श्लोक 15:
स्थिरं सुखं चासनमास्थितो यतिः
यदा जिहासुरिममङ्ग लोकम्।
काले च देशे च मनो न सज्जयेत्
प्राणान्नि यच्छेन्मनसाजितासुः॥
अनुवाद:
योगी को स्थिर और सुखद आसन में बैठना चाहिए। जब वह इस संसार को छोड़ने का इच्छुक हो, तो उचित समय और स्थान का चयन करके मन को संसार से हटा ले। फिर प्राणों को मन के द्वारा नियंत्रित करे।
श्लोक 16:
मनः स्वबुद्ध्याऽमलया नियम्य
क्षेत्रज्ञ एतां निनयेत तमात्मनि।
आत्मानमात्मन्यवरुध्य धीरो
लब्धोपशान्तिर्विरमेत कृत्यात्॥
अनुवाद:
योगी को अपनी बुद्धि से मन को शुद्ध और नियंत्रित करके आत्मा में केंद्रित करना चाहिए। आत्मज्ञानी होकर वह आत्मा को आत्मा में स्थिर करे और कृत्यों से विरक्त होकर शांति प्राप्त करे।
श्लोक 17:
न यत्र कालोऽनिमिषां परः प्रभुः
कुतो नु देवा जगतां य ईशिरे।
न यत्र सत्त्वं न रजस्तमश्च
न वै विकारो न महान् प्रधानम्॥
अनुवाद:
जहां काल, देवता और प्रकृति के गुण (सत्त्व, रज, तम) भी प्रभाव नहीं डाल सकते, वहां भगवान का वह परम धाम है। वहां न विकार है, न महतत्व, और न प्रकृति का प्रधान तत्त्व।
श्लोक 18:
परं पदं वैष्णवमामनन्ति तद्
यन्नेति नेतीत्यतदुत्सिसृक्षवः।
विसृज्य दौरात्म्यमनन्यसौहृदा
हृदोपगुह्यार्हपदं पदे पदे॥
अनुवाद:
वैष्णव लोग उसे भगवान का परम धाम कहते हैं, जो "नेति नेति" (यह नहीं, वह नहीं) द्वारा वर्णित होता है। वहां पहुँचने वाले अपनी दुर्बुद्धि को त्याग कर प्रेमपूर्वक भगवान के चरणों का आलिंगन करते हैं।
श्लोक 19:
इत्थं मुनिस्तूपरमेद्व्यवस्थितो
विज्ञानदृग्वीर्य सुरन्धिताशयः।
स्वपार्ष्णिनाऽपीड्य गुदं ततोऽनिलं
स्थानेषु षट्सून्नमयेज्जितक्लमः॥
अनुवाद:
इस प्रकार योगी, जिसने विज्ञान दृष्टि और आत्मबल से मन को नियंत्रित कर लिया है, अपने गुदा द्वारा प्राणवायु को नियंत्रित करके उसे छः स्थानों (चक्रों) में उठाते हुए अपनी ऊर्जा को जाग्रत करता है।
श्लोक 20:
नाभ्यां स्थितं हृद्यधिरोप्य तस्माद्
उदुदानगत्योरसि तं नयेन्मुनिः।
ततोऽनुसन्धाय धियामनस्वी
स्वतालुमूलं शनकैर्नयेत्॥
अनुवाद:
योगी पहले प्राणवायु को नाभि से हृदय तक लाए, फिर उदान ऊर्जा के माध्यम से छाती में ले जाए। उसके बाद बुद्धि के द्वारा तालु के मूल तक शनैः-शनैः इसे आगे बढ़ाए।
श्लोक 21:
तस्माद्भ्रुवोरन्तरमुन्नयेत
निरुद्धसप्तायतनोऽनपेक्षः।
स्थित्वा मुहूर्तार्धमकुण्ठदृष्टिः
निर्भिद्य मूर्धन्विसृजेत्परं गतः॥
अनुवाद:
इसके पश्चात योगी प्राण को भ्रूमध्य (आज्ञा चक्र) तक लाए और वहां से सात द्वारों को पार करते हुए इसे ऊपर उठाए। ध्यानपूर्वक मस्तिष्क को भेदकर वह परम धाम में प्रवेश करे।
श्लोक 22:
यदि प्रयास्यन्नृपपारमेष्ठ्यं
वैहायसानामुत यद्विहारम्।
अष्टाधिपत्यं गुणसन्निवाये
सहैव गच्छेन्मनसेन्द्रियैश्च॥
अनुवाद:
राजन! यदि योगी मन, इंद्रियों और गुणों को नियंत्रित कर ले, तो वह परम ब्रह्मलोक या वैहायस (आकाशीय) लोक तक भी पहुँच सकता है।
श्लोक 23:
योगेश्वराणां गतिमाहुरन्तः
बहिस्त्रिलोक्याः पवनान्तरात्मनाम्।
न कर्मभिस्तां गतिमाप्नुवन्ति
विद्या तपोयोगसमाधि भाजाम्॥
अनुवाद:
योगेश्वर (योग के स्वामी) की गति को आंतरिक और बाहरी लोकों से परे बताया गया है। विद्या, तपस्या, योग और समाधि के अभ्यास से इसे प्राप्त किया जा सकता है, लेकिन कर्मों के द्वारा नहीं।
श्लोक 24:
वैश्वानरं याति विहायसा गतः
सुषुम्नया ब्रह्मपथेन शोचिषा।
विधूतकल्कोऽथ हरेरुदस्तात्
प्रयाति चक्रं नृप शैशुमारम्॥
अनुवाद:
योगी, जो सुषुम्ना मार्ग (रीढ़ की मध्य ऊर्जा धारा) से ब्रह्मपथ पर अग्रसर होता है, वह वैश्वानर (सर्वभक्षी अग्नि) में प्रवेश करता है। वहां से वह पवित्र होकर भगवान के परम स्थान में जाता है और शैशुमार चक्र (आकाशीय मंडल) को प्राप्त करता है।
श्लोक 25:
तद्विश्वनाभिं त्वतिवर्त्य विष्णोः
अणीयसा विरजेनात्मनैकः।
नमस्कृतं ब्रह्मविदामुपैति
कल्पायुषो यद्विबुधा रमन्ते॥
अनुवाद:
योगी उस परम स्थान, विष्णु के धाम को प्राप्त करता है, जो ब्रह्मविदों द्वारा नमस्कृत है। वह स्थान पवित्र, अणु के समान सूक्ष्म और कल्पायुष (सदियों तक स्थायी) है, जहां देवता आनंद मनाते हैं।
श्लोक 26:
अथो अनन्तस्य मुखानलेन
दन्दह्यमानं स निरीक्ष्य विश्वम्।
निर्याति सिद्धेश्वरयुष्टधिष्ण्यं
यद्द्वैपरार्ध्यं तदुपारमेष्ठ्यम्॥
अनुवाद:
जब योगी भगवान अनन्त के मुख की अग्नि से दग्ध होते हुए समस्त ब्रह्मांड को देखता है, तब वह सिद्ध पुरुषों और देवताओं द्वारा पूजित उस स्थान पर जाता है, जो द्वैपरार्ध (ब्रह्मा का आधा जीवनकाल) तक विद्यमान है।
श्लोक 27:
न यत्र शोको न जरा न मृत्युः
नार्तिर्नचोद्वेग ऋते कुतश्चित्।
यच्चित्ततोऽदः कृपयानिदं विदां
दुरन्तदुःखप्रभवानुदर्शनात्॥
अनुवाद:
उस स्थान पर न शोक है, न जरा (बुढ़ापा), न मृत्यु, न कष्ट और न कोई चिंता। यह स्थान बुद्धिमान योगियों द्वारा इस संसार के अंतहीन दुखों के अनुभव के बाद प्राप्त किया जाता है।
श्लोक 28:
ततो विशेषं प्रतिपद्य निर्भयः
तेनात्मनापोऽनलमूर्तिरत्वरन्।
ज्योतिर्मयो वायुमुपेत्य काले
वाय्वात्मना खं बृहदात्मलिङ्गम्॥
अनुवाद:
उस परम स्थिति को प्राप्त करके निर्भय योगी जल और अग्नि को पार कर लेता है। वह ज्योतिर्मय (प्रकाशमय) होकर वायु से आगे बढ़ता है और अंत में आकाश (आत्मा के सूक्ष्म स्वरूप) में प्रवेश करता है।
श्लोक 29:
घ्राणेन गन्धं रसनेन वै रसं
रूपं च दृष्ट्या श्वसनं त्वचैव।
श्रोत्रेण चोपेत्य नभो गुणत्वं
प्राणेन चाकूतिमुपैति योगी॥
अनुवाद:
योगी अपनी इंद्रियों से गंध, स्वाद, रूप, स्पर्श और ध्वनि को ग्रहण करता है। वह प्राण के माध्यम से सूक्ष्म तत्त्वों को पार करता हुआ आगे बढ़ता है।
श्लोक 30:
स भूतसूक्ष्मेन्द्रियसन्निकर्षं
मनोमयं देवमयं विकार्यम्।
संसाद्यगत्या सह तेन याति
विज्ञानतत्त्वं गुणसंनिरोधम्॥
अनुवाद:
योगी भौतिक इंद्रियों और मनोमय स्वरूप को पार करता है और भगवान के विज्ञानमय स्वरूप में प्रवेश करता है। वह त्रिगुणों से रहित उस परम विज्ञान स्वरूप को प्राप्त करता है।
श्लोक 31:
तेनात्मनात्मानमुपैति शान्तं
आनन्दमानन्दमयोऽवसाने।
एतां गतिं भागवतीं गतो यः
स वै पुनर्नेह विषज्जतेऽङ्ग॥
अनुवाद:
इस प्रकार योगी स्वयं के आनंदमय और शांत स्वरूप को प्राप्त करता है। जो व्यक्ति इस भागवती गति को प्राप्त करता है, वह फिर से इस संसार में नहीं लौटता।
श्लोक 32:
एते सृती ते नृप वेदगीते
त्वयाभिपृष्टे च सनातने च।
ये वै पुरा ब्रह्मण आह तुष्ट
आराधितो भगवान् वासुदेवः॥
अनुवाद:
राजन! यह सृष्टि और मुक्ति की प्रक्रिया वेदों में वर्णित है। इसे ब्रह्मा ने भगवान वासुदेव की आराधना करके समझा और इसे बताया।
श्लोक 33:
न ह्यतोऽन्यः शिवः पन्था विशतः संसृताविह।
वासुदेवे भगवति भक्ति योगो यतो भवेत्॥
अनुवाद:
इस संसार से मुक्ति का अन्य कोई श्रेष्ठ मार्ग नहीं है। केवल भगवान वासुदेव की भक्ति ही इस बंधन को समाप्त कर सकती है।
श्लोक 34:
भगवान् ब्रह्म कार्त्स्न्येन त्रिरन्वीक्ष्य मनीषया।
तदध्यवस्यत्कूटस्थो रतिरात्मन् यतो भवेत्॥
अनुवाद:
भगवान ने समग्र ब्रह्म को अपनी बुद्धि से तीन बार विचार कर देखा और निष्कर्ष निकाला कि केवल आत्मा में प्रेम ही अंतिम सत्य है।
श्लोक 35:
भगवान् सर्वभूतेषु लक्षितः स्वात्मना हरिः।
दृश्यैर्बुद्ध्यादिभिर्द्रष्टा लक्षणैः अनुमापकैः॥
अनुवाद:
भगवान हरि सभी जीवों में आत्मस्वरूप से विद्यमान हैं। बुद्धि और अन्य दृष्टियों से उन्हें देखा और समझा जा सकता है।
श्लोक 36:
तस्मात्सर्वात्मना राजन् हरिः सर्वत्र सर्वदा।
श्रोतव्यः कीर्तितव्यश्च स्मर्तव्यो भगवान्नृणाम्॥
अनुवाद:
इसलिए हे राजन! भगवान हरि को हर समय, हर जगह सुनना, गाना और स्मरण करना चाहिए। यही मनुष्य का परम धर्म है।
श्लोक 37:
पिबन्ति ये भगवत आत्मनः सतां
कथामृतं श्रवणपुटेषु सम्भृतम्।
पुनन्ति ते विषयविदूषिताशयं
व्रजन्ति तच्चरणसरोरुहान्तिकम्॥
अनुवाद:
जो भक्त भगवान की अमृतमयी कथाओं का श्रवण करते हैं, वे अपने विषय-प्रदूषित हृदय को शुद्ध कर लेते हैं और अंत में भगवान के चरण कमलों के समीप पहुंचते हैं।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां द्वितीयस्कंधे द्वितीयोऽध्यायः॥
इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण, जो परमहंसों के लिए आदर्श संहिता है, के द्वितीय स्कंध का दूसरा अध्याय पूर्ण होता है।