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भागवत तृतीय स्कंध, अष्टम अध्याय(हिन्दी अनुवाद)

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भागवत तृतीय स्कंध, अष्टम अध्याय(हिन्दी अनुवाद),यहाँ भागवत तृतीय स्कंध, अष्टम अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के श्लोकों का क्रमशः हिंदी अनुवाद दिया गया है:

भागवत तृतीय स्कंध, अष्टम अध्याय(हिन्दी अनुवाद)

यह चित्र श्रीमद्भागवत महापुराण के तृतीय स्कंध, अष्टम अध्याय से प्रेरित भगवान विष्णु के दिव्य रूप को दर्शाता है। इसमें भगवान विष्णु आंजलि पर शेषनाग पर शयन करते हुए दिखाए गए हैं, और उनके चारों ओर ब्रह्मांडीय जल और दिव्य आभा फैल रही है। उनके शरीर पर आभूषण, रत्न, मुकुट और हार हैं, जो उनके दिव्य स्वरूप को और बढ़ाते हैं। पृष्ठभूमि में आकाशगंगाएँ और स्वर्णिम प्रकाश का विस्तार दिखाया गया है, जो इस दृश्य को दिव्य और शांति से भरा हुआ बनाता है।



भागवत तृतीय स्कंध, अष्टम अध्याय(हिन्दी अनुवाद)

 यहाँ भागवत तृतीय स्कंध, अष्टम अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के प्रत्येक श्लोक का क्रमशः हिंदी अनुवाद दिया गया है:


श्लोक 1:

सत्सेवनीयो बत पूरुवंशो
यल्लोकपालो भगवत्प्रधानः।
बभूविथेहाजितकीर्तिमालां
पदे पदे नूतनयस्यभीक्ष्णम्॥

हिंदी अनुवाद:
वह पूर्वज, जिनका वंश शुद्ध और देवताओं का आदर करने योग्य था, उन्होंने भगवान की पूजा में अपनी कीर्ति को और बढ़ाया। भगवान के चरणों की सेवा से उनके गुण और पुण्य हर कदम पर नूतन रूप से विस्तारित होते गए।


श्लोक 2:

सोऽहं नृणां क्षुल्लसुखाय दुःखं
महद्‍गतानां विरमाय तस्य।
प्रवर्तये भागवतं पुराणं
यदाह साक्षात् भगवान् ऋषिभ्यः॥

हिंदी अनुवाद:
मैं इस संसार में नश्वर सुखों की प्राप्ति के लिए नहीं आया, बल्कि महान कष्टों से मुक्ति पाने के लिए ही आया हूँ। इस उद्देश्य के लिए, मैं भगवान के दिव्य पुराणों की व्याख्या करता हूँ, जैसा कि भगवान ने ऋषियों से साक्षात कहा था।


श्लोक 3:

आसीनमुर्व्यां भगवन्तमाद्यं
सङ्कर्षणं देवमकुण्ठसत्त्वम्।
विवित्सवस्तत्त्वमतः परस्य
कुमारमुख्या मुनयोऽन्वपृच्छन्॥

हिंदी अनुवाद:
भगवान श्री कृष्ण, जो अचिन्त्य और अविनाशी हैं, धरती पर बैठे हुए थे। उन्होंने अपने दिव्य रूप में सृष्टि के सभी तत्वों को दर्शाया। इस समय कुमारों के मुख से मुनि ने भगवान से विशेष प्रकार के आध्यात्मिक प्रश्न पूछे थे।


श्लोक 4:

स्वमेव धिष्ण्यं बहु मानयन्तं
यद् वासुदेवाभिधमामनन्ति।
प्रत्यग्धृताक्षाम्बुजकोशमीषद्
उन्मीलयन्तं विबुधोदयाय॥

हिंदी अनुवाद:
भगवान श्री कृष्ण ने स्वयं को ही ध्यान में रखा और उन परम तत्वों को अपने भीतर आत्मसात किया, जिनका जप सभी देवता करते हैं। वह न केवल खुद को प्रकट कर रहे थे, बल्कि सभी प्राणियों के भीतर प्रेम और प्रकाश को प्रकट करने के लिए अवतार ले रहे थे।


श्लोक 5:

स्वर्धुन्युदार्रैः स्वजटाकलापैः
उपस्पृशन्तश्चरणोपधानम्।
पद्मं यदर्चन्त्यहिराजकन्याः
सप्रेम नानाबलिभिर्वरार्थाः॥

हिंदी अनुवाद:
स्वर्गलोक के धन्य और पवित्र लोग भगवान के चरणों को छूने के लिए अपने जटा के आभूषणों और फूलों के साथ आते हैं। वे भगवान के चरणों में श्रद्धा रखते हुए, उनके साथ प्रेम और आशीर्वाद की भावना में समर्पण करते हैं। देवियाँ और अन्य देवी-देवता भगवान के पदों की पूजा करते हुए अपनी इच्छाएँ और वरदान प्राप्त करने के लिए उनकी स्तुति करती हैं।


श्लोक 6:

मुहुर्गृणन्तो वचसानुराग
स्खलत्पदेनास्य कृतानि तज्ज्ञाः।
किरीटसाहस्रमणिप्रवेक
प्रद्योतितोद्दामफणासहस्रम्॥

हिंदी अनुवाद:
भगवान की महिमा में भक्त अक्सर गाने और प्रार्थना करते हैं, उनका समर्पण हर समय बढ़ता रहता है। उनके कण्ठ से गूंजते मंत्रों के साथ, उनके चरणों की पूजा करने के बाद, उनका सिर एक विशाल मुकुट (कीरीट) धारण करता है, जिसे आभूषणों और नवरत्नों से सजाया जाता है।


श्लोक 7:

प्रोक्तं किलैतद्‍भगवत्तमेन
निवृत्तिधर्माभिरताय तेन।
सनत्कुमाराय स चाह पृष्टः
साङ्ख्यायनायाङ्ग धृतव्रताय॥

हिंदी अनुवाद:
भगवान ने यह बात सनत्कुमार जी से कही थी, जिनका मन पूरी तरह से भक्ति में रत था। उन्हें साङ्ख्य विद्या के अभ्यास की प्रेरणा मिली थी, और उन्होंने दृढ़ संकल्प के साथ उसे अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया था।


श्लोक 8:

साङ्ख्यायनः पारमहंस्यमुख्यो
विवक्षमाणो भगवद्विभूतीः।
जगाद सोऽस्मद्‍गुरवेऽन्विताय
पराशरायाथ बृहस्पतेश्च॥

हिंदी अनुवाद:
साङ्ख्यायन, जो पारमहंस हैं, भगवद्विभूतियों को विस्तार से बताने के लिए उत्तेजित थे। उन्होंने हमारे गुरु, पराशर और बृहस्पति से भगवद्विभूतियों के बारे में पूछा और उनसे मार्गदर्शन प्राप्त किया।


श्लोक 9:

प्रोवाच मह्यं स दयालुरुक्तो
मुनिः पुलस्त्येन पुराणमाद्यम्।
सोऽहं तवैतत्कथयामि वत्स
श्रद्धालवे नित्यमनुव्रताय॥

हिंदी अनुवाद:
महात्मा मुनि पुलस्त्य ने मुझे यह पुराण सुनाया और कहा, "मैं तुम्हें यह अत्यंत प्राचीन पुराण सुनाता हूँ, वत्स। इसका श्रवण करने से तुम्हारे भीतर श्रद्धा और भक्ति का संचार होगा।"


श्लोक 10:

उदाप्लुतं विश्वमिदं तदासीत्
यन्निद्रयामीलितदृङ् न्यमीलयत्।
अहीन्द्रतल्पेऽधिशयान एकः
कृतक्षणः स्वात्मरतौ निरीहः॥

हिंदी अनुवाद:
सृष्टि का आरंभ हुआ और सभी प्राणियों में अदृश्य दिव्य तत्व का उदय हुआ। यह अवस्था भगवान के निद्रालीन रूप में व्यक्त होती है, जब वह अकेले ही अहीन्द्र तल्प पर स्थित होकर स्वात्मरत हो जाते हैं।


श्लोक 11:

सोऽन्तः शरीरेऽर्पितभूतसूक्ष्मः
कालात्मिकां शक्तिमुदीरयाणः।
उवास तस्मिन् सलिले पदे स्वे
यथानलो दारुणि रुद्धवीर्यः॥

हिंदी अनुवाद:
भगवान ने अपने शरीर के भीतर सभी सूक्ष्म जीवों को समाहित किया और काल की शक्ति का संचार किया। वह अपने स्वधर्म में स्थित रहते हुए, जल में अपने पदों पर स्थित हो जाते हैं, जैसे अग्नि में अपना वीर्य दबाए रहता है।


श्लोक 12:

चतुर्युगानां च सहस्रमप्सु
स्वपन् स्वयोदीरितया स्वशक्त्या।
कालाख्ययाऽऽसादितकर्मतन्त्रो
लोकानपीतान्ददृशे स्वदेहे॥

हिंदी अनुवाद:
भगवान ने चार युगों की अवधि में और हजारों वर्षों तक स्वप्न में सभी संसारों को देखा। उनके द्वारा किए गए कर्मों के प्रभाव से, समय के बंधन में बंधे सभी लोकों का रूप उनके शरीर में स्पष्ट हो गया।


श्लोक 13:

तस्यार्थसूक्ष्माभिनिविष्टदृष्टेः
अन्तर्गतोऽर्थो रजसा तनीयान्।
गुणेन कालानुगतेन विद्धः
सूष्यंस्तदाभिद्यत नाभिदेशात्॥

हिंदी अनुवाद:
भगवान की दृष्टि के कारण, जो सूक्ष्म अर्थों को समझते थे, उन्होंने अपने भीतर के गुणों के प्रभाव से समय के अनुसार हर एक कृत्य को देखा और अपने अस्तित्व में उसे महसूस किया। ऐसे में भगवान के शरीर में इसका प्रभाव स्पष्ट हो गया।


श्लोक 14:

स पद्मकोशः सहसोदतिष्ठत्
कालेन कर्मप्रतिबोधनेन।
स्वरोचिषा तत्सलिलं विशालं
विद्योतयन्नर्क इवात्मयोनिः॥

हिंदी अनुवाद:
भगवान ने अपना पद्म पुष्प रूपी रूप धारण किया और समय के अनुसार कर्मों का विश्लेषण किया। उनके उस विशाल रूप से उर्जा फैलने लगी, जैसे सूर्य की किरणों से जल में प्रकाश फैलता है, वह ऊर्जा हर स्थान को प्रकट कर देती है।


श्लोक 15:

तल्लोकपद्मं स उ एव विष्णुः
प्रावीविशत्सर्वगुणावभासम्।
तस्मिन् स्वयं वेदमयो विधाता
स्वयंभुवं यं स्म वदन्ति सोऽभूत्॥

हिंदी अनुवाद:
वह भगवान विष्णु का रूप था, जो ब्रह्मा के साथ सह अस्तित्व में था। उस समय भगवान वेदों के ज्ञाता, विधाता और स्वयंभू रूप में प्रकट हुए। वही रूप ब्रह्मा से उत्पन्न हुआ, जिसे हम भगवान के सर्वज्ञ रूप में जानते हैं।


श्लोक 16:

तस्मां स चाम्भोरुहकर्णिकायां
अवस्थितो लोकमपश्यमानः।
परिक्रमन् व्योम्नि विवृत्तनेत्रः
चत्वारि लेभेऽनुदिशं मुखानि॥

हिंदी अनुवाद:
भगवान उस समय अपने पैरों से पद्मराग रूपी स्थान पर स्थित थे। उनकी आंखों के ऊपर आकाश का विराट रूप था। उनकी दृष्टि ने उन्हें चारों स्थानों से आकाश में विस्तार करते हुए, भविष्य को देखाया।


श्लोक 17:

तस्माद्युगान्तश्वसनावघूर्ण
जलोर्मिचक्रात् सलिलाद्विरूढम्।
उपाश्रितः कञ्जमु लोकतत्त्वं
नात्मानमद्धाविददादिदेवः॥

हिंदी अनुवाद:
उनके श्वास के साथ ही प्रलय की आंधी में जल की लहरें घुमने लगीं और जल से उपजी स्थिति स्थिर हो गई। भगवान ने उस समय सच्चाई की पहचान की और उसे स्थिर किया, जो पूरी सृष्टि का प्रतीक थी।


श्लोक 18:

क एष योऽसौ अहमब्जपृष्ठ
एतत्कुतो वाब्जमनन्यदप्सु।
अस्ति ह्यधस्तादिह किञ्चनैतद्
अधिष्ठितं यत्र सता नु भाव्यम्॥

हिंदी अनुवाद:
भगवान ने आत्मबोध के माध्यम से यह पूछा, “यह कौन है जो मैं हूं और इसका संबद्ध कैसे है? वह जो शरीर से जुड़ा हुआ है, वह कहाँ से उत्पन्न हुआ है और यहाँ इसका क्या कार्य है?”


श्लोक 19:

स इत्थमुद्वीक्ष्य तदब्जनाल
नाडीभिरन्तर्जलमाविवेश।
नार्वाग्गतस्तत् खरनालनाल
नाभिं विचिन्वन् तदविन्दताजः॥

हिंदी अनुवाद:
भगवान ने इस रूप में पृथ्वी के जल में प्रविष्ट होकर, नाड़ी के भीतर से उत्पन्न शक्ति को पहचानते हुए, काल और सृष्टि के असल रूप का अनुभव किया। उन्होंने जल के अंतराल में नाभि से जुड़ी शक्ति को देखा, जो सृष्टि का कारण थी।


श्लोक 20:

तमस्यपारे विदुरात्मसर्गं
विचिन्वतोऽभूत् सुमहांस्त्रिणेमिः।
यो देहभाजां भयमीरयाणः
परिक्षिणोत्यायुरजस्य हेतिः॥

हिंदी अनुवाद:
विदुर जी ने भगवान के आत्मस्वरूप का गहराई से अध्ययन किया, और पाया कि वह न केवल आत्मा का रूप थे, बल्कि समय और जीवन के बंधन से परे थे। उनका रूप सभी जीवन के भय और कर्म से मुक्ति का मार्ग था।


श्लोक 21:

ततो निवृत्तोऽप्रतिलब्धकामः
स्वधिष्ण्यमासाद्य पुनः स देवः।
शनैर्जितश्वासनिवृत्तचित्तो
न्यषीददारूढसमाधियोगः॥

हिंदी अनुवाद:
भगवान ने अपनी स्थिति को स्थिर किया और इच्छाओं से मुक्त होकर पुनः अपने आत्मस्वरूप को पहचाना। उन्होंने धीरे-धीरे अपने मन को शांत किया और समाधि में गहरी लीन हो गए।


श्लोक 22:

कालेन सोऽजः पुरुषायुषाभि
प्रवृत्तयोगेन विरूढबोधः।
स्वयं तदन्तर्हृदयेऽवभातं
अपश्यतापश्यत यन्न पूर्वम्॥

हिंदी अनुवाद:
समय के साथ, भगवान का अवतार हुआ और उन्होंने साक्षात आत्मबोध के योग से अपने शरीर में स्थित दिव्य ज्ञान को समझा। उनके हृदय में यह दिव्य ज्ञान प्रकट हुआ, और उन्होंने अपने वास्तविक रूप को देखा जो पहले कभी अनुभव नहीं हुआ था।


श्लोक 23:

मृणालगौरायतशेषभोग
पर्यङ्क एकं पुरुषं शयानम्।
फणातपत्रायुतमूर्धरत्‍न
द्युभिर्हतध्वान्तयुगान्ततोये॥

हिंदी अनुवाद:
भगवान विष्णु, जो मृणाल के रूप में गहरे रूप से शयन कर रहे थे, उनके शेषनाग के फण में आभूषण और रत्न समाहित थे। उनका शरीर जैसे अमरत्व का प्रतीक था, और वे संसार के सभी अंधकार को समाप्त करते हुए एक नायक के रूप में प्रकट हो रहे थे।


श्लोक 24:

प्रेक्षां क्षिपन्तं हरितोपलाद्रेः
सन्ध्याभ्रनीवेरु रुरुक्ममूर्ध्नः।
रत्‍नोदधारौषधिसौमनस्य
वनस्रजो वेणुभुजाङ्‌घ्रिपाङ्घ्रेः॥

हिंदी अनुवाद:
भगवान ने अपनी दिव्य दृष्टि से हरित पत्थरों से भरे पर्वतों की ओर देखा। उनके सिर पर भव्य आभूषण थे, और रत्नों से सजाए गए उनके चरणों से दुनिया के कष्टों का निवारण होता था। उनका रूप सौम्यता, औषधियों की शक्ति और प्राकृतिक संतुलन का प्रतीक था।


श्लोक 25:

आयामतो विस्तरतः स्वमान
देहेन लोकत्रयसङ्ग्रहेण।
विचित्रदिव्याभरणांशुकानां
कृतश्रियापाश्रितवेषदेहम्॥

हिंदी अनुवाद:
भगवान का रूप अत्यंत विस्तृत था, और उनका शरीर त्रिलोकों के संकलन से जुड़ा हुआ था। उनके दिव्य आभूषण और वस्त्र विभिन्न रंगों में चमक रहे थे, जो उनकी समृद्धि और वैभव का प्रतीक थे।


श्लोक 26:

पुंसां स्वकामाय विविक्तमार्गैः
अभ्यर्चतां कामदुघाङ्‌घ्रिपद्मम्।
प्रदर्शयन्तं कृपया नखेन्दु
मयूखभिन्नाङ्गुलिचारुपत्रम्॥

हिंदी अनुवाद:
भगवान की पूजा करने वाले भक्त अपनी इच्छा अनुसार मार्गदर्शन लेते थे और भगवान के पदकमल की पूजा करते हुए उन्हें अनंत आशीर्वाद प्राप्त करते थे। भगवान के नाखूनों में एक विशेष चमक थी, जो उनके दिव्य रूप और गुणों को प्रदर्शित करती थी।


श्लोक 27:

मुखेन लोकार्तिहरस्मितेन
परिस्फुरत् कुण्डलमण्डितेन।
शोणायितेनाधरबिम्बभासा
प्रत्यर्हयन्तं सुनसेन सुभ्र्वा॥

हिंदी अनुवाद:
भगवान का मुखमंडल मुस्कान से जगत का उद्धार करने वाला था, और उनके कानों में कुंडल चमकते थे। उनके अधरों की लालिमा जैसे सूर्य की किरणें थीं, जो अपने भक्तों के दिलों में शांति और समृद्धि का संचार करती थीं।


श्लोक 28:

कदम्बकिञ्जल्कपिशङ्गवाससा
स्वलङ्कृतं मेखलया नितम्बे।
हारेण चानन्तधनेन वत्स
श्रीवत्सवक्षःस्थलवल्लभेन॥

हिंदी अनुवाद:
भगवान के शरीर पर कदम्ब के फूलों की खुशबू थी, और उनके वस्त्र हल्के रंगों से अलंकृत थे। उनका शरीर श्रीवस्त्र से सुशोभित था, और उनका हृदय अपने भक्तों के लिए हमेशा समर्पित था।


श्लोक 29:

परार्ध्यकेयूरमणिप्रवेक
पर्यस्तदोर्दण्डसहस्रशाखम्।
अव्यक्तमूलं भुवनाङ्‌घ्रिपेन्द्र
महीन्द्रभोगैरधिवीतवल्शम्॥

हिंदी अनुवाद:
भगवान के शरीर पर सुंदर आभूषण थे, जिनमें उनकी शक्ति और उनके कार्यों की महिमा व्यक्त होती थी। उनकी गहनों से सुसज्जित बाहु और कमर पर उनकी शक्ति का प्रतीक था, जो प्रत्येक व्यक्ति को शक्ति और साहस प्रदान करता था।


श्लोक 30:

चराचरौको भगवन् महीध्र
महीन्द्रबन्धुं सलिलोपगूढम्।
किरीटसाहस्रहिरण्यश्रृङ्गं
आविर्भवत्कौस्तुभरत्‍नगर्भम्॥

हिंदी अनुवाद:
भगवान ने चराचर जगत को ध्यान में रखते हुए, महेंद्र के बंधु के रूप में जल में स्वयं को स्थापित किया। उनके सिर पर अनंत आभूषण थे, और उनका रूप ब्रह्मा के लिए हर प्रकार से समर्पित था। उनका कौस्तुभ रत्न उनकी महिमा और दिव्य ज्ञान का प्रतीक था।


यहाँ कुछ और श्लोकों का विस्तृत हिंदी अनुवाद प्रस्तुत किया गया है:


श्लोक 31:

निवीतमाम्नायमधुव्रतश्रिया
स्वकीर्तिमय्या वनमालया हरिम्।
सूर्येन्दुवाय्वग्न्यगमं त्रिधामभिः
परिक्रमत् प्राधनिकैर्दुरासदम्॥

हिंदी अनुवाद:
भगवान ने स्वयं की महिमा का उत्सव मनाते हुए, अपने परम व्रत और शरणागतों के आशीर्वाद से विभूषित किया। भगवान ने सूर्य, चंद्रमा, वायु और अग्नि से तीनों लोकों का परिक्रमा की, और सभी के लिए उनका मार्गदर्शन अत्यंत कठिन था।


श्लोक 32:

तर्ह्येव तन्नाभिसरःसरोजं
आत्मानमम्भः श्वसनं वियच्च।
ददर्श देवो जगतो विधाता
नातः परं लोकविसर्गदृष्टिः॥

हिंदी अनुवाद:
भगवान ने अपने नाभि से ब्रह्मा के उद्भव को देखा, और उन्होंने अपनी आत्मशक्ति को श्वसन के रूप में प्रसारित किया। सभी संसारों के रचयिता देव ने वहां पर अपना दृष्टिकोण व्यक्त किया और समझाया कि संसार के सृजन का कोई भी उच्चतर दृष्टिकोण नहीं है।


श्लोक 33:

स कर्मबीजं रजसोपरक्तः
प्रजाः सिसृक्षन्नियदेव दृष्ट्वा।
अस्तौद् विसर्गाभिमुखस्तमीड्यं
अव्यक्तवर्त्मन्यभिवेशितात्मा॥

हिंदी अनुवाद:
भगवान ने जब कर्म के बीज को देखा, जो रजोगुण से उत्पन्न था, तब वह प्रजाओं के बीच कार्यों के प्रसार के लिए उपाय करने लगे। उन्होंने अपने आत्मतत्त्व से कर्म का मार्ग दिखाया और इस सृष्टि के लिए निर्णय लिया।


इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे अष्टमोऽध्यायः॥

इसी प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण के तृतीय स्कंध के अष्टम अध्याय का समापन हुआ।


यह भागवत तृतीय स्कंध, अष्टम अध्याय(हिन्दी अनुवाद) भगवान के दिव्य रूप, सृष्टि की शुरुआत और उनके कार्यों के माध्यम से ब्रह्मांड के सृजन, पालन और संहार की व्याख्या करता है। भागवत तृतीय स्कंध, अष्टम अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के श्लोकों में भगवान की महिमा, उनके अवतार की आवश्यकता और उनके द्वारा किए गए कार्यों का गहराई से वर्णन किया गया है।

यदि आप भागवत तृतीय स्कंध, अष्टम अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के किसी विशेष श्लोक पर चर्चा करना चाहते हैं, तो कृपया कमेंट में बताएं।

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भागवत दर्शन: भागवत तृतीय स्कंध, अष्टम अध्याय(हिन्दी अनुवाद)
भागवत तृतीय स्कंध, अष्टम अध्याय(हिन्दी अनुवाद)
भागवत तृतीय स्कंध, अष्टम अध्याय(हिन्दी अनुवाद),यहाँ भागवत तृतीय स्कंध, अष्टम अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के श्लोकों का क्रमशः हिंदी अनुवाद दिया गया है:
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भागवत दर्शन
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