भागवत द्वितीय स्कन्ध, अष्टम अध्याय(हिन्दी अनुवाद)।यहाँ पर भागवत द्वितीय स्कन्ध,अष्टम अध्याय(हिन्दी अनुवाद)के सभी श्लोकों के साथ क्रमशः हिन्दीअनुवाद है
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भागवत द्वितीय स्कन्ध, अष्टम अध्याय(हिन्दी अनुवाद)
यहाँ पर भागवत द्वितीय स्कन्ध, अष्टम अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के सभी श्लोकों के साथ क्रमशः हिन्दी अनुवाद दिया गया है।
॥ राजोवाच ॥
श्लोक 1:
ब्रह्मणा चोदितो ब्रह्मन् गुणाख्यानेऽगुणस्य च।
यस्मै यस्मै यथा प्राह नारदो देवदर्शनः॥
अनुवाद:
राजा ने पूछा: भगवान ब्रह्मदेव, आपने इस संसार के गुणों और अवगुणों की व्याख्या की है। नारद ने देवताओं के दर्शन के समय किस प्रकार यह सब कहा? कृपया इसे स्पष्ट करें।
श्लोक 2:
एतत् वेदितुमिच्छामि तत्त्वं तत्त्वविदां वर।
हरेरद्भुतवीर्यस्य कथा लोकसुमङ्गलाः॥
अनुवाद:
मैं यह जानना चाहता हूँ कि भगवान हरि के अद्भुत वीर्य की कथा और तत्त्व की व्याख्या किस प्रकार लोकों के लिए शुभकारी हो सकती है।
श्लोक 3:
कथयस्व महाभाग यथाऽहं अखिलात्मनि।
कृष्णे निवेश्य निःसङ्गं मनस्त्यक्ष्ये कलेवरम्॥
अनुवाद:
कृपया आप मुझे भगवान कृष्ण के अद्भुत रूप में आत्मा की स्थिति और उनके प्रति प्रेम की कथा सुनाएं, ताकि मैं अपना मन भगवान में स्थिर कर सकूं और शरीर को छोड़कर उनकी शरण में समर्पित हो सकूं।
श्लोक 4:
शृण्वतः श्रद्धया नित्यं गृणतश्च स्वचेष्टितम्।
कालेन नाति दीर्घेण भगवान्विशते हृदि॥
अनुवाद:
जो व्यक्ति श्रद्धा के साथ भगवान की कथा सुनता है और गाता है, उसके हृदय में समय के साथ भगवान का निवास होता है, जिससे वह परम शांति और आंतरिक सुख प्राप्त करता है।
श्लोक 5:
प्रविष्टः कर्णरन्ध्रेण स्वानां भावसरोरुहम्।
धुनोति शमलं कृष्णः सलिलस्य यथा शरत्॥
अनुवाद:
भगवान कृष्ण के शब्द कर्णों के रास्ते से हृदय में प्रवेश करते हैं और भीतर से भावों के स्रोत को शुद्ध करते हैं, जैसे शरत ऋतु में जल शुद्ध हो जाता है।
श्लोक 6:
धौतात्मा पुरुषः कृष्ण पादमूलं न मुञ्चति।
मुक्तसर्वपरिक्लेशः पान्थः स्वशरणं यथा॥
अनुवाद:
भगवान कृष्ण के भक्त, जिनका आत्मा शुद्ध हो चुका होता है, भगवान के चरणों से कभी विचलित नहीं होते। वे हर प्रकार के मानसिक क्लेश से मुक्त होते हैं और जैसे एक यात्री अपने घर लौटता है, वैसे ही वे भगवान की शरण में आते हैं।
श्लोक 7:
यदधातुमतो ब्रह्मन्देहारम्भोऽस्य धातुभिः।
यदृच्छया हेतुना वा भवन्तो जानते यथा॥
अनुवाद:
जैसे ब्रह्मा और अन्य देवता अपने कर्मों के अनुसार अपनी भूमिका निभाते हैं, वैसे ही भगवान के कार्य भी स्वाभाविक रूप से होते हैं। यह सब भगवान की इच्छा और माया से निर्धारित होता है।
श्लोक 8:
आसीद्यदुदरात्पद्मं लोकसंस्थानलक्षणम्।
यावानयं वै पुरुष इयत्तावयवैः पृथक्।
तावानसाविति प्रोक्तः संस्थावयववानि वः॥
अनुवाद:
भगवान के पद में वह गुण है, जिससे सारा ब्रह्मांड सुसंगठित रहता है। भगवान के प्रत्येक अवयव के द्वारा यह ब्रह्मांड उचित रूप से संरचित रहता है।
श्लोक 9:
अजः सृजति भूतानि भूतात्मा यदनुग्रहात्।
ददृशे येन तद्रूपं नाभि पद्मसमुद्भवः॥
अनुवाद:
भगवान अज (ब्रह्मा) सभी भूतों को उत्पन्न करते हैं। वे आत्मा के रूप में भूतों में निवास करते हैं और उनकी कृपा से यह सृष्टि अपनी रूपरेखा ग्रहण करती है।
श्लोक 10:
स चाऽपि यत्र पुरुषो विश्वस्थित्युद्भवाप्ययः।
मुक्त्वाऽऽत्ममायां मायेशः शेते सर्वगुहाशयः॥
अनुवाद:
भगवान पुरुष अपनी माया से सृष्टि का पालन करते हैं। वे सर्वव्यापी हैं और सबके भीतर स्थित रहते हैं, लेकिन उन्होंने माया के प्रभाव से मुक्त होकर अपनी असली स्थिति में विश्राम किया है।
श्लोक 11:
पुरुषावयवैर्लोकाः सपालाः पूर्वकल्पिताः।
लोकैरमुष्यावयवाः सपालैरिति शुश्रुम॥
अनुवाद:
भगवान के प्रत्येक अवयव से सभी लोकों का निर्माण हुआ है, और इन लोकों का पालन भी उनके अवयवों के द्वारा ही किया जाता है। यह सब शास्त्रों में वर्णित है।
श्लोक 12:
यावान् कल्पो विकल्पो वा यथा कालोऽनुमीयते।
भूतभव्यभवच्छब्द आयुर्मानश्च यत् सतः॥
अनुवाद:
जब समय के चक्र में कल्प, विकल्प और काल का प्रवेश होता है, तब समय के अनुसार भूत, भविष्य और वर्तमान की घटनाएं होती हैं। यह सारे घटक जीवन के विकास और पतन को निर्धारित करते हैं।
श्लोक 13:
कालस्यानुगतिर्या तु लक्ष्यतेऽण्वी बृहत्यपि।
यावत्यः कर्मगतयो यादृशी द्विजसत्तम॥
अनुवाद:
समय का प्रभाव सभी जीवों पर होता है। जब जीवन के कर्मों का फल समय के अनुसार मिलते हैं, तो वे सभी जीव उसी अनुसार अपना मार्ग निर्धारित करते हैं।
श्लोक 14:
यस्मिन् कर्मसमावायो यथा येनोपगृह्यते।
गुणानां गुणिनाश्चैव परिणाममभीप्सता म्॥
अनुवाद:
जैसे कर्म का परिणाम कर्मी के अनुसार होता है, वैसे ही गुणों का संयोग भी उन्हीं गुणों के अनुसार होता है। हर जीव का परिणाम उसके कार्यों और गुणों से निर्धारित होता है।
श्लोक 15:
भूपातालककुब्व्योम ग्रहनक्षत्रभूभृताम्।
सरित्समुद्रद्वीपानां सम्भवश्चैतदोकसाम्॥
अनुवाद:
सभी लोक, चाहे वे पृथ्वी, आकाश, समुद्र, नदियां, ग्रह, नक्षत्र या अन्य द्वीप हों, भगवान के कारण ही अस्तित्व में हैं। उनका निर्माण और पालन भगवान के आदेश से होता है।
श्लोक 16:
प्रमाणमण्डकोशस्य बाह्याभ्यन्तरभेदतः।
महतां चानुचरितं वर्णाश्रमविनिश्चयः॥
अनुवाद:
सभी प्रकार के प्रमाणों का भेद है, जैसे बाहरी और आंतरिक प्रमाणों के बीच। वेदों के अनुसार महात्मा तथा उनके अनुयायी धार्मिक कार्यों और आश्रमों का पालन करते हैं।
श्लोक 17:
युगानि युगमानश्च धर्मो यश्च युगे युगे।
अवतारानुचरितं यदाश्चर्यतमं हरेः॥
अनुवाद:
धर्म प्रत्येक युग में बदलता है और उसी के अनुसार भगवान के अवतार होते हैं। हर युग में भगवान का कार्य और उनके लीलाओं का विश्लेषण एक अद्भुत चमत्कारी प्रक्रिया होती है।
श्लोक 18:
नृणां साधारणो धर्मः सविशेषश्च यादृशः।
श्रेणीनां राजर्षीणाञ्च धर्मः कृच्छ्रेषु जीवताम्॥
अनुवाद:
मनुष्यों के लिए सामान्य और विशिष्ट धर्म होता है। विशेषकर राजर्षियों के लिए धर्म उनके जीवन के कर्तव्यों और कठिनाइयों के अनुसार निर्धारित होता है।
श्लोक 19:
तत्त्वानां परिसङ्ख्यानं लक्षणं हेतुलक्षणम्।
पुरुषाराधनविधिः योगस्याध्यात्मिकस्य च॥
अनुवाद:
सभी तत्त्वों के गणना, उनके लक्षण और उद्देश्य की पहचान की जाती है, जैसे पुरुष की पूजा और योग की साधना का सही मार्ग। यह सब आत्मिक ज्ञान को प्राप्त करने के लिए आवश्यक है।
श्लोक 20:
योगेश्वरैश्वर्यगतिः लिङ्गभङ्गस्तु योगिनाम्।
वेदोपवेदधर्माणां इतिहासपुराणयोः॥
अनुवाद:
योगेश्वर के दिव्य सामर्थ्य और योगियों के लिए सिद्धि के रूप में उत्पन्न होने वाले परिणामों का वर्णन वेदों, उपवेदों और इतिहास में किया गया है।
श्लोक 21:
सम्प्लवः सर्वभूतानां विक्रमः प्रतिसङ्क्रमः।
इष्टापूर्तस्य काम्यानां त्रिवर्गस्य च यो विधिः॥
अनुवाद:
सम्प्लव (प्रलय) और विक्रम (उत्थान) सभी प्राणियों पर होते हैं। इन सभी कार्यों का अनुसरण त्रिवर्ग के सिद्धांतों के अनुसार किया जाता है।
श्लोक 22:
यश्चानुशायिनां सर्गः पाषण्डस्य च सम्भवः।
आत्मनो बन्धमोक्षौ च व्यवस्थानं स्वरूपतः॥
अनुवाद:
जो व्यक्ति भगवान की लीलाओं का अनुसरण करते हुए सृजन में शामिल होते हैं, वे पाषण्डों (अधर्मियों) के मार्ग से दूर रहते हुए आत्मबद्धता और आत्ममुक्ति की प्राप्ति करते हैं।
श्लोक 23:
यथात्मतन्त्रो भगवान् विक्रीडत्यात्ममायया।
विसृज्य वा यथा मायां उदास्ते साक्षिवद्विभुः॥
अनुवाद:
भगवान अपनी माया के द्वारा स्वप्न का सृजन करते हैं और जब वह माया समाप्त हो जाती है, तो वे उसे छोड़कर अपनी निराकार स्थिति में जाते हैं। वे सबके भीतर होते हुए भी अपनी स्वच्छता और पूर्णता को बनाए रखते हैं।
श्लोक 24:
सर्वमेतच्च भगवन् पृच्छतो मेऽनुपूर्वशः।
तत्त्वतोऽर्हस्युदाहर्तुं प्रपन्नाय महामुने॥
अनुवाद:
हे भगवान! मैं आपकी उन महान लीलाओं और तत्त्वों को जानने के लिए आपके पास आया हूं, जिन्हें आपने पहले ही अन्य भक्तों को समझाया।
श्लोक 25:
अत्र प्रमाणं हि भवान् परमेष्ठी यथात्मभूः।
अपरे चानुतिष्ठन्ति पूर्वेषां पूर्वजैः कृतम्॥
अनुवाद:
भगवान आप स्वयं प्रमाण हैं, और कुछ अन्य लोग आपके द्वारा बताए गए मार्ग का पालन करते हुए धर्म का आचरण करते हैं। वे पहले से चली आ रही परंपराओं के अनुरूप ही कार्य करते हैं।
श्लोक 26:
न मेऽसवः परायन्ति ब्रह्मन्ननशनादमी।
पिबतोऽच्युतपीयूषमन्यत्र कुपिताद्द्विजात्॥
अनुवाद:
जो मुझे श्रद्धा और भक्ति से प्राप्त करते हैं, वे कभी नष्ट नहीं होते। और जो द्विजात्मा मेरे अमृतमय रस का सेवन करते हैं, वे कभी भी विपत्ति से पीड़ित नहीं होते।
श्लोक 27:
स उपामन्त्रितो राज्ञा कथायामिति सत्पतेः।
ब्रह्मरातो भृशं प्रीतो विष्णुरातेन संसदि॥
अनुवाद:
राजा द्वारा कथा सुनाने के लिए प्रेरित होने पर, भगवान शुकदेव भृशं (प्रेमपूर्वक) प्रोत्साहित होकर परीक्षित से अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक भगवान की कथा सुनाने के लिए तत्पर हो गए ।
श्लोक 28:
प्राह भागवतं नाम पुराणं ब्रह्मसम्मितम्।
ब्रह्मणे भगवत्प्रोक्तं ब्रह्मकल्प उपागते॥
अनुवाद:
भगवान विष्णु ने कहा: "मैं तुम्हें वेद सम्मत भागवत पुराण का उपदेश देने जा रहा हूँ, जो ब्रह्मा द्वारा व्यक्त की गई ब्रह्मसत्ता का शाश्वत उपदेश है।"
श्लोक 29:
यद्यत् परीक्षिदृषभः पाण्डूनामनुपृच्छति।
आनुपूर्व्येण तत्सर्वं आख्यातुमुपचक्रमे॥
अनुवाद:
राजा परीक्षित ने पांडवों के बारे में जो कुछ भी पूछा था, वह सब भगवान विष्णु ने उपयुक्त रूप से बताया, ताकि उनके प्रश्नों का समाधान हो सके।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां द्वितीयस्कंधे अष्टमोऽध्यायः॥
इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण के द्वितीय स्कंध का आठवां अध्याय समाप्त हुआ।
इस प्रकार यहाँ पर भागवत द्वितीय स्कन्ध, अष्टम अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के सभी श्लोकों के साथ क्रमशः हिन्दी अनुवाद दिया गया।